अधिगम की रचनावादी अवधारणा स्पष्ट कीजिए एक इसके लाभों को वर्णित कीजिए।

अधिगम की रचनावादी अवधारणा स्पष्ट कीजिए एक इसके लाभों को वर्णित कीजिए।

उत्तर– अधिगम की रचनावादी अवधारणा (Constructivist Concept of Learning) –अधिगम में रचनावादी दृष्टिकोण वास्तव में एक नवीनतम एवं तकनीकी सिद्धान्त है जो सीखने के सम्बन्ध में अवलोकन और वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित है कि कोई व्यक्ति कैसे सीखता है, ज्ञानार्जन करता है और सीखे ज्ञान को अपने जीवन में उपयोग करता है। रचनावादी सिद्धान्त यह बताता है कि कोई व्यक्ति वस्तु स्थिति के अनुभवों और प्राप्त अनुभवों के आधार पर अपनी समझ और संसार में उपलब्ध विभिन्न प्रकार के ज्ञानों में अपने स्वयं के ज्ञान का निर्माण करता है। जब व्यक्ति किसी नवीन वस्तु / परिस्थिति के समकक्ष अपने आपको पाता है तो वह उसकी तुलना अपने पूर्व के ज्ञान से करता है तथा इस नवीन ज्ञान को सुविधा और आवश्यकता अनुसार प्राप्त कर अपने ज्ञान में वृद्धि का भी वर्द्धन करता है साथ ही साथ कुछ को अनुपयुक्त समझकर उसकी अपेक्षा भी कर देता है। आशय यह है कि व्यक्ति अपने ज्ञान का सृजनकर्त्ता स्वयं है ।
जब कोई अध्यापक यह सोचता है कि कक्षा कक्ष में बालकों को किस तरह पढ़ाना है तो उसे इस बात की जानकारी होती है कि वह किसी भी एक विधि से सभी बालकों को समान रूप से नहीं पढ़ा सकता है।। इसका तात्पर्य यह है कि यदि अध्यापक किसी एक विधि से पढ़ाने की कार्य करता है तो बालक अधिकाधिक अधिगम नहीं कर पाता है। किन्तु विभिन्न अधिगम शैली को अपनाकर बालकों को अवसर प्रदान करता है कि बालक अपनी सुविधानुसार या इच्छानुसार किसी एक शैली के माध्यम से सीखने की कोशिश कर सकता है और उसमें वह सफल भी होता है।
साधारण रूप से देखा जाता है कि प्रदेश के प्राय: सभी विद्यालय में बालकों को पढ़ाने के लिए जिन उपागमों (विधियों) को अपनाया जाता है उनमें पाठ्य-पुस्तक विधि, व्याख्यान विधि तथा कहानी विधि को ही अधिकाधिक अपनाया जाता है और उक्त विधियों के द्वारा आधारित शिक्षण की सामान्यत: दिया जाता है जिसकी कोई सीमाएँ निर्धारित नहीं होती है। कक्षाकक्ष में पढ़ाना अधिगम का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है किन्तु सभी बालक उक्त विधि के ही माध्यम से नहीं सीख सकते हैं । कुछ बालक श्रव्य-दृश्य माध्यम से पढ़ाए जाने पर अधिक मात्रा में सीखते हैं तथा कुछ बालक चार्ट, प्रतिमान या वास्तविक स्वरूप को देखकर सीखने का प्रयत्न करते हैं तथा अधिकाधिक सफल भी होते हैं। इस प्रकार के अधिगम वातावरण में बालक द्वारा कक्षाकक्ष में प्रश्न पूछने के अवसर काफी सीमित रहते हैं तथा वह प्रश्न पूछने के लिए अपने आपको सहज नहीं कर पाते हैं जिसके कारण वह कई महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की पूछ नहीं पाता है।
यहाँ यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि बालक कक्षा-कक्ष में किस तरह अधिगम कर सकता है ? इस प्रकार का उत्तर देने से पहले शिक्षक को एक प्रश्न स्वयं से भी करना होगा कि वे स्वयं किस प्रकार अच्छी तरह अधिगम करते हैं ? क्या वे किसी भी तथ्य या बिन्दु को अच्छी तरह सीखते हैं? जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि यह काम हम कैसे करें ? ऐसी स्थिति में व्यक्ति या शिक्षक को वह काम पहले स्वयं करके सीखना होगा तत्पश्चात् सिखाने या अधिगम कराने की प्रक्रिया को
शुरू करना होगा। अधिकांश शिक्षाविदों का मानना है कि बालकों को सीखने/सिखाने का सर्वोत्तम तरीका है कि वह ज्ञान को निर्मित करके उनके सामने प्रस्तुत करें । उक्त स्थिति में ज्ञानार्जन का उद्देश्य बालक आधारित न होकर व्यक्ति या शिक्षक आधारित होता है। रचनावादी अधिगम की व्याख्या करने पर यह बात सामने आती है कि बजाय दूसरों के ज्ञान देने की अपेक्षा बालक स्वयं से ज्ञान का विकास करें और यह तभी सम्भव होगा जब बालक स्वयं के आधार पर किसी कार्य को करें और सीखने का प्रयत्न करें ।
अधिगमकर्त्ता के पूर्व का ज्ञान एवं नवीन ज्ञान के संयोग से ही अधिगम की रचना करने में सफलता मिलती है। प्रायः माना जाता है कि पूर्व का प्राप्त ज्ञान अच्छा होता है और नवीन ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होता है लेकिन कभी-कभी पूर्व के ज्ञान की जानकारियाँ तथा अवधारणाएँ बड़ी मुश्किल खड़ी कर देती है। अर्थ का अनर्थ कर देता है। ऐसी स्थिति में छात्र को शिक्षक के सानिध्य को प्राप्त कर व वास्तविक दिशा-निर्देश करके ही आगे के ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए। शिक्षक से भी अपेक्षा की जाती है कि वे बालकों के पूर्व ज्ञान को सही स्वरूप प्रदान करके परिमार्जन कर जिससे कि नवीन ज्ञान की प्राप्ति बालकों को अच्छी तरह हो सके।
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