क्या चीन बढ़ाएगा भारत की मुश्किलें , ईरान का ब्रिक्स के लिए आवेदन

क्या चीन बढ़ाएगा भारत की मुश्किलें , ईरान का ब्रिक्स के लिए आवेदन

ब्रिक्स क्या है

  • ब्रिक्स दुनिया की पांच उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है- ब्राज़ील, रुस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका. दक्षिण अफ़्रीका के इस आर्थिक समूह से जुड़ने से पहले इसे ‘ब्रिक’ ही कहा जाता था.
  • ‘ब्रिक’ शब्दावली के जन्मदाता जिम ओ’नील हैं. ओ’नील ने इस शब्दावली का प्रयोग सबसे पहले वर्ष 2001 में अपने शोधपत्र में किया था.
  • जिम ओ’नील के इस प्रसिद्ध शोधपत्र के आठ साल बाद ब्रिक देशों की पहली शिखर स्तर की आधिकारिक बैठक 16 जून 2009 को रुस के येकाटेरिंगबर्ग में हुई.
  • इसके बाद वर्ष 2010 में ब्रिक का शिखर सम्मेलन ब्राज़ील की राजधानी ब्रासिलीया में हुई.
  • ब्रिक्स देशों के सर्वोच्च नेताओं का सम्मेलन हर साल आयोजित किये जाते हैं. ब्रिक्स शिखर सम्मलेन की अध्यक्षता हर साल एक-एक कर ब्रिक्स के सदस्य देशों के सर्वोच्च नेता करते हैं.
  • ब्रिक्स देशों की जनसंख्या दुनिया की आबादी का लगभग 40% है और इसका वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा लगभग 30% है.
  • ब्रिक्स देश आर्थिक मुद्दों पर एक साथ काम करना चाहते हैं लेकिन इनमें से कुछ के बीच राजनीतिक विषयों पर भारी विवाद हैं. इन विवादों में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद प्रमुख है.
  • इसका सदस्य बनने के लिए कोई औपचारिक तरीक़ा नहीं है. सदस्य देश आपसी सहमति से ये फ़ैसला लेते हैं.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक ईरान ने ब्रिक्स समूह का हिस्सा बनने के लिए आवेदन किया है. ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सईद खातिबज़ादेह ने कहा कि ब्रिक्स में ईरान की सदस्यता दोनों पक्षों के लिए मूल्यवान होगा.

ईरान के साथ-साथ अर्जेंटीना ने भी ब्रिक्स की सदस्यता के लिए आवेदन किया है.

रूस की समाचार एजेंसी तास ने लिखा है, ”ईरान के विदेश मंत्री ने घोषणा की है कि आवेदन किया जा चुका है और इस संबंध में चीने के राष्ट्रपति ने ईरान के राष्ट्रपति ईब्राहिम रईसी को ब्रिक्स सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए बुलाया था जहां उन्होंने संबोधित किया.”

ब्रिक्स देशों का 14वां सम्मेलन 23-24 जून को हुआ है. इसकी अध्यक्षता चीन ने की थी और चीन के आमंत्रण पर ईरान के राष्ट्रपति ने भी सम्मेलन में हिस्सा लिया. ईब्राहिस रईसी ने इस दौरान कोरोना वायरस महामारी, जलवायु परिवर्तन, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय टकरावों से वैश्विक शांति और संबंधों पर पड़े प्रभाव पर बाती की. उन्होंने इस दौर में देशों के बीच बातचीत को बहुत ज़रूरी बताया.

23 जून को हुए सम्मेलन में ब्रिक्स के विस्तार को लेकर भी चर्चा हुई थी.

ब्रिक्स में और देशों के शामिल होने की चर्चा पहले भी होती रही है. लेकिन, चीन और रूस की पश्चिम विरोधी नीति और भारत के क्वाड जैसे पश्चिमी समर्थित समूह में शामिल होना ईरान की सदस्यता को अहम बना देता है.

इसका असर ना सिर्फ़ ब्रिक्स पर पड़ेगा बल्कि ये अमेरिका और रूस के बीच संतुलन बनाकर चल रहे भारत की विदेश नीति को भी प्रभावित करेगा.

जानकार मानते हैं कि इससे भारत के लिए स्वतंत्र विदेश नीति का रास्ता और कठिन हो सकता है. साथ ही ब्रिक्स का महत्व भी कम हो सकता है. लेकिन, अनुमान ये भी है कि इससे भारत की अमेरिका के लिए अहमियत भी बढ़ सकती है.

पश्चिम विरोध गुट बनाने की चीन की कोशिश

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर संजय के भारद्वाज इसे चीन और अमेरिका के आपसी टकराव के बीच भारत के संतुलन और अपना महत्व बनाए रखने की कोशिशों के नज़रिए से देखते हैं.

वह बताते हैं, ”1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका एक महाशक्ति बनकर उभरा था. आगे चलकर चीन ने अमेरिका के इस कद को चुनौती दी. चीन की अर्थव्यवस्था करीब 15 ट्रिलियन डॉलर की है. अपनी इस मज़बूती के ज़रिए वो पश्चिम के ख़िलाफ़ इस्लामिक देशों में एक गुट तैयार करने की कोशिश कर रहा है. सऊदी अरब अमेरिकी गुट का हिस्सा है, ऐसे में ईरान, मलेशिया और तुर्की के साथ चीन नज़दीकी बढ़ा रहा है.”

इस संदर्भ में ब्रिक्स की भूमिका भी सामने आती है. प्रोफ़ेसर भारद्वाज कहते हैं कि मूल रूप से ब्रिक्स को आर्थिक तौर पर पश्चिम के विकल्प के तौर पर बनाया गया ताकि पश्चिम के साथ मोलभाव की ताकत बढ़ सके और उस पर निर्भरता कम हो सके. अब चीन इस गुट को अमेरिका विरोध में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है.

14वें सम्मेलन में भी चीन ने अमेरिका पर निशाना साधते हुए गुटबाज़ी में शामिल ना होने और ”शीत युद्ध की मानसिकता को बढ़ावा ना देने की” बात कही थी. वहीं, इस बार रूस भी खुलकर चीन के साथ दिख रहा है.

लेकिन, जब चीन उभरती हुई ताकत बना तो अमेरिका ने भारत के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार किया. चीन को भारत के ज़रिए एशिया में ही चुनौती दी गई. ये भारत के पक्ष में था क्योंकि उसका चीन के साथ सीमा विवाद चलता रहा है.

फिर भी भारत एक स्वतंत्र विदेश नीति की वकालत करता रहा है. भारत कहता है कि वो किसी एक गुट का हिस्सा नहीं रहेगा और अपने हित के अनुसार समूहों से जुड़ेगा.

अब अगर ईरान ब्रिक्स में शामिल होता है तो इस संगठन में अमेरिका विरोधी देशों की संख्या में इजाफ़ा हो जाएगा. ईरान लंबे समय से अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना कर रहा है जिससे उसके आर्थिक हालात ख़राब हुए हैं. उसे भी नए बाज़ार चाहिए और ब्रिक्स उसके लिए एक बेहतरीन मौका हो सकता है.

लेकिन, ईरान और भारत के संबंधों के बीच अमेरिका के साथ संतुलन बनाना भारत के लिए एक चुनौती बन सकता है.

क्या बढ़ेंगी भारत की चुनौतियां

किंग्स कॉलेज लंदन में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, ”इसे अभी परीक्षण के तौर सामने लाए हैं कि इस पर क्या प्रतिक्रियाएं रहती हैं. इसमें भारत और ब्राज़ील असहज हो सकते हैं क्योंकि ईरान और अमेरिका के संबंध अच्छे नहीं हैं और ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. इससे भारत की चुनौतियां बढ़ जाएंगी.”

भारत हमेशा से संतुलन बनाने की विदेश नीति अपनाता रहा है. भारत एक साथ ब्रिक्स और क्वाड दोनों का हिस्सा है. चीन क्वाड को अपने लिए ख़तरा बताता आया है हालांकि, पश्चिमी देशों ने इससे इनकार किया है. भारत अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद भी रूस और ईरान से तेल खरीदता रहा है.

प्रोफ़ेसर भारद्वाज़ कहते हैं कि ईरान भारत के लिए उतना ही अहम है जितना की अमेरिका. ये आर्थिक और रणनीतिक दोनों स्तर पर है. पहला कारण है तेल की खरीद. बढ़ती महंगाई के बीच भारत को सस्ते तेल की ज़रूरत है जो उसे उसे ईरान और रूस से मिल सकता है. ईरान में चाबहार बंदरगाह का निर्माण भी इसी दिशा में किया जा रहा है.

साल 2018 में ईरान भारत को तेल बेचने वाले देशों में दूसरे स्थान पर था लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत को ईरान से तेल ख़रीद में कटौती करनी पड़ी. हालांकि, अमेरिका ने इन प्रतिबंधों से भारत को कुछ हद तक छूट भी दी थी और भारत अमेरिका विरोध के बावजूद भी ईरान से तेल खरीदता रहा. फ़िलहाल ईरान से तेल खरीद इतनी कम हो गई कि वो शीर्ष 20 देशों में भी शामिल नहीं रहा है.

दोनों देशों के बीच व्यापार पर नज़र डालें तो अब भी इनमें अरबों डॉलर का व्यापार होता है. ईरान में भारतीय दूतावास के मुताबिक साल 2020-21 के बीच भारत-ईरान द्वीपक्षीय व्यापार 2.10 अरब डॉलर है. मौजूदा वित्त वर्ष में अप्रैल 2021 से अक्टूबर 2021 तक द्वीपक्षीय व्यापार 89 करोड़ 48 लाख डॉलर रहा है.

ईरान भारत से चावल, चाय, चीनी, फल, दवाएं, इलैक्ट्रिक मशीनरी और आर्टिफिशियल जेवर आदि खरीदता है. वहीं, भारत ईरान से तेल, फल, कैमिकल, ग्लास, मोती और लेदर आदि खरीदता है.

एक मुस्लिम देश होने के नाते भी कई मुद्दों पर ईरान का साथ भारत के लिए अहम हो जाता है फिर चाहे वो पाकिस्तान का मसला हो या कश्मीर का. ईरान ने भारत के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं दिया है. ऐसे में अगर ईरान ब्रिक्स में आना चाहेगा तो भारत उसका विरोध नहीं करेगा.

लेकिन, जानकार कहते हैं कि अमेरिका को साधने के साथ-साथ भारत को ब्रिक्स में चीन के प्रभाव को लेकर भी सजग रहना होगा. रूस और भारत के पुराने रिश्ते रहे हैं लेकिन रूस की खराब आर्थिक हालत के बीच चीन ब्रिक्स में सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है. समूह में चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए भारत को इन देशों को विश्वास में लेकर ही आगे बढ़ना चाहिए.

भारत के लिए मौका भी

ब्रिक्स में अमेरिकी विरोधी देशों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक तौर पर अमेरिका की त्यौरियां चढ़ा सकता है. हालांकि, आर्थिक सहयोगी समूह होने के कारण अमेरिका ब्रिक्स को बड़ी चुनौती नहीं मानता लेकिन मौजूदा समय में वैश्विक स्थितियों में बदलाव आया है.

प्रोफ़ेसर भारद्वाज कहते हैं, ”अमेरिका नहीं चाहेगा कि पश्चिमी विरोधी ताकतें इस तरह एकजुट हों. लेकिन, यहां भारत की भूमिका बढ़ जाती है क्योंकि ब्रिक्स में अमेरिका सिर्फ़ भारत के साथ ही बातचीत कर सकता है. इसमें वो दबाव भी बनाने की कोशिश कर सकता है. साथ ही चीन और रूस को संतुलित रखने के लिए भारत को बढ़ावा भी दे सकता है.”

”भारत अभी तक रूस-यूक्रेन युद्ध से लेकर, इसराइल और मुस्लिम देशों में बेहतरीन संतुलना बनाता आया है तो अब भी भारत के ऐसा ही रुख अपनाने की उम्मीद है जो उसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मज़बूती प्रदान करेगा.”

क्या होगा ब्रिक्स का भविष्य

एक पक्ष ये भी है कि अगर ब्रिक्स पश्चिम विरोधी ताकत बनकर उभरता है तो भारत क्या कदम उठा सकता है.

प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, ”भारत ब्रिक्स से दूरी बना सकता है. वह अपना निवेश कम करके इससे एक रस्म अदायगी वाले समूह के तौर पर जुड़ा रह सकता. अगर भारत इसमें अपना निवेश घटाता है या दूरी बनाता है तो एक दिन ऐसी स्थिति आ जाएगी की ब्रिक्स सिर्फ़ कागज़ों पर रह जाएगा क्योंकि भारत जैसी बढ़ी अर्थव्यवस्था उससे निकल जाएगी.”

प्रोफ़ेसर भारद्वाज भी कहते हैं कि भारत ब्रिक्स से निकलने की गलती नहीं करेगा क्योंकि इससे वो पूरी तरह पश्चिमी खेमे में नज़र आएगा. साथ ही चीन को एक पश्चिम विरोधी गुट का नेतृत्व करने का मौका मिल जाएगा जो भारत की स्थिति को कमज़ोर करेगा.

input :- BBC Hindi News

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *