कविता कोश

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शाम की तरह हम ढलते जा रहे है - जागेश तिवारी

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शाम की तरह हम ढलते जा रहे है, बिना किसी मंजिल के चलते जा रहे है।

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लम्हे जो सम्हाल के रखे थे जीने के लिये , वो खर्च किये बिना ही पिघलते जा रहे है।

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धुये की तरह विखर गयी जिन्दगी मेरी हवाओ मैं, बचे हुये लम्हे सिगरेट की तरह जलते जा रहे है।

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जो मिल गया उसी का हाथ थाम लिया, हम कपडो की तरह हमसफर बदलते जा रहे है।