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प्रेम या प्रक्रिया - अंजना टंडन

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थकहार,रात्रिभोज के बाद वह स्त्री जब आँख बंद करती है तुम्हारे साथ दरअसल वो कहीं चाँदनी में पगे किसी रेतीले टीले पर प्रेम के शगुन रोप रही होती है,

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जब तुम दम्भ से खींचते हो वस्त्र हाथ खींच मनचाही करते हो ठीक उसी समय किसी छाती के बालों की स्निग्धता में वह स्पर्श रोप रही होती है,

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जब तुम होते हो उन्माद की आख़ीरी प्रक्रिया में कोई हल्के हाथों से सुलझा रहा होता है उसकी उलझी अलकें हौली नजरों से चूम लेता है उनींदी पलके,

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जब पुरूषत्व अपने दंभ पर गर्वित होता है वो महसूस कर रही होती है ख़ालिस प्रेम की छुअन देह पर बहते स्वेद बिंदु की लड़ियों में

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तुम थोड़ा परे खिसक सुलगा रहे होते हो सिगरेट उसी समय कहीं उसके होंठों की गोलाई गहरी डूबी होती है शुरूआती किसी रससिक्त चुम्बन में,

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ठीक जहाँ तुम खत्म करते हो वहीं से वो अपनी प्रेम कलाएँ सिद्ध करती है,

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जिन्हें कभी वात्स्यायन भी नहीं लिख पाया, उसके लिए मुश्किल है रखना महज जिस्मानी प्रक्रिया और प्रेम एक कतार में।