व्याख्यान युक्त प्रदर्शन विधि से आप क्या समझते हैं ? गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।

व्याख्यान युक्त प्रदर्शन विधि से आप क्या समझते हैं ? गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।

उत्तर – व्याख्यान युक्त प्रदर्शन (Lecture-cumdemonstration)–अपने देश के स्कूलों की परिस्थिति को देखते हुए पढ़ाने की यह सबसे अधिक व्यावहारिक एवं उपयोगी विधि है। यह तो सभी जानते हैं कि विषय के बारे में केवल बातें करना ही पर्याप्त नहीं होता। इसलिये किसी भी अध्यापक द्वारा सुनाकर तथा विद्यार्थियों द्वारा सुनकर नहीं पढ़ा जा सकता। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि छात्र जो कुछ सीखे वह प्रयोग के आधार पर सीखे। परन्तु प्रत्येक छात्र के लिए अलग-अलग प्रयोग करने तथा इस प्रकार अपने आप ज्ञान प्राप्त करने की व्यवस्था होने की आजकल की परिस्थितियों में कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा न यह सब स्कूल के बच्चों के लिए अधिक उपयुक्त ही रहेगा। इन सब कठिनाइयों का उचित समाधान प्रदर्शन विधि में निहित है।
इस विधि में अध्यापक पाठ्यविषय पढ़ाने के साथ-साथ उससे सम्बन्धित सभी आवश्यक प्रयोग स्वयं करके दिखाता है। किसी वस्तु के बारे में पढ़ाने पर उस वस्तु को प्रदर्शित करके उस वस्तु की रचना (constuction) एवं कार्य प्रणाली (working) का वास्तविक रूप में ज्ञान कराता है। विद्यार्थी अपने-अपने स्थान पर बैठे ही विभिन्न प्रकार के उपकरणों, प्रयोगों व क्रियाओं को देखते जाते हैं। इस तरह से विषयवस्तु के बारे में कानों से सुनते जाते हैं व आँखों से देखते जाते हैं। वे केवल निष्क्रिय श्रोता तथा मूक दर्शक ही बने रहे, यह बात नहीं, सक्रिय रूप में भाग लेने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है, शिक्षक प्रदर्शन करते समय उनसे आवश्यकतानुसार प्रश्न पूछता रहता है तथा विद्यार्थियों की योग्यता, रुचि तथा सामर्थ्य के अनुसार प्रदर्शन में भी सहायता लेता रहता है, जिससे छात्र उत्साहपूर्वक सक्रिय रूप से भाग ले सके।
गुण (Merits)-इस विधि के निम्नलिखित गुण हैं—
(1) सक्रिय वातावरण—इस विधि में छात्र व्याख्यान विधि की तरह केवल निष्क्रिय श्रोता बनकर नहीं बैठे रहते तथा अध्यापक भी केवल शब्दों की बौछार ही नहीं करता। विभिन्न प्रयोगों तथा क्रियाओं का प्रदर्शन करने तथा विद्यार्थियों से आवश्यकतानुसार प्रश्न पूछकर अथवा सक्रिय सहायता लेकर आगे बढ़ते रहने से अध्यापक तथा विद्यार्थी दोनों ही सक्रिय रहते हैं, जिससे कक्षा का वातावरण पूरी तरह सजग तथा सक्रिय रहता है।
(2) मानसिक विकास में सहायता— इस विधि में विद्यार्थियों को प्रयोग तथा प्रदर्शन सामग्री को ध्यानपूर्वक देखते रहना पड़ता है, जिससे वे उनके बारे में भलीभाँति सोचकर किसी परिणाम पर पहुँच सकें। अतः उन्हें अपनी निरीक्षण, तर्कशक्ति तथा विचारशक्ति आदि मानसिक शक्तियों को विकसित करने का पर्याप्त अवसर मिल जाता है। इसके अतिरिक्त इस विधि के प्रयोग से उन्हें वैज्ञानिक ढंग से सोचने और कार्य करने तथा अपने दृष्टिकोण को वैज्ञानिक बनाने में बहुत सहायता मिलती है।
(3) अध्यापक के कार्य में सहायता — इस विधि का प्रयोग करने में अध्यापक को बहुत लाभ होता है। प्रत्येक अध्यापक की यह इच्छा होती है कि वह इस तरह पढ़ाएँ कि उसकी पढ़ाई हुई बातें विद्यार्थी की समझ में आ जायें। परन्तु विज्ञान पढ़ाने में ऐसे अवसर आते ही रहते हैं जहाँ कि अध्यापक चाहे कितनी ही अच्छी तरह से मौखिक वर्णन क्यों न करें, व्याख्यान विधि द्वारा अपना कार्य नहीं कर सकता जबकि प्रयोग, वस्तुओं आदि के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कराकर उन्हें आसानी से तथा कम समय में ही समझाया जा सकता है।
(4) बचत का साधन—यह तो स्पष्ट ही है कि तथ्यों को स्पष्ट रूप से कम समय में आसानी से समझने में प्रयोगों तथा प्रत्यक्ष वस्तुओं का अपना प्रमुख स्थान है। परन्तु क्या हम अपने स्कूलों में इतने बड़े पैमाने पर प्रत्येक विद्यार्थी को स्वयं प्रयोग करने एवं वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने के अवसर देने के बारे में सोच सकते हैं ? इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में प्रदर्शन विधि ही एक ऐसी विधि है जिसका सहारा लेकर सफलतापूर्वक आगे बढ़ा जा सकता है। इस विधि द्वारा ही कम खर्च में विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष रूप से सब कुछ देखने, सुनने तथा अध्यापक की सहायता करके अनुभव प्राप्त करने का अवसर दिया जा सकता है।
( 5 ) स्पष्ट तथा स्थायी ज्ञान— प्रत्यक्ष वस्तु एवं प्रयोग प्रदर्शन आदि से विषय को अधिक से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। विज्ञान के कठिन से कठिन प्रयोग भी आसानी से बच्चों की समझ में नहीं आ जाते हैं। दूसरे, क्रियात्मक कार्यों में अधिक रुचि होने के कारण बच्चे अधिक रुचि एवं उत्साह से विषय का अध्ययन करते हैं। जो कुछ सुनते हैं, उसे अच्छी तरह प्रत्यक्ष रूप से देखते भी हैं तथा अपनी मानसिक शक्तियों का पूरी तरह से उपयोग करते हुए सक्रिय होकर ज्ञान प्राप्ति में भाग लेते हैं। इस तरह से एक ओर तो जहाँ प्राप्त किए हुए ज्ञान को ग्रहण करने में आसानी होती है, वहाँ दूसरी ओर वह अधिक स्थायी तथा उपयोगी भी होता है।
दोष तथा सीमाएँ (Demerits and Limitations)—इस विधि के दोष निम्नलिखित हैं—
(1) प्रयोगात्मक क्षमता का अभाव — इस विधि में विद्यार्थियों को स्वयं प्रयोग करने तथा प्रत्यक्ष वस्तुओं द्वारा स्वयं व्यक्तिगत रूप से ज्ञान प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता। इसलिये उनमें प्रयोग करने तथा स्वयं ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता का विकास नहीं हो पाता। किसी भी प्रयोग सम्बन्धी क्रिया अथवा उपकरण के उपयोग को केवल सुनकर अथवा देखकर नहीं उससे प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध जोड़कर ही जाना जा सकता है। विज्ञान का महत्त्व उसे प्रयोग में लाने में ही है तथा प्रयोग सम्बन्धी कुशलता तथा उपयोग सम्बन्धी व्यावहारिक बुद्धि के लिए अध्यापक द्वारा प्रदर्शन नहीं, स्वयं व्यक्तिगत रूप से प्रत्यक्ष अनुभव होना आवश्यक है।
(2) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कमियाँ—मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो भी इस विधि में काफी कमियाँ नजर आती है। “करो तथा सीखो” (Learning by doing) शिक्षण का एक बहुत मुख्य सिद्धान्त है। परन्तु यह विधि “देखो, सुनो और समझो” के सिद्धान्त पर ही आधारित है। यह ठीक है कि इस विधि से कक्षा का वातावरण सक्रिय व सजग हो जाता है, परन्तु सक्रियता अधिकतर अध्यापक को ही ओर से होती है। सिद्धान्तों के स्पष्ट होने पर विद्यार्थियों के मन में उत्सुकता एवं जिज्ञासा पूर्ववत् बनी ही रहती है। वे चाहते हैं कि वे स्वयं प्रयोग करें तथा परिणाम निकालें। इस विधि से उनकी अन्वेषणात्मक, रचनात्मक आदि प्रवृत्तियों को ठीक प्रकार पनपने का अवसर नहीं मिलता। अतः मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह विधि कम सफलता दिलाने वाली है।
(3) कुछ सीमाएँ तथा संभावनाएँ— इस विधि का उपयोग करने में बहुत सावधानी, तैयारी तथा अनुकूल परिस्थितियों का होना आवश्यक है। इसके अभाव में इस विधि द्वारा सफलता की आशा नहीं की जा सकती।
(i) इस विधि में सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक के पास प्रदर्शन की तैयारी के लिए समय व सामग्री का अभाव न हो, वहाँ यह भी आवश्यक है कि उसमें अपने प्रदर्शन के समय छात्रों को व्यस्त एवं उनकी रुचि बनाये रखने की क्षमता हो । प्रायः इस प्रकार की योग्यता अनुभव के बाद ही प्राप्त होती है। अतः यदि शिक्षक कम अनुभवी हो अथवा उसे आवश्यक सुविधायें उपलब्ध न हो तो इस विधि द्वारा अच्छे परिणामों की आशा नहीं की जा सकती है।
(ii) इस विधि में, यह मानकर चला जाता है कि सभी विद्यार्थी प्रदर्शन के प्रत्येक भाग को समान रूप से देखने तथा सुनते हैं, परन्तु वास्तव में सभी छात्र प्रयोग के सभी अंशों को ध्यानपूर्वक देखते या सुनते रहेंगे, यह आवश्यक नहीं।
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