आत्म-सम्प्रत्यय को प्रभावित करने वाले कारकों का विस्तार से वर्णन कीजिए।

आत्म-सम्प्रत्यय को प्रभावित करने वाले कारकों का विस्तार से वर्णन कीजिए।

उत्तर– आत्म-सम्प्रयय को प्रभावित करने वाले कारक–निम्न लिखित प्रकार हैं—
(1) तादात्मीकरण – तादात्मीकरण का उपयोग आत्म के विकास के पर्यायवाची के रूप में किया जाता है। इस प्रकार का उपयोग त्रुटिपूर्ण है। यह और बात है कि तादात्मीकरण अनुकरण और आत्म का विकास एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। बन्दूरा (1962) के अनुसार जब मॉडल के अनुकरण के लिए अनुकरणकर्त्ता के व्यवहार को पुनर्बलित किया जाता है तो अनुकरणकर्ता में इस प्रकार के व्यवहार को करने की अधिक प्रवृत्ति देखने को मिलतो है । बन्दूरा ने अपने प्रयोग में नर्सरी स्कूल के बच्चों को तीन प्रकार की फिल्में दिखायीं । पहली फिल्म में मॉडल आक्रामक व्यवहार करता था और व्यवहार के लिए पुरस्कार प्राप्त i होता था। दूसरी फिल्म में मॉडल आक्रामक व्यवहार करता था और इसके लिए दण्ड पाता था। तीसरी फिल्म में मॉडल न आक्रामक व्यवहार करता था न पुरस्कार व न ही दण्ड पाता था। प्रयोग के निरीक्षण में यह ज्ञात हुआ कि बच्चों ने पहली फिल्म के साथ अधिक तादात्मीकरण और अनुकरण किया जिसमें मॉडल आक्रामक व्यवहार के लिए पुरस्कृत होता था ।
सीयर्स (1957) ने तादात्मीकरण की व्याख्या अपने निर्भरता के सिद्धान्त के आधार पर की है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब निरीक्षण मॉडल पर निर्भर हो जाता है तब तादात्मीकरण उत्पन्न हो जाता है। एक बच्चा अपनी माँ से तादात्मीकरण इसलिए करता है कि वह अपनी मौलिक आवश्यकताओं के लिए माँ पर ही आश्रित होता है। हाइटिंग (1960) ने तादात्मीकरण की व्याख्या अपने प्रतिष्ठा ईर्ष्या सिद्धान्त के आधार पर की है। इस सिद्धान्त के अनुसार एक बच्चा अपने पिता से तादात्मीकरण इसलिए करता है कि उसे अपने पिता के नियंत्रण से सम्बन्धित अधिकारों के प्रति ईर्ष्या होती है। एक बालक में तादात्मीकरण की प्रवृत्ति के अनुसार ही आत्म का विकास होता है।
(2) अनुकरण – बालक अनुकरण द्वारा भी अपने आत्म के बारे में सीखता है। सर्वप्रथम नवजात शिशु अपनी माँ के व्यवहार के कुछ पहलुओं का अनुकरण करता है फिर परिवार के अन्य सदस्यों का अनुकरण करता है। बालक अपने माता-पिता, भाई-बहिन, दादा-दादी, नानानानी, मित्रों, गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियों की किसी न किसी बात का अनुकरण करता है। अनुकरण के द्वारा भी वह भाषा एवं व्यवहार की नेक बातों को सीखता है। अतः अनुकरण आत्म के विकास में सहायक कारक हैं।
(3) सुझाव – सुझाव भी आत्म के विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। बालकों में बुद्धि की कमी तथा ज्ञान के अभाव के कारण सुझाव ग्रहणशीलता अधिक होती है। इसी कारण से बालक सुझाव जल्दी मान लिया करते हैं। बालक अपने माता-पिता, भाई-बहिन, मित्रों, गुरुजनों आदि से समय-समय पर सुझाव माँगते रहते हैं। ये सुझाव उनके ज्ञान की ही वृद्धि नहीं करते बल्कि उनके आत्म के विकास में भी सहायक होते हैं।
(4) भाषा – आत्म के विकास की प्रक्रिया में साधन के रूप में भाषा भी महत्त्वपूर्ण है। बालक को भाषा का ज्ञान होते ही उसके आत्म के विकास की गति बढ़ जाती है। भाषा बालक के आत्म के विकास का साधन ही नहीं, आधार भी है। भाषा के कारण पारस्परिक अन्तः क्रियाओं, का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। भाषा के माध्यम से एक व्यक्ति अपने विचारों, मूल्यों, भावनाओं, संवेगों और आदर्श आदि को दूसरे व्यक्तियों को हस्तान्तरित करता है। बालक के लिए भाषा के माध्यम से समाज के मूल्यों और मान्यताओं को सीखने में सरलता होती है। भाषा के कारण ही आज मनुष्यों का स्तर ऊँचा है।
(5) संस्कृति – आत्म के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में संस्कृति एक मुख्य कारक है। संस्कृति के कारण ही भिन्न-भिन्न समाज के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार करने वाले होते हैं। उनके नियम, मूल्य, रीति-रिवाज आदि सब कुछ संस्कृति के कारण ही भिन्न-भिन्न होते हैं। एक समाज की जैसी संस्कृति होती है बालक में वैसे ही आत्म का विकास होता है। बालक जिस पर्यावरण में रहता है उस पर्यावरण के वयस्क सदस्य बालक के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक संस्कृति में यह निश्चित होता है कि बालक वयस्कों के प्रति किस प्रकार की अनुक्रिया करेगा । यह देखा गया है कि कुछ संस्कृतियों में माँ उदासीन होती है तो कुछ संस्कृतियों में माँ बालक के लालन-पोषण पर विशेष ध्यान देती है। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर संस्कृति का क्या और कितना प्रभाव पड़ेगा यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमारी संस्कृति के किन प्रतिमानों को और कितनी मात्रा में सीखता या अपनाता है। उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रभाव बालक पर अलग-अलग स्वतंत्र रूप से न पड़कर मिले-जुले रूप में पड़ते हैं ।
अतः कहा जा सकता है कि बालक के आत्म के विकास को संस्कृति महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है ।
(6) स्वीकृति तथा अस्वीकृति — जब बालक समाज द्वारा मान्य तरीकों से व्यवहार करे तो उसे स्वीकृति देनी चाहिए । इसी प्रकार से बुरे कार्यों के लिए अस्वीकृति देनी चाहिए। स्वीकृति व अस्वीकृति की सहायता से बालकों में आत्म का विकास सामान्य ढंग से चलता है। बालकों को इस बात का प्रशिक्षण देना चाहिए कि केवल समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार प्रतिमान को ही अपनाएँ जिससे कि उनमें आत्म का विकास सामान्य ढंग से हो ।
(7) मजाक उड़ाना — मजाक उड़ाने का भी आत्म के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह एक प्रकार का दण्ड है। जब किसी बुरे या बेढंगे कार्य के लिए बच्चे का मजाक बनाया जाता है और लज्जित किया जाता है तो वह दोबारा बुरे या बेढंगे कार्य को करने में संकोच करेगा। बालक का मजाक अधिक नहीं उड़ाना चाहिए नहीं तो हो सकता है कि वह बेशर्म हो जाए तथा उस पर मजाक का विपरीत प्रभाव पड़े ।
(8) सहानुभूति – समाज में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी के प्रति सहानुभूति अवश्य प्रकट करता है। सहानुभूति बालकों की अनेक संवेगों, भावनाओं और प्रेरणाओं को सीखने में सहायता करती है। सहानुभूति के सहारे बालक अनेक मानवोचित व्यवहारों को सीखता है और समाज का सबसे अच्छा सदस्य बनने का प्रयास करता है। जीवन के प्रारम्भ में बालक की सहानुभूति केवल माँ तक ही सीमित होती है परन्तु विकास के साथ-साथ सहानुभूति का क्षेत्र भी विस्तृत होता जाता है।
(9) प्रशंसा एवं निन्दा – प्रशंसा तथा निन्दा दोनों ही आत्म के विकास में सहायक कारक हैं। बालकों ने यह सामान्य प्रवृत्ति पायी जाती है कि वे प्रशंसित कार्यों को और अधिक ध्यान देते हैं । इन कार्यों को करने और सीखने का अधिक प्रयास करते हैं ।
(10) स्वास्थ्य – बालक के आत्म का विकास स्वास्थ्य पर भी निर्भर करता है। स्वस्थ बच्चों में आत्म-विकास की प्रक्रिया तीव्र गति से चलती है और अस्वस्थ बालकों में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत मंद गति से चलती है तथा विकृत भी हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि जो बालक स्वस्थ होते हैं वे खूब घूम-फिर सकते हैं। उनकी मित्र मण्डली भी बड़ी होती है। ऐसे बालक समाज में अन्य व्यक्तियों से जल्द ही घुल-मिल जाते हैं । अतः इस अवस्था में आत्म-विकास जल्द होना स्वाभाविक है। बहुधा यह देखा गया है कि लम्बी अस्वस्थता के कारण बालक अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के हो जाते हैं।
(11) शाशीरिक बनावट – बालक की शारीरिक बनावट भी उसके आत्म के विकास को प्रभावित करती है। उदाहरणतः जो बालक बचपन से अन्धे-गूँगे, लंगड़े आदि हो जाते हैं उनके आत्म का विकास सामान्य ढंग से नहीं हो पाता है। इसके दो कारण हैं। प्रथम तो यह कि अंगों के अभाव में कारण बालक आत्म के विकास के सभी अवसरों की प्राप्ति नहीं कर पाते, जो एक सामान्य बालक को प्राप्त होते हैं। दूसरे यह कि अंगों की विकृति या अभाव के कारण उनमें हीनता की भावना उत्पन्न हो जाती है। यह हीनता की भावना उनके आत्म के विकास में बाधक होती है। शारीरिक स्वस्थ बालकों को समाज भी अच्छी दृष्टि से देखता है।
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