शिक्षक को विविध क्षेत्रों में अपनी स्वयं की खोज क्यों करनी चाहिए? तर्क सहित स्पष्ट कीजिए ।

 शिक्षक को विविध क्षेत्रों में अपनी स्वयं की खोज क्यों करनी चाहिए? तर्क सहित स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर— मानव जीवन में अनेक प्रकार की क्षमताएँ और कमजोरियाँ होती हैं, जो कि स्वयं की खोज से सम्बन्धित होती हैं। एक शिक्षक के लिए स्वयं की खोज से सम्बन्धित क्षेत्रों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। यह केवल शिक्षक के जीवन से ही जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि छात्रों के जीवन से भी जुड़ा हुआ है।
एक शिक्षक में समायोजन की क्षमता सर्वोत्तम रूप में होनी चाहिए, ताकि वह अपने सम्पूर्ण जीवन में विषम परिस्थितियों में समायोजित हो सकता है। यदि उसमें समायोजन की क्षमता का अभाव है तो वह उसको विकसित कर सकता है। इसके बाद वह इसको अपने छात्रों को भी सिखा सकता है।
इस प्रकार एक शिक्षक एवं छात्र, स्वयं की खोज के माध्यम से अपनी क्षमताओं एवं कमजोरियों दोनों का आंकलन कर सकता है।
शिक्षक को निम्नलिखित कारणों से विविध क्षेत्रों में अपनी स्वयं की खोज करनी चाहिए—
(1) शिक्षण अधिगम सामग्री के क्षेत्र में स्वयं की खोज– वर्तमान समय में शिक्षण अधिगम सामग्री के प्रयोग द्वारा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को रुचिपूर्ण बनाया जाता है। एक शिक्षक को यह जानने का प्रयास करना चाहिये कि वह किस प्रकार से शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोग करके शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को रुचिपूर्ण बना सकता है। इसके लिये उसको शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण एवं प्रयोग सम्बन्धी खोज स्वयं करनी चाहिये। यदि वह शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण एवं प्रयोग करने में असफल रहता है तो उसको अपनी कमियों के बारे में विचार करना चाहिये। अपनी क्षमताओं को निखारते हुए त्रुटियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
(2) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के क्षेत्र में स्वयं की खोज– शिक्षक का प्रमुख क्षेत्र शिक्षण अधिगम प्रक्रिया से सम्बन्धित होता है । प्रत्येक शिक्षक को इस क्षेत्र में अपनी क्षमता का मूल्यांकन करने का प्रयास करना चाहिये। एक अच्छे शिक्षक द्वारा अपने शिक्षण कार्य को प्रभावी रूप में सम्पन्न करने के लिये सभी संभावनाओं का पता लगाना चाहिये तथा इसके साथ-साथ जो भी त्रुटियाँ या कमजोरी शिक्षण कार्य में रहती हैं, उनको सुधारने का प्रयास भी करना चाहिये । एक अच्छे शिक्षक के लिये आवश्यक है कि शिक्षण का परिणाम उच्च स्तरीय एवं स्थायी अधिगम के रूप में प्राप्त हो अर्थात् शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रभावी रूप में सम्पन्न हो सके।
(3) पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के क्षेत्र में स्वयं की खोज– वर्तमान समय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की आवश्यकता सर्वांगीण विकास के लिये होती है । इसलिये एक शिक्षक को पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संचालन एवं प्रबन्धन में अपनी स्वयं की खोज करनी चाहिये। यदि एक शिक्षक पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की संचालन सम्बन्धी व्यवस्थाओं को उचित रूप में सम्पन्न करने की व्यवस्था नहीं कर पाता तो उसको अपनी कमजोरियों पर विचार करना चाहिये। इसके लिये उसको सर्वप्रथम अपनी रुचियों एवं इच्छाओं को केन्द्रित करना चाहिए तथा इसके बाद पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को संचालित करना चाहिए।
(4) विद्यालय के वित्तीय प्रबन्धन के क्षेत्र में स्वयं की खोज– भारतीय प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में धन का अभाव सदैव रहता है। इसलिये एक कुशल शिक्षक को विद्यालय के वित्तीय प्रबन्धन के लिये अपने आप की खोज करनी चाहिये । खोज की इस प्रक्रिया में शिक्षक द्वारा सामुदायिक आर्थिक सहयोग एवं समुदाय के धनवान व्यक्तियों से आर्थिक सहयोग प्राप्त करने की विधियों की खोज करनी चाहिये । इसके साथ-साथ उपलब्धता का सर्वोत्तम उपयोग करने का प्रयास करना चाहिये। यदि छात्राध्यापक इन क्रियाकलापों में असफल रहता है तो उसे अपनी कार्य-शैली एवं व्यवहारगत दोषों को दूर करने का प्रयास करना चाहिये।
(5) कक्षा-कक्ष प्रबन्धन के क्षेत्र में स्वयं की खोज–सामान्यतः प्रत्येक कक्षा में भिन्न-भिन्न मानसिक स्तर के छात्रों द्वारा अध्ययन किया जाता है। कक्षा-कक्ष प्रबन्धन के अनुसार प्रत्येक छात्र की शैक्षिक आवश्यकता की पूर्ति तथा प्रत्येक छात्र के सर्वांगीण विकास की व्यवस्था एक कुशल शिक्षक का दायित्व होता है। इसलिये प्रत्येक शिक्षक को अपनी खोज करनी चाहिए कि वह किस प्रकार प्रत्येक छात्र को कक्षाकक्ष में सन्तुष्ट कर सकता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता है तो उसको अपनी उन कमजोरियों को खोजना चाहिये, जिनके कारण वह सभी छात्रों की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पा रहा है। इस प्रकार वह कक्षा-कक्ष प्रबन्धन के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है तथा सभी स्तर के छात्रों की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है।
(6) सम्प्रेषण के क्षेत्र में स्वयं की खोज– सामान्यतः सम्प्रेषण कक्षा-कक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सम्प्रेषण की प्रभावशीलता ही शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाती है। एक शिक्षक को यह विचार करना चाहिये कि वह किस प्रकार अपने छात्रों की शैक्षिक समस्याओं को समझ सकता है तथा उनका समाधान प्रस्तुत कर सकता है । इसके लिये उसको छात्रों से समीपता स्थापित करनी चाहिये, जिससे छात्र अपनी समस्याओं को शिक्षक के समक्ष प्रस्तुत कर सकें तथा शिक्षक में अपना विश्वास व्यक्त कर सकें। सम्प्रेषण की प्रभावशाली प्रक्रिया में शिक्षक यदि असफल रहता है तो उसको अपनी कमजोरियों के बारे में विचार करना चाहिये तथा अपनी क्षमताओं को निखारते हुए कमजोरियों को दूर करना चाहिये, जिससे प्रभावशाली सम्प्रेषण प्रक्रिया सम्पन्न हो सकें ।
(7) जीवन कौशल सम्बन्धी क्षेत्र में स्वयं की खोज– सामान्यतः यह देखा जाता है कि जीवन कौशल सम्बन्धी क्षेत्रों में शिक्षक द्वारा नहीं दिया जाता, जबकि जीवन कौशलों को विकसित करना शिक्षक एवं शिक्षा दोनों का ही प्रमुख दायित्व है, क्योंकि प्रत्येक अभिभावक की यह अपेक्षा होती है कि उसका बालक शिक्षा प्राप्त करके समाज का एक कुशल नागरिक कहलाये। इसलिये शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिये कि उसके स्वयं में सामाजिक एवं जीवन कौशल विद्यमान है या नहीं, इस संदर्भ में उसको अपनी स्वयं की खोज करनी चाहिये। यदि वह छात्रों में जीवन कौशलों का विकास करने में सक्षम है तो यह माना जायेगा कि शिक्षक में जीवन कौशलों के विकास की क्षमता उपस्थित है। यदि वह छात्रों में जीवन कौशलों का विकास करने में असफल रहता है तो उसे अपनी कमजोरियों के बारे में विचार करना चाहिये एवं उनको दूर करने का प्रयास करना चाहिये।
(8) विद्यालयी संसाधनों की उपलब्धता के क्षेत्र में स्वयं की खोज – सामान्यतः यह देखा जाता है कि विद्यालय में संसाधनों की उचित मात्रा उपलब्ध नहीं हो पाती। कुछ विद्यालयों में भवन का अभाव होता है तो कुछ विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षकों का अभाव होता है। इस प्रकार की स्थितियों से निपटने के लिये शिक्षक को अपनी खोज करनी चाहिये तथा क्षमताओं में निखार लाना चाहिये। इससे शिक्षक अपने कार्य को संसाधनों के अभाव में भी उचित रूप से सम्पन्न कर सकता है। भारतीय शिक्षकों में इस प्रकार की क्षमता का विकास सेवारत प्रशिक्षण एवं सेवापूर्ण प्रशिक्षण दोनों में ही किया जाता है।
(9) सामुदायिक सहयोग के क्षेत्र में स्वयं की खोज – सामुदायिक सहयोग की व्यवस्था करना भी एक कुशल शिक्षक का दायित्व है, क्योंकि विद्यालय द्वारा समाज की आकांक्षाओं की पूर्ति की जाती है। सामान्यतः विद्यालयी व्यवस्था इतनी सुदृढ़ नहीं होती कि वह समस्त आकांक्षाओं की पूर्ति कर सके । इसलिये प्रत्येक शिक्षक को स्वयं को खोजना चाहिये जिनके माध्यम से वह सामुदायिक सहयोग प्राप्त कर सके तथा विद्यालयी व्यवस्था को पूर्णरूप से संचालित कर सके। इसके लिये उसको सामुदायिक सम्बन्धों को स्थापित करने की क्षमताओं का निखार करना चाहिये । यदि वह सामुदायिक सम्बन्धों को स्थापित नहीं कर सकता तथा विद्यालय के लिये समुदाय से सहयोग प्राप्त नहीं कर पाता तो उसे अपनी कमज़ोरियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिये।
(10) सर्वांगीण विकास के क्षेत्र में स्वयं की खोज– शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सर्वांगीण विकास करना है। एक शिक्षक द्वारा सर्वांगीण विकास उस स्थिति में ही किया जा सकता है, जब स्वयं उसका सर्वांगीण विकास हो चुका हो। इस सन्दर्भ में प्रत्येक शिक्षक को यह विचार करना चाहिये कि उसको किताबी ज्ञान के साथ-साथ नैतिक, मानवीय एवं आध्यात्मिक मूल्यों का ज्ञान हो, क्योंकि जब तक शिक्षक में नैतिकता, मानवता एवं आध्यात्मिकता का समावेश नहीं होगा, तब तक वह न तो इनका महत्त्व समझेगा और न ही अपने छात्रों में मानवता, नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का विकास कर पायेगा । इसलिये एक शिक्षक का दायित्व बनता है कि सर्वप्रथम उसको सर्वांगीण विकास सम्बन्धी सभी क्षेत्रों में अपनी स्वयं की खोज करनी चाहिये। यदि उसको अपनी क्षमताओं पर संदेह होता है या इस क्षेत्र में कोई कमजोरी पायी जाती है तो उसको सुधारने का प्रयास करना चाहिये । सर्वांगीण विकास शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों के लिये आवश्यक है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षक को विविध क्षेत्रों में अपनी स्वयं की खोज करनी चाहिए। इन क्षेत्रों का सम्बन्ध छात्रों एवं सम्पूर्ण मानव मात्र के सर्वांगीण विकास से होता है। एक शिक्षक को विविध क्षेत्रों में विविध क्षमताओं से सम्पन्न होना चाहिये, जिससे वह छात्र एवं मानव समाज को एक नवीन दिशा प्रदान कर सके तथा एक उपयोगी, आदर्शवादी एवं जीवन्त समाज की स्थापना कर सके ।
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