जेण्डर शिक्षा में संस्कृति की भूमिका की व्याख्या कीजिए।

जेण्डर शिक्षा में संस्कृति की भूमिका की व्याख्या कीजिए।

उत्तर – जेण्डर शिक्षा में संस्कृति की भूमिका – जेण्डर शिक्षा में संस्कृति की भूमिका को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है—
( 1 ) नमनीयता तथा उदारता की शिक्षा – संस्कृति एक जटिल शब्द तथा प्रक्रिया है। परस्पर संस्कृतियों के मध्य आकर्षण स्वाभाविक होता है, परन्तु किसी संस्कृति में अन्य संस्कृतियों के तत्त्वों को घृणास्पद दृष्टि से देखना पड़ता है, परन्तु संस्कृति यदि अन्य संस्कृतियों के प्रति नमनीय अर्थात् लचीली और उदार होगी तो उसकी अच्छाइयाँ अन्य संस्कृतियों तक फैलेंगी तथा ऐसी संस्कृति स्वयं में व्याप्त बुराइयों को भी अन्य संस्कृतियों के सम्पर्क में आकर समाप्त करेंगी। नमनीय तथा उदार संस्कृति होगी तो वह संस्कृति में आयी बुराइयों, कुरीतियों तथा जड़ तत्त्वों को समाप्त करेगी, जिससे लैंगिक विभेदों की समाप्ति तथा लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने की शिक्षा का प्रचार-प्रसार शीघ्रता से होगा। नमनीय तथा उदार संस्कृति में स्त्री-पुरुष दोनों को ही समानान्तरण माना जाता है। इस प्रकार संस्कृति की नमनीयता और उदारता लैंगिकता की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
(2) राष्ट्रीय एकता की भावना–व्यक्ति की अपेक्षा परिवार तथा परिवार की अपेक्षा समाज, समुदाय, राज्य तथा राष्ट्र और राष्ट्र की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्र को महत्त्व दिया जाना चाहिए। भारतीय संस्कृति भी व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सामूहिक हितों को प्रधानता देती है। राष्ट्रीय एकता उस समय तक सुनिश्चित नहीं हो सकती है जब तक कि इसमें महिलाओं की सक्रिय सहभागिता न हो। भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि स्वतंत्रता आंदोलन में जब महिलाओं ने आन्दोलन किये, वे जेल गयीं तो समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण बदला तथा यह भ्रम टूट गया कि वे अबला व कमजोर हैं।
( 3 ) संस्कृति के मूल तत्त्वों से परिचय – प्रत्येक संस्कृति के कुछ मूल तत्त्व होते हैं । अतः संस्कृति के मूल तत्त्वों तथा उनमें निहित भावना प्रेम, त्याग, सौहार्द, भाईचारा, सहयोग इत्यादि से अवगत कराना चाहिए। त्योहारों, पर्वों तथा मेलों इत्यादि का आयोजन इन्हीं गुणों को विकसित करने के लिए किया जाता है, जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों की सहभागिता होती है। इस प्रकार संस्कृति के मूल तत्त्वों की शिक्षा द्वारा लिंगीय भेदभावों को कम करने के प्रति जागरूकता का भाव विकसित होगा।
(4) स्वाभाविक शक्तियों का विकास –  संस्कृति का एक महनीय कार्य यह है कि वह अपने अनुयायियों की स्वाभाविक शक्तियों का विकास करे। पुरुषों में हमारी संस्कृति तथा संस्कार के द्वारा जो स्त्रियों के ऊपर शासन और श्रेष्ठता का भाव व्याप्त हो गया है, उसको समाप्त करने का कार्य भी संस्कृति के द्वारा ही होगा। सांस्कृतिक आयोजनों तथा सांस्कृतिक विकास के अन्तर्गत बिना किसी भेदभाव के लड़केलड़कियों की स्वाभाविक शक्तियों का विकास किया जाना चाहिए, जिससे न तो लड़कों में लड़कियों के प्रति कोई हीन भावना रहेगी और न ही लड़कियों में लड़कों के प्रति कोई आवेश या आक्रोश । इस प्रकार संस्कृति व्यक्तियों में निहित स्वाभाविक शक्तियों को विकसित कर लैंगिक भेदभाव को समाप्त कर सकती है ।
(5) सामाजिक नियन्त्रण – संस्कृति सामाजिक तानों-बानों, नियमों तथा रीति-रिवाजों का मार्गदर्शन तथा नियंत्रण करने का कार्य करती है। लैंगिकता हेतु शिक्षा में संस्कृति का कार्य सामाजिक नियंत्रण का है, क्योंकि समाज में यदि नियंत्रण की स्थापना हो जायेगी तो कोई भी व्यक्ति लिंगीय भेदभाव जैसे – लिंग जाँच, दहेज, बाल-विवाह, स्त्रियों की शिक्षा में अरुचि, स्त्रियों का समुचित सम्मान न देना इत्यादि समाप्त हो जायेगा और यदि कोई गलत कार्य या व्यवहार स्त्रियों के प्रति करेगा तो वह समाज में हेय दृष्टि से देखा जाने लगेगा, जिससे स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आयेगा।
( 6 ) गतिशीलता – लैंगिक भेदभाव की शिक्षा देने के लिए संस्कृति में गतिशीलता का तत्त्व होना अत्यावश्यक है। यदि संस्कृति गतिशील नहीं होगी तो उसमें जो बुराइयाँ, कुरीतियाँ तथा अंधविश्वास जो समयसमय पर आ जाते हैं, वे कदापि दूर नहीं होंगे। इसी प्रकार की एक बुराई हमारे समाज में लड़का-लड़की में भेदभाव को लेकर उत्पन्न हो गयी है और इसे संस्कृति में गतिशीलता लाकर ही समाप्त किया जा सकता है। गतिशील संस्कृतियों में पुरुषों के समान ही स्त्रियों की भागीदारी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में होती है जिससे उनका महत्त्व भी पुरुषों के समान ही होता है। इस प्रकार गतिशील तथा प्रगतिशील संस्कृति में लड़का-लड़की के मध्य भेदभाव नहीं किया जायेगा, जिससे समाज की उन्नति तथा गतिशीलता में वृद्धि होती है।
( 7 ) समानता तथा सामूहिकता की भावना–कुछ संस्कृतियाँ ऐसी हैं जहाँ स्त्री-पुरुषों में भेदभाव नहीं है। अतः ऐसी संस्कृतियों के तत्त्व ग्रहण कर बालक-बालिकाओं को, परिवार, समाज, समुदाय तथा विद्यालय में समान स्थान, व्यवहार और परस्पर मिलकर कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए। बालक-बालिकाओं में इससे समानता और सामूहिकता द्वारा साथ-साथ कार्य करने की भावना जिससे एकदूसरे की आवश्यकता तथा महत्त्व का ज्ञान होगा, आयेगी । इस प्रकार संस्कृति के द्वारा प्रारम्भ से ही बालकों और बालिकाओं में समानता और सामूहिकता के भाव का विकास कर लिंगीय भेदभावों को न्यून किया जा सकता है।
( 8 ) समाज-सुधार को प्रोत्साहन – संस्कृति की शिक्षा हमें औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही प्रकार से प्राप्त होती है जिससे व्यक्ति में अन्तर्दृष्टि तथा सूझ की उत्पत्ति होती है। विवेकशील समीक्षात्मक बुद्धि- सम्पन्न व्यक्ति के समक्ष ये प्रश्न अवश्य उपस्थित होंगे कि स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों ? किन कारणों से कन्याओं की गर्भ में ही हत्या हो जाती है। बाल विवाह, दहेज प्रथा तथा लड़कियों के साथ हो रहे व्यवहारों का मूल कारण तथा दोषी कौन है ? यदि हम कहते हैं कि समाज पुरुष प्रधान है तो उनसे भी महत्त्वपूर्ण उन्हें जन्म देने वाली जननी है, अतः ऐसे व्यक्ति समाज में व्याप्त बुराइयों को सुधारने का कार्य करेंगे। राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महात्मा गाँधी तथा स्वामी विवेकानन्द जैसे व्यक्तियों ने संस्कृति का आश्रय लेकर ही स्त्रियों को पुनः गौरवमयी स्थान प्रदान करने हेतु समाज-सुधार के कार्य किये, जिससे स्त्रियों की स्थिति तथा सामाजिक दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन आया।
( 9 ) अन्तर्सास्कृतिक अवबोध में वृद्धि – अन्तसांस्कृतिक अवबोध के द्वारा परस्पर संस्कृतियों को समझने में सहायता मिलती है जिससे प्रेम तथा सद्भावना में वृद्धि होती है और प्रेम तथा सद्भावना के विस्तार द्वारा मनुष्य परस्पर समानता और सम्मान का व्यवहार करना सीखता है और वह इस व्यवहार को स्त्रियों के साथ भी करता है। इस प्रकार सांस्कृतिक अवबोध के द्वारा लैंगिकता के भेदभाव को न्यून किया जा सकता है।
( 10 ) वयस्क जीवन की तैयारी- लैंगिकता के कारण व्याप्त भेदभाव को समाप्त करने के लिए सांस्कृतिक तत्त्वों के अन्तर्गत बालकबालिकाओं को वयस्क जीवन के लिए तैयार किया जाना चाहिए, जिससे वे वास्तविक जीवन की योग्यता, समस्याओं के समाधान, सन्तानोत्पत्ति, आजीविका की कुशलता, कर्त्तव्यों तथा अधिकारों का ज्ञान, पारिवारिक तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों का ज्ञान प्राप्त कर सकें। यदि संस्कृति यह शिक्षा प्रदान करती है तो लिंगगत भेदभाव समाप्त होंगे। स्त्री तथा पुरुष दोनों एक गाड़ी के पहिये की भाँति अपने जीवन में सहयोग तथा सम्मान के साथ व्यतीत करेंगे।
( 11 ) चरित्र निर्माण तथा नैतिकता – संस्कृति को चाहिए कि अपने मानने वालों का चारित्रिक और नैतिक विकास का कार्य करे। जिस संस्कृति में अर्थ की अपेक्षा चरित्र तथा नैतिकता का महत्त्व होता है वहाँ पर तमाम बुराइयाँ तथा दोष स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। आदर्श चरित्र और नैतिकतायुक्त व्यक्ति गर्भ में बालिकाओं की हत्या, उन पर अभद्र भाषा तथा बल का प्रयोग कदापि नहीं करेगा, अपितु स्त्री के विविध रूपों के प्रति कृतज्ञता तथा सम्मान का प्रदर्शन करेंगे, जिससे स्वस्थ समाज जो स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए सुरक्षित तथा समान होगा, निर्मित हो जायेगा।
 ( 12 ) कर्त्तव्य-बोध का विकास– कर्त्तव्य-बोध की भावना का विकास जिन संस्कृतियों के द्वारा सिखाया जाता है वहाँ कार्य की संस्कृति, श्रम की संस्कृति होती है, जिसमें स्त्री पुरुष की सहभागिता बराबर की होती है और जहाँ पर स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान श्रम और कर्त्तव्य की संस्कृति का निर्वहन करती हैं वहाँ उनमें और पुरुषों में भेदभाव नहीं किया जाता है।
( 13 ) परस्पर निर्भरता का बोध — स्त्री-पुरुषों दोनों की सहभागिता तथा निर्भरता सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, नियमों इत्यादि में होनी चाहिए, जिससे उनमें एक-दूसरे के प्रति निर्भरता का भाव जाग्रत होगा और कोई एक-दूसरे को कमतर मानकर अपनी निर्भरता या आश्रय को कमजोर नहीं करेगा। इस प्रकार परस्पर निर्भरता के बोध द्वारा स्त्रियों तथा पुरुषों के मध्य व्याप्त भेदभाव को कम किया जा सकता है।
( 14 ) नेतृत्व का भाव – संस्कृति की शिक्षा प्रदान करते समय यह बात ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी संस्कृति, समाज तथा देश को आगे बढ़ाने में योग्य नेतृत्वकर्त्ताओं का योगदान अत्यधिक होता है और यह नेतृत्व एकपक्षीय नहीं होना चाहिए। इसके लिए स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों को ही आगे आने के अवसर प्रदान करने चाहिए, जिससे सभी क्षेत्रों में प्रतिभाओं को आगे आने के अवसर प्राप्त होंगे और स्त्रियों की प्रतिभा तथा नेतृत्व शक्ति में लोगों का विश्वास जगेगा तथा इस संस्कृति के कारण लैंगिक भेदभावों की समाप्ति होगी।
( 15 ) अन्य संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता का भाव-संस्कृति को अन्य संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता का भाव रखना होगा। वर्तमान युग तकनीकी युग में जहाँ सम्पूर्ण विश्व बेसिक ग्राम बन गया है। ऐसे में सांस्कृतिक सहिष्णुता अत्यावश्यक है। विद्वानों के अनुसार संस्कृति वर्तमान में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है तथा अब परस्पर देशों के मध्य युद्ध हथियारों के द्वारा न होकर संस्कृतियों के मध्य होगा। इन परिस्थितियों में यदि सांस्कृतिक उपेक्षा के कारण स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में हीन तथा अधिकार विहीन माना जायेगा तो जाहिर है कि स्त्रियों का झुकाव जिस संस्कृति में उनको आदर, सम्मान, समानता, न्याय तथा स्वतन्त्रता प्राप्त होगी, की तरफ हो जायेगा। अतः सांस्कृतिक सहिष्णुता के द्वारा अन्य संस्कृतियों की अच्छाइयों से अवगत होकर उसे सम्मिलित कर सांस्कृतिक क्षरण को रोका जा सकता है तथा आधी आबादी अर्थात् स्त्रियों को यथोचित सम्मान और स्थान प्रदान कर अन्य संस्कृतियों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया जा सकता है।
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