कविता कोश

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बचपन बीत गया लड़कपन में -  नरेंद्र वर्मा

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बचपन बीत गया लड़कपन में, जवानी बीत रही घर बनाने में, जंगल सी हो गई है जिंदगी, हर कोई दौड़ रहा आंधी के गुबार में।

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हर रोज नई भोर होती, पर नहीं बदलता जिंदगी का ताना बाना, सब कर रहे हैं अपनी मनमानी, लेकिन जी नहीं रहे अपनी जिंदगानी।

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कोई पास बुलाए तो डर लगता है, कैसी हो गई है यह दुनिया बेईमानी, सफर चल रहा है जिंदा हूं कि पता नहीं, रोज लड़ रहा हूं चंद सांसे जीने के लिए।

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मिल नहीं रहा है कोई ठिकाना, जहां दो पल सिर टिकाऊ, ऐसे सो जाऊं की सपनों में खो जाऊं, बचपन की गलियों में खो जाऊं।

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वो बेर मीठे तोड़ लाऊं, सूख गया जो तालाब उसमें फिर से तैर आऊं, मां की लोरी फिर से सुन आऊं, भूल जाऊं जिंदगी का ये ताना बाना।

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देर सवेर फिर से भोर हो गई, रातों की नींद फिर से उड़ गई, देखा था जो सपना वो छम से चूर हो गया, जिंदगी का सफर फिर से शुरू हो गया।

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आंखों का पानी सूख गया, चेहरे का नूर कहीं उड़ सा गया, अब जिंदगी से एक ही तमन्ना, सो जाऊं फिर से उन सपनों की दुनिया में।

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आंखों का पानी सूख गया, चेहरे का नूर कहीं उड़ सा गया, अब जिंदगी से एक ही तमन्ना, सो जाऊं फिर से उन सपनों की दुनिया में।