विद्यालयी ज्ञान की विशेष योग्यता की समझ पर बल देते हुए स्थानीय एवं सार्वभौमिक ज्ञान का वर्णन कीजिए ।

विद्यालयी ज्ञान की विशेष योग्यता की समझ पर बल देते हुए स्थानीय एवं सार्वभौमिक ज्ञान का वर्णन कीजिए ।

उत्तर— स्थानीय ज्ञान एवं सार्वभौमिक ज्ञान–सार्वभौमिक ज्ञान में उस अनुभवातीत ज्ञान पर विचार किया जाता है जिसमें आत्म विषय और विषयी दोनों का कार्य सम्पादन करता है। इसके विपरीत स्थानीय ज्ञान में ज्ञान के आनुभाविक घटकों और स्रोतों या प्रमाणों का अध्ययन होता है। पाश्चात्य रहस्यवाद, बुद्धिवाद, अनुभववाद, यथार्थवाद, विज्ञानवाद और फलवाद (अर्थक्रियावाद) ने जिस स्थानीय ज्ञान को ग्रहण किया है उसमें एक साथ एक प्रमाण को ही स्वीकारा जाता है।” पाश्चात्य स्थानीय ज्ञान की तुलना भारतीय सतह ज्ञान से करते हुए प्रो. पाण्डेय ने यह भी बताया है कि भारतीय स्थानीय ज्ञान पाश्चात्य स्थानीय ज्ञान से व्यापक है, क्योंकि इसमें छः प्रमाण मिलते हैं। पुनः आगे कहते हैं कि “यह मानना कि ज्ञान प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं, भारतीय ज्ञान को एक अत्यन्त यथार्थ और उपयोगी खोज है, किन्तु भारतीय ज्ञान भी ज्ञान के मूल तत्त्व की पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाती । इसी कारण उसके छः प्रमाणों को ‘शेष प्रमाण’ और आत्म ज्ञान को ‘अशेष प्रमाण’ कहा गया है । यद्यपि ‘अशेष प्रमाण’ के संकेत और प्रयोग भारतीय ज्ञान में बहुत मिलते हैं तथापि उसको लेकर किसी स्वतंत्र शास्त्र की रचना नहीं की गई है। सार्वभौमिक ज्ञान इस प्रसंग में वह शास्त्र है जिसका प्रतिपाद्य-प्रतिपादक केवल यही अशेष प्रमाण है । “
स्थानीय ज्ञान और सार्वभौमिक ज्ञान में दूसरा अन्तर यह है स्थानीय ज्ञान सत्य सम्बन्धी सिद्धान्तों के निरूपण तक ही सीमित है, जबकि सार्वभौमिक ज्ञान सत्य के मापदण्ड की समस्या का समाधान खोजती है। अत: उसे मानदण्डशास्त्र (क्राइटीरिआलोजी) भी कहा जाता है। सत्य के मानदण्ड के स्वरूप का निर्धारण, सत्य एवं मानदण्डशास्त्र के अन्तर तथा उनके परस्पर सम्बन्ध का विवेचन उसके मुख्य विषय है । जी. विको, डी. जे. मेसियर और विट्गेन्स्टाइन के दर्शनों में मानदण्डशास्त्र की अवधारणा जैसे की गई है, वैसे ही नवीन रूप से सार्वभौमिक ज्ञान के सम्प्रदाय में उसका विमर्श हुआहै ।
सतह और सार्वभौमिक ज्ञान में तीसरा भेद यह है कि स्थानीय ज्ञान में केवल प्रमाण विवेचन होता है, जबकि सार्वभौमिक ज्ञान में लक्षण निरूपण पर भी बल दिया जाता है। लक्षण और प्रमाण दोनों का ज्ञान वस्तु विषयक ज्ञान के लिए आवश्यक है-लक्षणप्रमाणाभ्याम् वस्तुसिद्धिः । लक्षण और मानदण्ड की प्रागपेक्षा प्रमाण विज्ञान में होती है ।
स्थानीय ज्ञान से सार्वभौमिक ज्ञान का भेद स्थापित करके सार्वभौमिक ज्ञान के कुछ अन्य प्रमुख लक्षणों पर भी प्रकाश डाला है—
सार्वभौमिक ज्ञान में जिन मूल मानदण्डों की अवधारणा की गई है, वे ‘ अन्तर्दृष्टि’ से प्राप्त होती हैं, न कि सामान्य अनुभव से और उन्होंने (प्रो. पाण्डेय ने) अन्तर्दृष्टि की तुलना बकले के ‘नोशन’, स्पिनोजा के ‘सहज ज्ञान’, जोखिम को ‘अन्तर्बुद्धि’, शंकर को ‘साक्षात् अनुभूति’, वर्गासां के ‘अन्तः साक्ष्य’ और ब्रेडले की अपरोक्षता से की है।
यह विषय और विषयी का प्रकाशक तो है ही, साथ ही स्वप्रकाशक भी है। अन्तर्ज्ञान में अपरोक्षता और विषयातीतत्व (Transereflesiveness) के गुण होते हैं, जो उसे क्रमश: इन्द्रिय अनुभव और तर्कबुद्धि से सम्बद्ध करते हैं ।
चूँकि अन्तर्बुद्धि सृजनशील होती है अत: (प्रयोग) ज्ञान सार्वभौमिक है, “क्योंकि वह अन्तर्बुद्धि द्वारा मूलभूत सिद्धान्तों की संरचना पर बल देती है। उसमें आत्म ज्ञान और आत्मा केन्द्र बिन्दु है । “
सार्वभौमिक ज्ञान के चिन्तक–सार्वभौमिक ज्ञान को सामान्य विशेषताओं के निरूपण के पश्चात् प्रो. पाण्डेय द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘डेप्थ एपिस्टिमोलॉजी’ में अन्य प्रमुख चार विचारकों के लेख हैं। इनका परिचय संक्षेप में इस प्रकार है–
(1) प्रो. पी. एस. बरेल–प्रो. बरेल का निबन्ध ‘दी क्राइटेरियन’ है। इसमें सुकराती ढंग से मानदण्ड का निरूपण किया गया है। प्रो. बरेल के अनुसार मानदण्ड दो प्रकार के होते हैं – बाह्य और आन्तरिक । परन्तु सार्वभौमिक ज्ञान के मानदण्ड आन्तरिक होते हैं। प्रो. बरेल ज्ञान को तत्त्व पर आधारित करते हैं और यह कहते हैं कि मानदण्ड का स्वरूप तत्त्व दर्शन पर निर्भर करता है। मानदण्ड से सम्बन्धित निम्नलिखित बातें बताते है—
(1) मानदण्ड का अर्थ ‘निर्णय’ और ‘निर्णीत’ दोनों से है। इसका उपयोग सिद्धान्त और व्यवहार दोनों में होता है । “मानदण्ड तथ्यों के परस्पर मूल्यों का निश्चय करता है और संकेत देता है कि प्रत्येक मनुष्य में सत्य-असत्य, उचित-अनुचित का निर्णय करने की शक्ति होती है । इस शक्ति को अन्तरात्मा, अन्तःसाक्षी आदि नामों से जाना जाता है। यह मनुष्य का सार्वभौम और आवश्यक अंग है। उसके बिना वह मनुष्यं नहीं है। मुख्यत: मानव निर्णयवान प्राणी है।”
(2) जीवन के हर क्षेत्र में मानदण्ड का अस्तित्व है— क्षेत्र चाहे मूल्यों का हो, चाहे सामाजिक सम्बन्धों का।
(3) अनेक मानदण्ड की समाप्ति किसी सार्वभौम या मूलभूत सिद्धान्त के मिलने पर हो सकती है ।
(4) रीति-रिवाज मनुष्य का जन्म, जाति, देश, वर्ग, परम्परा, आदि को मानदण्ड नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि ये आकस्मिक, परिवर्तनशील और अस्थिर हैं ।
(5) मानदण्ड की सही विशेषता यह है कि वह आवश्यक, स्थिर, सार्वभौम और अपरिवर्त्य होते हैं ।
(6) जनमत, बहुमत और विश्वास मानदण्ड नहीं हो सकते, क्योंकि इनका निश्चयात्मक लक्षण नहीं है । भीड़, राष्ट्र या कुशल व्यक्ति भी मानदण्ड नहीं हो सकते, क्योंकि इनकी मति भिन्न-भिन्न होती है ।
सारांश यह है कि सभी मानदण्ड बाह्य होते हैं, इसलिए दोषपूर्ण होते हैं। सत्य-मानदण्ड तो आंतरिक होते हैं। यदि पूर्वाग्रह और सापेक्षता से बचा जाए तो ‘अन्तः साक्ष्य’ जो आत्मा का साक्ष्य है, एक मात्र सत्य मापदण्ड हो सकता है। सत्य की प्राप्ति आत्मानुभव या अन्तर्ज्ञान से होती है। ” प्रत्येक मानव स्वयं मानदण्ड है। वह सदैव सत्ता के साक्षात् सम्पर्क में रहता है। सत्ता को समझने के लिए उसे स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है।”
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