धर्म एवं जेण्डर के बीच सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।

धर्म एवं जेण्डर के बीच सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।

उत्तर – आदिकाल से मनुष्य धर्म को मानता आ रहा है तथा प्रत्येक व्यक्ति जीवन के किसी-न-किसी क्षण में ऐसा कार्य करता है, जिसे धर्म की संज्ञा दी जा सकती है। धर्म का क्षेत्र और अर्थ इतना व्यापक है जितना मनुष्य का जीवन और अप्रत्यक्ष दृष्टि। अतः सर्वप्रथम धर्म के शाब्दिक अर्थ को जानना आवश्यक है ।
शाब्दिक अर्थ— धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से निष्पन्न है, जिससे तात्पर्य है
 (i) धारण करना (धारणाद् इति धर्मः),
(ii) बनाए रखना,
(iii) पुष्ट करना।
धर्म हेतु आंग्ल भाषा में ‘Religion’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, जो लेटिन के दो शब्दों से मिलकर बना है— Re (री) तथा Legere (लेगर), जिसका अर्थ है—’सम्बन्ध स्थापित करना’ (To Bind Back) इस प्रकार ‘रिलीजन’ से तात्पर्य है—ईश्वर के साथ सम्बन्ध स्थापित करना। यह सम्बन्ध ईश्वर के साथ ही नहीं, अपितु मनुष्य का मनुष्य के साथ भी स्थापना करना है। इस प्रकार धर्म मनुष्य का मनुष्य तथा ईश्वर के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है। इस सम्बन्ध में गिरबर्ट महोदय का उल्लेखनीय है- “धर्म दोहरा सम्बन्ध स्थापित करता है पहला, और ईश्वर के मध्य तथा दूसरा, मनुष्य तथा मनुष्य के मध्य ईश्वर रूप में।” 5%
सारथी यूनिटवाइज
के संतान के रूप वर्तमान में हम धर्म के जिस रूप को जानते हैं वह उसका विकृत है। धर्म तो ईश्वर के साथ-साथ मनुष्य का मनुष्य से सम्बन्ध स्थापित कराता है जो आचरण तथा व्यवहार में धारणा करने योग्य है वहीं धर्म है। धर्म व्यक्ति को नैतिकता, चारित्रिक उन्नयन, समानता, धैर्य, कर्त्तव्य-परायणता, सभी का सम्मान तथा व्यक्ति को विवेक सम्पन्न तथा उदार बनाता है। धर्म का प्रभाव उसके मानने वाले मतावलम्बियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः स्त्री पुरुष के मध्य भेदभाव है, जिससे स्त्रियों को हीन दृष्टि से देखा जाता है। इसकी समाप्ति करने में धर्म महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन निम्न प्रकार कर सकता है
(1)  धार्मिक गतिशीलता द्वारा ।
(2) धर्म के मूल तत्त्वों से परिचय कराकर ।
(3) धर्म में व्याप्त अन्धविश्वास तथा कुरीतियों की समाप्ति करके ।
(4) धार्मिक सम्मेलनों तथा कार्यक्रमों में स्त्रियों को सम्मान, आदर और समानता प्रदान करने का आह्वान करना ।
(5) धार्मिक कार्यों में स्त्रियों की सहभागिता की सुनिश्चितता ।
(6) चारित्रिक विकास द्वारा ।
(7) कर्म की संस्कृति की स्थापना द्वारा धर्म लैंगिक भेदभावों को कम करते हैं ।
(8) धार्मिक उपाख्यानों द्वारा महिलाओं के आदर्श चरित्र और महत्त्व से अवगत कराकर स्त्रियों के प्रति समुचित भाव को उत्पन्न करना।
(9) कन्या भ्रूणहत्या, स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार को धर्म अनैतिक कृत्य मानते हैं, जिससे भी लैंगिक दुर्व्यवहारों में कमी आती है।
(10) सभी धर्मों तथा संस्कृतियों का आदर, जिससे लैंगिक भेदभावों की समाप्ति के साथ-साथ आपसी समझ का विस्तार होगा।
(11) धर्म को आर्थिक स्वावलम्बन तथा कर्म के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए, जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों की समान सहभागिता हो, इससे लैंगिक भेदभावों में कमी आयेगी।
लिंग असमानता को दूर करने में धर्म की प्रभावी भूमिका निर्वहन हेतु सुझाव निम्न प्रकार हैं-
(1) बालिकाओं की शिक्षा की विशेष व्यवस्था।
(2) धर्मगुरुओं को चाहिए कि वे शिक्षा और समानता का प्रसार करना अपना सर्वप्रमुख धर्म समझें। इससे लिंग असमानता को दूर करने में मदद मिलेगी।
(3) धर्म को मानवता की सेवा के कार्य करने चाहिए।
(4) धर्म को चारित्रिक विकास तथा नैतिकता के विकास के कार्य करके असमानता का भाव कम करना चाहिए।
(5) धर्म के पास कुछ शक्तियाँ होती हैं जिनका उपयोग व समाज में जागरूकता लाने के लिए करें।
(6) धर्म को चाहिए कि वह बालिका शिक्षा तथा महिलाओं को समानता दिलाने के लिए अपने मतानुयायियों को आह्वान करें।
(7) धर्म को चाहिए कि वह प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना करे।
(8) धर्म को शिक्षा का प्रभावी उपकरण बनाने के लिए उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
(9) व्यावसायिक शिक्षा तथा कौशल विकास के कार्य पर बल दिया जाना चाहिए।
(10) धर्म को अपने सभी अनुयायियों को सत्य की खोज के लिए प्रवृत्त करना चाहिए, अन्धविश्वासों और कुरीतियों की समाप्ति की जा सकें।
(11) धर्म को अपने सभी व्यक्तियों की बुरी प्रवृत्तियों का मार्गान्तरीकरण करना चाहिए, जिससे वे कदाचारों में संलिप्त न हो पाये।
(12) धर्म को परिवार, विद्यालय, समाज, समुदाय तथा राज्य आदि अभिकरणों से सहयोग प्राप्त करके लैंगिक भेदभावों की समाप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।
इस विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि धर्म लिंग असमानता को दूर करने में विशेष भूमिका का निर्वहन कर सकता है।
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