अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं ? बालक की शिक्षा में अभिप्रेरणा की भूमिका की विवेचना कीजिए।
अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं ? बालक की शिक्षा में अभिप्रेरणा की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर— शिक्षा में अभिप्रेरणा का महत्त्व (Importance of Motivation in Education)– बालकों के सीखने की प्रक्रिया अभिप्रेरणा द्वारा ही आगे बढ़ती है। प्रेरणा द्वारा ही छात्र/छात्राओं में शिक्षा के कार्य में रुचि उत्पन्न की जा सकती है और वह संघर्षशील बनता है।
थॉमसन ने प्रेरणा के महत्त्व को इस प्रकार परिभाषित किया है”— प्रेरणा एक कला है। इसके द्वारा उन छात्र/छात्राओं में पढ़ने के प्रति रुचि उत्पन्न की जाती है, जिनमें इस प्रकार की रुचि का अभाव है। जहाँ पर बालकों में पढ़ने की रुचि तो है, परन्तु वे उसका अनुभव नहीं करते। वहाँ प्रेरणा के द्वारा उन्हें यह अनुभव कराया जाता है। इसके अतिरिक्त विशिष्ट पाठ्यचर्याओं के प्रति भी छात्र/छात्राओं की रुचि उत्पन्न की जाती है। “
शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा की भूमिका या महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार दर्शाया जाता है—
(1) सीखना (Learning)– सीखने का प्रमुख आधार ‘प्रेरणा’ ही है। सीखने की क्रिया में ‘परिणाम का नियम’ एक प्रेरक का कार्य करता है। जिस कार्य को करने से सुख मिलता है, उसे वह पुनः करता है एवं दुःख होने पर छोड़ देता है। यही परिणाम का नियम है। अतः बालक की प्रशंसा करना ( माता-पिता, अन्य बालकों तथा अध्यापक) द्वारा भी प्रेरणा का संचार करता है और इस प्रकार वह आगे बढ़ता रहता है, परन्तु दण्ड देने या फटकारने पर वह हताश हो जाता है। आगे के लिए वह निरुत्साहित हो जाता है।
(2) लक्ष्य की प्राप्ति (To gain the Object)– जिस प्रकार बालक के जीवन का एक लक्ष्य होता है, उसी प्रकार विद्यालय का भी एक लक्ष्य होता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति में प्रेरणा की मुख्य भूमिका होती है। ये सब लक्ष्य प्राकृतिक प्रेरकों द्वारा प्राप्त होते हैं ।
(3) पाठ्यक्रम (Curriculum)–छात्र/छात्राओं के पाठ्यक्रम निर्माण में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है। अतः पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को स्थान देना चाहिए, जो उसमें प्रेरणा एवं रुचि उत्पन्न कर सकें, तभी सीखने का वातावरण बन पायेगा ।
(4) चरित्र-निर्माण (Character Formation)– चरित्रनिर्माण शिक्षा का श्रेष्ठ गुण है। इससे नैतिकता का संचार होता है। अच्छे विचार एवं संस्कार जन्म लेते हैं और उनका निर्माण होता है। अच्छे संस्कार निर्माण में प्रेरणा का प्रमुख स्थान है।
(5) अवधान (Attention)— सफल अध्यापन के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों का अवधान पाठ की ओर बना रहे । कक्षा में छात्र पाठ के प्रति कितना जागरूक है, यह प्रेरणा पर ही निर्भर करता है। प्रेरणा के अभाव में पाठ की ओर अवधान नहीं रहेगा और छात्र मस्तिष्क को केन्द्रित नहीं कर पायेगा ।
सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका (Role of Motivation in Learning)—
(1) परिपक्वता (Maturation)– स्कूल में सीखने की प्रक्रिया अवश्य प्रभावित होगी यदि विद्यार्थियों को दिया गया कार्य विद्यार्थियों की परिपक्वता के स्तर से बहुत अधिक कठिन हो । उनकी परिपक्वता को ध्यान में रखा जाये तो अभिप्रेरणा अधिक होगी। परिपक्वता और अभिप्रेरणा में अवश्य ही तालमेल बिठाया जाए। औपचारिक अधिगम (Formal Learning) तभी होगा जब विद्यार्थी शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सांस्कृतिक रूप से परिपक्व हों ।
(2) बालक के व्यक्तित्व को पहचानना (Respect for Personality of Child)– कक्षा के अन्तर्गत बालकों का अनादर करना या उनको हतोत्साहित करना हानिकारक हो सकता है। शर्म और हतोत्साहन उचित संवेग नहीं माने जाते हैं। वे व्यक्ति के व्यक्तित्व को विघटित करते हैं। इन संवेगों से बच्चों में अनिश्चितता, झिझक, कुंठा, आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास में कमी उत्पन्न करते हैं और कई बार ये संवेग बच्चे को स्कूल की क्रियाओं से अलग कर देते हैं और इन क्रियाओं को सीखने के विरुद्ध बच्चों के मानसिक दृष्टिकोण विकृत कर देते हैं। ये परिस्थितियाँ उसे कदाचारी बना देती हैं। अतः बच्चे के व्यक्तित्व का अनादर बुद्धिमता का कार्य नहीं।
(3) अभिप्रेरणा में दृष्टिकोणों का महत्त्व (Significance of Attitudes )– दृष्टिकोण रुचियों और ध्यान से स्पष्ट रूप से सम्बन्धित होता है। दृष्टिकोण किसी विशेष परिस्थितियों में किसी व्यक्ति की क्रियाओं का समूह होता है। दृष्टिकोण अभिप्रेरकों को मार्ग देते हैं। दृष्टिकोण नये अनुभवों को केवल तैयारी ही नहीं होती बल्कि अनुभव प्राप्त करने के लिए नई सीमायें भी निर्धारित करते हैं ।
(4) प्रशंसा और निन्दा (Praise and Reproof)– बहुत से अध्ययनों द्वारा यह स्पष्ट हो चुका है कि स्कूल में सीखने के लिए प्रशंसा और निन्दा का बहुत ही महत्त्व होता है। प्रशंसा और निन्दा के लिए आयु, सैक्स आदि पर भी विचार करना पड़ेगा। अतः अध्यापक को चाहिए कि अधिगम या सीखने की परिस्थितियों में प्रशंसा और निन्दा का प्रयोग बहुत ही चतुराई से करें ।
(5) अभिप्रेरणा से ध्यान, रुचि और उत्साह प्राप्त करना (Securing Attention, Creating, Interest and Enthusiasm)– कक्षा में अधिगम प्रक्रिया तीव्र करने के लिए प्राथमिक पूर्ति के रूप में अभिप्रेरणा आवश्यक है । इस ‘ध्यान’ को केन्द्रित करने के लिए रुचि और उत्साह की जरूरत है। कुछ मात्रा में रुचि छात्रों में विद्यमान होती है और कुछ मात्रा में अध्यापक को रुचि पैदा करनी पड़ती है । इस प्रकार पूर्व विद्यमान रुचियों और अध्यापक द्वारा उत्पन्न की गई रुचियों द्वारा अभिप्रेरणा उत्पन्न करना एक अच्छे शिक्षा कार्यक्रम का संकेत होता है। रुचियाँ नये कौशलों को प्राप्त कर उत्साह और सन्तोषजनक अनुभव से उत्पन्न होती हैं। बुद्धिमान अध्यापक थोड़ी रुचि का लाभ उठा लेता है। विषय-वस्तु की व्याख्या उस समय सबसे अधिक होती है जब विद्यार्थी अधिक-से-अधिक प्रश्न पूछें।
(6) निश्चित उद्देश्य (Definite Goals)– स्पष्ट उद्देश्यों और ज्ञान का प्रभाव अत्यधिक होता है अतः अध्यापक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों के सम्मुख पहले सारे उद्देश्य स्पष्ट करें तभी सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली हो पायेगी ।
(7) आत्म-अभिप्रेरणा (Self-Motivation)– परिणामों का ज्ञान, उच्च आकांक्षायें और स्पष्ट उद्देश्य विद्यार्थी में आत्म-अभिप्रेरणा के लिए प्रोत्साहन का कार्य करते हैं। इनसे विद्यार्थी को आन्तरिक अभिप्रेरणा मिलती है। चरित्र के विकास और आदर्श नागरिकता के विकास के लिए आत्म-अभिप्रेरणा से अच्छा ढंग कोई और नहीं हो सकता। अध्यापक विद्यार्थियों को मार्ग-दर्शन देकर सम्भव तरीका बता देते हैं। लेकिन अन्तिम चयन विद्यार्थियों पर छोड़ देते हैं। अतः सीखने में आत्मअभिप्रेरणा महत्त्वपूर्ण योगदान है।
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