पाठ्यचर्या के आधार स्पष्ट कीजिये।

पाठ्यचर्या के आधार स्पष्ट कीजिये।

अथवा
पाठ्यक्रम निर्माण के प्रमुख आधार लिखिये।
उत्तर–पाठ्यचर्या के निम्न आधार हैं—
( 1 ) ज्ञान तथा संज्ञान का स्वरूप—पाठ्यचर्या का एक अन्य आधार है ज्ञान तथा संज्ञान का स्वरूप। सूचना ज्ञान से किस प्रकार भिन्न है ? बच्चे सूचना को ज्ञान में किस प्रकार परिवर्तित करते हैं ? कौनसा  ज्ञान अधिक उपादेय है ? विचार प्रक्रिया का क्या स्वरूप है ? विभिन्न विचार प्रक्रियाएँ तथा संज्ञानात्मक प्रक्रिया के कौशल परस्पर किस प्रकार सम्बन्धित हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर पाठ्यचर्या में ज्ञान को संगठित करने की दिशा में सहायक हो सकते हैं। अब यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक विद्यार्थी अपनी विशिष्ट अधिगम शैली तथा युक्तियों का उपयोग करता है। अतः एक अच्छी पाठ्यचर्या में विद्यार्थियों की विविध अधिगम शैलियों के अनुसार सीखने की विभिन्न विधियों को स्थान मिलना चाहिए।
इस प्रकार एक अच्छी पाठ्यचर्या के ये चार आधार हैं। इन आधारों पर अलग-अलग बल देने के कारण एक पाठ्यचर्या दूसरी से भिन्न हो जाती है। इस भिन्नता का कारण कभी ऐतिहासिक विकास की दिशा होती है तो कभी पाठ्यचर्या का विकास करने वाले अध्यापक का अपना वैयक्तिक दर्शन होता है।
(2) सामाजिक शक्तियाँ-किसी समाज में सामाजिक शक्तियाँ विद्यालय को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। पाठ्यचर्या समकालीन सामाजिक शक्तियों को प्रतिबिंबित करती है तथा समाज के स्वरूप को निखारने में सहायक होती है। शिक्षा की राष्ट्रीय नीति ( 1986 तथा 1992 में संशोधित) में यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है—
“शिक्षा की राष्ट्रीय नीति उस राष्ट्रीय पाठ्यचर्या प्रारूप पर आधारित होगी जिसमें सामान्य मूलभूत एकता के साथ ही अन्य घटकों का लचीलापन भी सम्मिलित होगा। सामान्य मूलभूत एकता के अन्तर्गत भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास, संवैधानिक दायित्व बोध तथा राष्ट्रीय अस्मिता के विकास हेतु आवश्यक विषय-वस्तु निहित होंगे। ये तत्त्व सभी विषयों में समाहित होंगे तथा भारत की साझा संस्कृति, समतावाद, लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता, लिंग-भेद की समाप्ति, वातावरण की सुरक्षा, सामाजिक व्यवधानों से मुक्ति, छोटे परिवार रखने पर बल तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति के विकास जैसे मूल्यों के विकास पर भी बल दिया जाएगा। सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को ध्यान में रखते हुए कार्यान्वित किए जाएँगे।”
(3) अधिगम का स्वरूप—बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही मनुष्य के सीखने की प्रक्रिया पर विचार होता रहा है। अनेक शोधकर्त्ताओं ने मनुष्य के अधिगम-प्रक्रिया पर कार्य किया है। अधिगम प्रक्रिया के विभिन्न पक्षों पर अनेक शोध किए गए हैं। इसी दृष्टि से अधिगम के कई सिद्धान्त विकसित किए गए जिनमें प्रमुख हैं— व्यवहारवादी सिद्धान्त तथा संज्ञानात्मक सिद्धान्त। ये अधिगम सिद्धान्त पाठ्यचर्या नियोजन के कार्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से सम्पादित करने के पक्ष में हैं। पाठ्यचर्या विशेषज्ञ इन सिद्धान्तों के योगदान को नकार नहीं सकते क्योंकि इनमें से अधिकांश वैज्ञानिक विधि से विकसित किए गए हैं।
(4) मानव विकास की स्थितियाँ- बालक की वृद्धि तथा विकास के विविध पक्षों की पूर्ति में समाज साथ ही विद्यालय में निर्धारित पाठ्यचर्या का भी योगदान होता है। बीसवीं शताब्दी में बाल विकास का अध्ययन तथा तत्संबंधी शोध से बच्चों के विकास की स्थितियाँ, उनकी चिन्तन प्रक्रिया, आवश्यकताओं तथा अभिरुचियों के प्रति नए ढंग से सोचने की दृष्टि मिली है। बच्चे बड़ों के लघुरूप नहीं हैं। वे प्रौढ़ों की अपेक्षा कई महत्त्वपूर्ण दृष्टियों से भिन्न होते हैं। विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं में अन्तर केवल मात्रात्मक ही नहीं गुणात्मक अधिक होता है। इस अन्तर को अनेक मनोवैज्ञानिकों ने विशेष रूप से जीन पियाजे ने विस्तारपूर्वक समझाया है। मानव विकास का ज्ञान पाठ्यचर्या-विकास में अध्यापक की सहायता करता है। इस प्रकार से विकसित पाठ्यचर्या प्रत्येक आयु के बच्चे की विकासात्मक अवस्था के अनुसार उसकी विशेषताओं को ध्यान में रखकर बनाई जाती है।
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