उन तत्वों का उल्लेख कीजिए जो स्व को निर्माण करते हैं।

उन तत्वों का उल्लेख कीजिए जो स्व को निर्माण करते हैं। 

उत्तर— स्व निर्माण के तत्त्व–स्व निर्माण के तत्त्वों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार हैं—

(1) शरीर – गठन एवं शारीरिक प्रतिमा– स्वयं के विकास में शरीर-गठन एवं उसके बारे में बच्चों (या व्यक्तियों) के मन में निर्मित होने वाली तरह-तरह की प्रतिमाओं का प्रमुख स्थान होता है। कुछ बच्चों या व्यक्तियों का शारीरिक-गठन कमजोर होता है और कुछ सीमित शारीरिक क्रियाएँ ही कर पाते हैं। दूसरी तरफ कुछ बच्चे या व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनकी शारीरिक संरचना काफी मजबूत होती है तथा वे अपनी उम्र के अन्य बच्चों से शारीरिक ऊर्जा में आगे होते हैं। पहले वर्ग के बच्चों में एक तरह का नकारात्मक आत्म (Negative self) विकसित होता है, जबकि दूसरी श्रेणी के बच्चों में सकारात्मक आत्म (Positive self) का विकास होता है।
(2) भाषा – आत्म के विकास पर भाषा का भी प्रभाव पड़ता है। बच्चे जब ‘मैं’, ‘मुझको’, ‘उनका’, ‘मेरा’ आदि शब्दों को बोलना सीख लेते हैं तो स्पष्टतः उन्हें यह ज्ञान होने लगता है कि वे क्या हैं और वे अन्य लोगों से किस अर्थ में भिन्न हैं। इससे उनके ‘स्वयं’ का विकास तेजी से होने लगता है। ऑलपोर्ट (Allport) के अनुसार 2 से 3 साल की आयु में होने वाले आत्म के विकास का भाषा से गहरा सम्बन्ध होता है।
(3) पर्यावरण से मिलने वाला पुनर्निवेशन – बच्चे परिवार के सदस्यों, शिक्षकों एवं साथियों से अन्तः क्रिया करते हैं। इस अन्तःक्रिया के आधार पर वे कुछ लोगों को महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावी समझने लगते हैं, क्योंकि ऐसे लोग उनकी नजर में उन्हें सुरक्षा एवं प्यार देते हैं। जब बच्चों को ऐसे महत्त्वपूर्ण लोगों से उपेक्षा एवं तिरस्कार मिलता है तो वे अपने को एक तुच्छ व्यक्ति समझने लगते हैं और उनमें आत्म-सम्प्रत्यय का विकास हो जाता है, जिससे उसकी समायोजनशीलता काफी प्रभावित होती है। आलपोर्ट (1965) ने ऐसे पुनर्निवेशन को आत्म-प्रतिमा / आत्म छवि कहा है।
(4) उपयुक्त यौन मॉडल के साथ तादात्म्य – बच्चों में 6-7 साल की आयु होने पर उपयुक्त यौन के व्यक्तियों के साथ तादात्म्य स्थापित होता है। लड़कियाँ अपनी माताओं या अन्य महिलाओं के साथ तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश करती हैं तथा लड़के पिता या अन्य पुरुषों के साथ तादाम्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं। इसका प्रभाव उनके आत्म के विकास पर पड़ता है। हेथरिंगटन (1989) के अनुसार, जब बच्चे उपर्युक्त यौन मॉडल के साथ तादात्म्य स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो उनके आत्म में पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व का भाव विकसित हो जाता है। यह पहचान (Identity) के विकास में भी एक अहम् भूमिका निभाता है।
(5) पालन-पोषण की विधियाँ – आत्म के विकास पर पालनपोषण की विधियों का भी प्रभाव पड़ता है। बच्चों के पालन-पोषण की विधि विभिन्न समाजों में एक जैसी नहीं होती है, फिर भी उनमें कुछ आयामों पर समानता देखी जा सकती है। स्पष्ट है कि आत्म का विकास कई कारकों द्वारा निर्धारित होता है, जिसमें सामान्य से विशिष्ट की ओर एक तरह की भिन्नता क्रमशः स्थापित होती जाती है।
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