खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल को उदाहरण सहित समझाइये ।
खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल को उदाहरण सहित समझाइये ।
उत्तर– खाद्य शृंखला— जीव जन्तुओं में जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा शाकाहारी जीव की पादपों से तथा मांसाहारी जीव को अन्य जीव के भक्षण से प्राप्त होती है। इस प्रकार जीवों तथा पादपों में ऊर्जा प्राप्ति के लिए एक शृंखला बन जाती है।
पौधों द्वारा भोजन के रूप में ऊर्जा को संचित करना और पौधों से विभिन्न पोष स्तरों के जीवों में भोजन के साथ इस ऊर्जा के स्थानान्तरण को ही भोजन श्रृंखला (Food Chain) कहते हैं ।
हरे पादपों की प्रकाश संश्लेषी क्रिया में सौर ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित हो जाती है। अतः भोजन श्रृंखला में पादप प्रथम पोषस्तर, उत्पादक स्तर होता है। इन्हें प्राथमिक उत्पादक कहते हैं । पादपों द्वारा निर्मित खाद्य से संचित ऊर्जा शाकाहारियों द्वारा उपयोग में लाई जाती है, ये द्वितीयक पोषस्तर या प्राथमिक उपभोक्ता कहलाते हैं । शाकाहारियों का भक्षण मांसाहारी करते हैं, जो कि श्रृंखला का तृतीय पोष स्तर बनाते हैं, ये द्वितीयक उपभोक्ता कहलाते हैं। द्वितीयक उपभोक्ता का बड़े मांसाहारी भक्षण करते हैं, यह तृतीयक उपभोक्ता कहलाते हैं ।
प्रत्येक क्रमागत पोषी स्तर में ऊर्जा प्रवाह की कमी होती जाती है। इसलिए भोजन शृंखला जितनी छोटी होती है, उसे उतनी ही ऊर्जा, उपलब्ध रहती है। प्रकृति में दो प्रकार की भोजन श्रृंखला पायी जाती है —
(1) अपरद भोजन — यह भोजन श्रृंखला मृत कार्बनिक पदार्थों होकर (इन पदार्थों का भोजन के रूप में उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीवियों से) परभक्षकों तक जाती है। यह प्रत्यक्ष रूप से सूर्य पर निर्भर नहीं होते हैं। ये पारितंत्र दूसरे पारितंत्र से आने वाले कार्बनिक पदार्थों व आश्रित होते हैं। दोनों भोजन श्रृंखलाएँ एक-दूसरे पर निर्भर करती है। उदाहरण—शीतोष्ण वन में एकत्रित करकट में पायी जाने वाली भोजन शृंखला।
( 2 ) चारण भीजन श्रृंखला यह पाचन खलासजीव पदार्थी से प्रारम्भ होकर चारण शाकाहारी और मांसाहारी तक जाती है। चारण श्रृंखला और ऊर्जा के अन्तर्बाह पर निर्भर करते हैं। ऊर्जा की दृष्टि से मैं शृंखलाएँ अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं।
उदाहरण – (i) पादप प्लवक → जन्तु प्लवक →मछली
(ii) घासें→ खरगोश→लोमड़ी
खाद्य जाल-एक तन्त्र में वस्तुत: जी खाद्य खलायें होती हैं वे एक दूसरे से अलग या एकल रूप में प्रचलित नहीं होती है बरन में परस्पर संबंधित होकर अन्तप्रथित प्रतिरूप बनाती है, इसे खाद्य जाल कहते हैं।
विभिन्न समुदायों के बीच भीजन का स्थानान्तरण सदैव एक निश्चित क्रम में नहीं होता है। एक ही जीव एक से अधिक पोषी स्तरों से सम्बन्धित होता है तथा जीव अपनी भोजन की आवश्यकता की विभिन्न स्तरों पर मिलने वाले खाद्य स्रोतों से पूरी करता है। इसी प्रकार एक जीव अनेक जन्तुओं का शिकार बनता है।
कई बार भोजन की अनुपलब्धता भी भीजन के प्रकार में परिवर्तन लाती है। इस तरह प्रकृति में रैखिक (linear) तथा स्वतंत्र (independent) खाद्य शृंखलाएँ दुर्लभ (rare) है। पारिस्थितिक तन्त्र में अनेक खाद्य श्रृंखलाएं एक साथ चलती हैं।
इस प्रकार परस्पर संबंधित खाद्य शृंखलाएँ एक ही समुदाय के लिए पोषण की विधिक वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराती हैं। ये ऊर्जा प्रवाह का भी वैकल्पिक मार्ग सुलभ करती हैं। उदाहरण के लिए एक जंगली ‘चूहा, बिल्ली, साँप अथवा टल्लू किसी का भी शिकार बन सकता है। एक जंगली बिल्ली, गिलहरी, चिड़िया अथवा चूहे जैसे अनेक शाकाहारी जन्तुओं का शिकार कर सकती है। विभिन्न प्राथमिक उपभोक्ता अथवा शाकाहारियों में शाकाहार के लिए परस्पर स्पर्धा रहती है।
इनका शिकार करने वाले प्राकृतिक जन्तु इनकी जनसंख्या पर अंकुश लगाते हैं। किसी भी जन्तु के अत्यधिक शिकार से प्रकृति में इनकी संख्या कम हो जाती है जिससे इनके साथ स्पर्धा रखने वाले जन्तुओं की संख्या में वृद्धि होने लगती है। इस कारण दूसरे प्रकार के जन्तुओं की उपलब्धता शिकार के लिए अधिक हो जाती है। इस प्रकार विभिन्न स्पर्धियों के बीच भोजन की होड़ प्रकृति में जन्तुओं का संतुलन बनाए रखती है–
इस प्रकार खाद्य जाल पारिस्थितिक तन्त्र की स्थाई तथा सन्तुलित बनाए रखता है। जिस तंत्र में अधिक जैव विविधता होती है, जितनी अधिक वैकल्पिक खाद्य श्रृंखलाएँ होती हैं उतनी ही यह स्थायी होती है। ये वैकल्पिक पोषण व्यवस्था तन्त्र में विभिन्न प्रजातियों की संख्या पर अंकुश तन्त्र की सन्तुलित बनाते हैं।
पारितंत्र में जितनी अधिक जीव विविधता होगी, खाद्य जाल उतना ही जटिल होगा। खाद्य जाल की जटिलता दी गुणों पर निर्भर करती है—
1. खाद्य श्रृंखला को लम्बाई ।
2. श्रृंखला के विभिन्न पोष स्तरों पर उपभोक्ता विकल्पों को उपस्थिति।
उदाहरण के लिए गहरे विशाल सागरों में जीवों की विविधता अधिक होने से इस पारितंत्र का खाद्य जाल भी अधिक जटिल होता है।
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