‘नाटक’ का विस्तृत परिचय दीजिए। इसका अर्थ एवं परिभाषा देते हुए इसके विभिन्न प्रकारों को समझाइए ।
‘नाटक’ का विस्तृत परिचय दीजिए। इसका अर्थ एवं परिभाषा देते हुए इसके विभिन्न प्रकारों को समझाइए ।
अथवा
नाटक के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं? समझाइए ।
उत्तर— नाटक दृश्य काव्य हैं जिसका प्रदर्शन अभिनय द्वारा होता है। इसलिए इसका प्रभाव साहित्य की अन्य विधाओं से अधिक पड़ता हैं। इसके साथ वे नाटक जनसाधारण सम्बन्ध विद्या है। इनमें लोकरंजन एवं लोकहित की भावना निहित है। नाटक के आदि आचार्य भरत मुनि माने जाते हैं। उन्होंने अपने अभिनय नाट्यशास्त्र’ में लिखा है कि नाटक का प्रयोग वह है, जिसमें किसी प्रसिद्ध ऐतिहासिक या कल्पित कथा के आधार पर नाट्यकार द्वारा उचित रूप से नाट्य प्रयोक्ता द्वारा प्रशिक्षित नट रंगमंच पर अभिनय द्वारा संगीत की सहायता से दर्शकों को रस उत्पन्न करने हेतु उनका मनोविनोद करते हैं।
अर्थ—किसी भी अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहा जाता है। पाणिनी ‘नट’ धातु से नाटक की व्युत्पत्ति मानते हैं। वेबर के अनुसार, “नट् व नृत दोनों समान धातु के रूप में प्रचलित थे। परन्तु बाद में नट् धातु में शरीर संचालन व अभिनय दोनों आते हैं। जबकि नृत में केवल शरीर संचालन । इस प्रकार नाट्य में दोनों शब्द जुड़ गए हैं। नाटक रस के, नृत्य भाव के और नृत ताल, लय के ऊपर आश्रित रहता है। “
परिभाषा–नाट्यशास्त्र के आदि आचार्य भरत मुनि के अनुसार, “वह अनुकरण है जो नाना भावों व नाना अवस्थाओं से सम्पन्न होता है।” धनञ्जय के अनुसार, ‘अवस्थानुकृति नटियम्’ अर्थात् अवस्था की अनुकृति को नाट्य कहते हैं । “
‘तदुपारोपानतुरूपकम’ रूप का आरोप ‘रूपक’ है। नाटक को रूपक भी कहा जाता है। अनुकरण की क्रिया अभिनय कहलाती हैं। रंगमंच को ‘रूपक’ कहते हैं, क्योंकि उस रचना में आए पात्रों का आरोप नटों में करके उसे प्रदर्शित किया जाता है।
वस्तुत: नाटक एक महत्त्वपूर्ण विधा है। दृश्य काव्य का अंग होने के कारण इसमें अनेक ललितकलाओं का समावेश भी हुआ है। इस साहित्य विधा का चूँकि आँखों और कानों दोनों से आनन्द लिया जाता है। इसलिए आधुनिक काल में उपन्यास और कहानी का प्रचलन कम नहीं हुआ है। कहने का तात्पर्य यह है कि नाटक मनोरंजन का सर्वोत्कृष्ट साधन है। यह एक ऐसा क्रीडनीयक साधन है जो श्रव्य भी है और दृश्य भी।
नाटक के प्रकार–नाटक के विभिन्न प्रकार निम्न हैं—
(1) एकांकी–एक अंक वाले नाटक को एकांकी कहा जाता है। पात्रों की संख्या एकांकी में अधिक नहीं होती। इसमें स्थान समय और पात्र का सामंजस्य विशेष महत्त्वपूर्ण होता है। नाटक में दर्शक किसी भी घटना को क्रमबद्ध देखता है, लेकिन एकांकी जीवन का क्रमबद्ध विवेचन नहीं है. बल्कि उसके एक पहलू की झलक मात्र है। अतः उसका आरम्भ, विकास और अंत इस प्रकार होता है कि वह पहलू अपने पूरे चमत्कार के साथ प्रकट हो, दर्शकों की उत्सुकता को जाग्रत कर दें व उत्सुकता में ही उसकी समाप्ति हो । एकांकी व्यापक नहीं वरन् सीमित और अपेक्षाकृत पूर्ण होते हुए भी एक खण्ड चित्र है ।
(2) एकाभिनय–एकाभिनय में एक ही अभिनेता विविध पात्रों या चरित्रों को समानान्तर जीता है। मंच पर एक ही कलाकार होने पर भी दर्शकों को लगता है कि एक से अधिक पात्र मंच पर मौजूद हैं। इसमें अभिनेता तत्काल पात्रों या चरित्रों के परिवर्तन के साथ ही दैहिक हावभाव, संवाद, ध्वनि व कई बार परिधान व सामग्री आदि में अनुकूल बदलाव लाता है और पलक झपकते ही, नया पात्र सामने आ जाता है या अनुभव होता है। यह कार्य अभिनेता अपने अवलोकन (ऑब्जर्वेशन), स्मृति और गहन अभ्यास के द्वारा ही कर सकता है।
(3) मूकाभिनय नाटक–वाणी या ध्वनि के माध्यम के विकास से पूर्व जिस दैहिक हावभाव से हम अपनी मनःस्थितियों को अभिव्यक्त करते रहे हैं, वही मूकाभिनय है। मूक यानी बिना बोले अभिनय द्वारा किसी नयी स्थिति को व्यक्त या स्थापित करना । हम अपने दैनिक जीवन में कई जगह कई बार बिना बोल या संवाद के इशारों/संकेतों में अपने आंतरिक भाव को संप्रेषित करते हैं तथा किसी भी बात पर ध्यानाकर्षण और प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते हैं। मूकाभिनय में स्थान, सामग्री तथा चरित्र को मात्र दैहिक भाषा से व्यक्त किया जाता है। मूकाभिनय, एकाकी और समूह, दोनों ही स्थितियों में प्रस्तुत किया जा सकता है। पात्र विशेष प्रकार का शृंगार भी करते हैं। जैसे चेहरे को सफेद तथा बड़ी भौंहें बना, आँखों को बड़ी बना कर अधिक सम्प्रेषणीयता विकसित की जा सकती है। मूकाभिनय में आँखों व चेहरे की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मूकाभिनय मंच पर भी खेला जा सकता है और नुक्कड़ पर भी ।
(4) मंचीय नाटक–मंचीय नाटक आमतौर पर मंच पर ही खेले जाते हैं। नाटक के लिए मंच होना जरूरी है जिसमें तीन तरफ दीवार होती है परन्तु एक तरफ से वह खुला होता है ताकि दर्शक नाटक देख सकें। मंच पर हमेशा परदे लगे होते हैं, जिससे प्रवेश व प्रस्थान किया जा सकता है। मंच पर नाटक करते समय पात्रों के परिधान, प्रकाश व्यवस्था, संगीत आदि महत्त्वपूर्ण होते हैं। ध्वनि नियोजन के लिए पारम्परिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग नाटक की आवश्यकता अनुसार किया जाता है।
(5) नुक्कड़ नाटक–रंगमंच के विकास से पूर्व हमारे समाज में कई सूचनाओं का प्रचार-प्रसार करने वाली किसी नवाचार या परिस्थिति से समाज को अवगत कराने या कभी-कभी मनोरंजन के रूप में भी नुक्कड़ नाटक का प्रचलन रहा है। नाम के अनुसार नुक्कड़ नाटक को गली-मोहल्ले के किसी भी नुक्कड़ में कर सकते हैं। इसके लिए अधिक व्यस्त स्थानों को चुना जाता है। नुक्कड़ नाटक में कहीं किसी ओर कोई दीवार नहीं होती है, दर्शक चारों तरफ होते हैं। अभिनयकर्ता और दर्शक नाटक प्रदर्शन के दौरान एक-दूसरे के बेहद करीब होते हैं। इन नाटकों के माध्यम की बहुचर्चित समस्याएँ; जैसे— जनसंख्या वृद्धि, दहेज, साम्प्रदायिकता, पर्यावरण प्रदूषण आदि उभारकर उसके दुष्परिणामों को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और समाधान की ओर संकेत भी होता है। समाज
(6) इंप्रोवाइजेशन–बच्चों के समूह में बैठाकर उनसे कुछ ऐसे अभ्यास करवाए जाएँ, जिससे उन्हें अपने ज्ञान, अपनी समझ के विस्तार का बोध हो। उदाहरण के लिए, उन्हें क्रमबद्ध टॉपिक दें और उनसे उस टॉपिक की पूरी यात्रा का वृत्तांत सुनें ।
● सोचें, क्या हुआ, जब एक दिन तुम्हारी मम्मी की तबियत खराब हो गई ?
● सोचें, क्या हुआ जब, तुम्हारे पापा की नौकरी छूट गई ?
● सोचें क्या हुआ जब, तुम कक्षा में प्रथम स्थान पर आए ?
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