जैव-विविधता विलोपन के प्राकृतिक कारण लिखिए।

जैव-विविधता विलोपन के प्राकृतिक कारण लिखिए। 

                                   अथवा
टिप्पणी लिखिए — जैविक विविधता ।
उत्तर—  जैव विविधता या जैविक विविधता — जैवविविधता दो शब्दों से मिलकर बना है — जैव अर्थात् जीवन तथा विविधता अर्थात् विभिन्नता। अत: जैवविविधता का अर्थ है पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवधारियों के बीच पाई जाने वाली विभिन्नता । जीवधारियों में पेड़-पौधे तथा जन्तु सभी सम्मिलित हैं अतः जैवविविधता एक व्यापक शब्द है । इसका विस्तार अतिसूक्ष्म लाइकेन से लेकर विशालकाय वृक्ष बरगद तथा रेडवुड़, अतिसूक्ष्म जलीय प्लेंकटोन से लेकर विशालकाय व्हेल तथा अतिसूक्ष्म जीवाणुओं से लेकर विशालकाय हाथी तक पाया जाता है।
जैव विविधता के स्तर — जैव विविधता के निम्न तीन स्तर होते है—
(1) प्रजाति विविधता (Species diversity) — जीवों का इस प्रकार का समूह जिसके सदस्य दिखने के अन्दर एक जैसे हों तथा प्राकृतिक परिवेश में प्रजनन कर सन्तान पैदा करने की क्षमता रखते हों, उसे प्रजाति कहते हैं।
किसी क्षेत्र विशेष में उपस्थित जीवों (पौधे व जन्तु) की विभिन्न प्रजातियों की कुल संख्या उस क्षेत्र की प्रजाति विविधता कहलाती है।
जैव विविधता का सामान्य अर्थ प्रजाति विविधता से ही लगाया जाता है। यह किसी पारिस्थितिक तंत्र के सन्तुलन की मापन इकाई है।
(2) आनुवंशिक विविधता (Genetic diversity ) — एक ही प्रजाति के विभिन्न सदस्यों के मध्य आनुवंशिक इकाई जीन (Gene) के कारण पाये जाने वाली भिन्नता आनुवंशिक विविधता कहलाती है। इस प्रकार की विभिन्नता एक प्रजाति के विभिन्न जनसंख्या समूहों के बीच अथवा एक जनसंख्या के विभिन्न सदस्यों के मध्य पाई जाती है।
विश्व के विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में एक प्रजाति जैसे चावल या हिरण या मेंढक का विभिन्न गुणों के साथ पाया जाना आनुवंशिक विविधता का ही उदाहरण है। यदि किसी प्रजाति के सदस्यों में अधिक आनुवंशिक विभिन्नता पाई जाती हो तो उसके विलुप्त होने का खतरा उतना ही कम होगा क्योंकि उसमें वातावरण के साथ अनुकूलन करने की क्षमता अधिक होगी।
(3) पारिस्थितिक तंत्र विविधता (Ecosystem diversity) – किसी क्षेत्र विशेष के समस्त जीव-जन्तुओं की परस्पर तथा उनके पर्यावरण के विभिन्न अजैविक घटकों में अन्तःक्रियाओं से निर्मित तंत्र पारिस्थितिक तंत्र कहलाता है | इस पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार की पारिस्थितिक तंत्र पाये जाते हैं, जैसे—घास के मैदान, मरुस्थल, पहाड़, नम भूमि, नदी-घाटी, समुद्र, उष्ण कटिबन्धीय वन इत्यादि । इन पारिस्थितिक तंत्रों की अपनी भौगोलिक व पर्यावरणीय विशेषताएँ होती हैं, जिसके फलस्वरूप वहाँ पर पाये जाने वाले जीव-जन्तुओं व पादपों में भिन्नता होती है। इस विभिन्नता को ही पारिस्थितिक तंत्र की विविधता कहते हैं ।
जैव-विविधता विलोपन के प्राकृतिक कारण— जैव विविधता विलुप्ति के प्राकृतिक कारण निम्न हैं—
(1) जलवायु परिवर्तन (Climate change) – मानव क्रियाकलापों व प्रदूषण के कारण आज पृथ्वी पर ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा काफी बढ़ती जा रही है, इस कारण पृथ्वी का तापक्रम निरन्तर बढ़ता जा रहा है। बढ़ते तापमान के कारण ध्रुवों पर जमा बर्फ पिघलकर समुद्रों के जलस्तर को बढ़ा रहे हैं। इससे समुद्री जैवविविधता तथा समुद्र के आसपास की विविधता को नष्ट होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार यदि पृथ्वी का तापमान 3.6 डिग्री सेन्टीग्रेड बढ़ता है तो विश्व की 70 प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्तता का खतरा हो जायेगा ।
(2) प्राकृतिक आवास विखण्डन (Habitat Fragmentation) — वन्य प्राणियों के लिए पूर्व में बड़े-बड़े अविभक्त क्षेत्र विस्तारित थे, परन्तु आज अनेक ऐसे कारण जैसे रेल-रोड मार्ग, गैस पाइप, नहर, विद्युत लाइन, बाँध, खेत, शहर, आदि के कारण इनके प्राकृतिक आवास विखण्डित हो गये हैं। इससे उनके प्राकृतिक क्रियाकलाप बाधित होते हैं तथा ये अपने को इन गतिविधियों से असुरक्षित महसूस करते हैं। अनेक प्राणी वाहनों की चपेट में आने से मर जाते हैं या मानव बस्ती में आ जाने पर मार दिये जाते हैं। दुधवा राष्ट्रीय उद्यान से गुजरने वाली रेलवे लाइन से प्रतिवर्ष अनेक प्राणी दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं।
(3) प्राकृतिक आवासों का नष्ट होना (Habitat loss) – प्रत्येक जीव अपने निश्चित आवास में रहकर जीवनयापन व अपनी संख्या में वृद्धि करता रहता है। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम इन प्राकृतिकं आवासों को नष्ट कर रहे हैं । वनों की कटाई, वनस्पति के रोग, कृषि भूमि का विस्तार, शहरीकरण, रेल-रोड, उद्योग-धन्धों की स्थापना के लिए निरन्तर वनों को साफ किया जा रहा है। इस कारण जैवविविधता नष्ट हो रही है तथा जीवों का विलुप्तीकरण बढ़ता जा रहा है।
(4) पर्यावरण प्रदूषण (Environmental pollution ) –  पर्यावरण प्रदूषण का दुष्प्रभाव प्राणियों व पौधों पर पड़ता है। औद्योगिक अपशिष्ट से प्रदूषित भूमि व जल में अनेक वनस्पति व जीव नष्ट हो जाते हैं। अत्यधिक वायु प्रदूषण के फलस्वरूप होने वाली तेजाबी वर्षा से भी अनेक सूक्ष्मजीव व वनस्पति नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार कृषि पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव विलुप्त हो रहे हैं जिससे भूमि की उर्वरता भी प्रभावित हो रही है ।
(5) विदेशी प्रजातियों का आक्रमण (Invasion of Foreign Species) — कभी-कभी विदेशी प्रजातियों के आने से स्थानीय प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है व पारिस्थितिक तंत्र में असन्तुलन पैदा हो जाता है। कुछ विदेशी प्रजातियों जैसे लैन्टाना व जलकुम्भी को सौन्दर्यीकरण हेतु भारत में लाया गया । ये प्रजातियाँ शीघ्रता से सम्पूर्ण भारत में फैल गई व स्थानीय जातियाँ नष्ट होने लग गई । यही स्थिति वन्य जीवों के साथ भी होती है ।
जैव-विविधता का महत्त्व — जैव विविधता का महत्त्व निम्न प्रकार से है—
(1) आर्थिक महत्त्व — जैवविविधता से ही मानव की आधारभूत आवश्यकताओं भोजन, ईंधन, चारा, इमारती लकड़ी, औद्योगिक कच्चा माल, कपड़ा व मकान प्राप्त होता है। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जैवविविधता का उपयोग कृषि पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ रोगरोधी तथा कीटरोधी फसलों की किस्मों के विकास में किया जा रहा है। उदाहरणार्थ – हरितक्रान्ति के लिए गेहूँ की बौनी किस्मों का विकास जापान के नारीन- 10 नामक गेहूँ की किस्म से तथा धान की बौनी किस्मों का विकास ताइवान में पायी जाने वाली डीजियो-रु-जेन नामक धान की प्रजाति से किया गया था। सन् 1970 के दशक में जब एशिया महाद्वीप के क्षेत्र में धान की फसलें ग्रासी स्टन्ट विषाणु से नष्ट हो गई थीं तब पूर्वी उत्तर प्रदेश में 1963 में संग्रहित की गई जंगली धान की प्रजाति ‘ओराइजा निवेरा’ से उक्त रोग के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित की गई।
वर्तमान में जंगली धान के रोगरोधी और कीटरोधी 20 मुख्य जीन्स (gense) का उपयोग धान सुधार कार्यक्रम में हो रहा है । अभी विश्व पेट्रोलियम पदार्थों के सीमित संसाधनों तथा उनके अनियंत्रित दोहन से चिन्तित है। ऐसे में जैट्रोपा व करंज नामक पौधों से बायोडीजल प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।
(2) औषधीय महत्त्व (Medicinal Value) – प्राचीन काल से ही पौधों का औषधीय क्षेत्र में विशेष महत्त्व रहा है। आयुर्वेद में तो पौधों से ही प्राप्त औषधियों से इलाज किया जाता है । कुनैन का इलाज सिनकोना पादप की छाल से, सदाबहार विनक्रिस्टीन (Vincristinc ) तथा विनब्लास्टीन (Vinablastine) पौधों का उपयोग असाध्य रक्त कैंसर (leukemia), टैक्सस बकाटा वृक्ष की छाल का कैंसर रोग में तथा सर्पगन्धा का उपयोग रक्तचाप के इलाज में किया जाता है। अनेक पौधे जैसे—तुलसी, ब्राह्मी, अश्वगन्धा, शतावरी, गिन्गो गिलोय आदि पौधों में एड्स (AIDS) रोधी गुण पाये जाते हैं ।
(3) पर्यावरणीय महत्त्व (Environmental Value)—
(i) खाद्य-श्रृंखला का संरक्षण (Conservation of food chain) – पारिस्थितिक तंत्र में एक जीव अन्य जीव का भक्षण करते हैं अतः एक प्रजाति किसी अन्य प्रजाति पर निर्भर होती है । यदि तंत्र में एक प्रजाति विलुप्त हो जाये तो खाद्य श्रृंखला का असन्तुलन हो जाता है परन्तु जैवविविधता सम्पन्न होने से खाद्य श्रृंखला के वैकल्पिक पथ होते हैं, जिसके कारण खाद्य शृंखलायें त्रिस्तर रहती हैं। इसकी कमी अन्य प्रजाति पूर्ण करती है। इस प्रकार खाद्य श्रृंखला का संरक्षण होता है।
(ii) पर्यावरण प्रदूषण का निस्तारण (Expeditation of environmental pollutants) – अनेक पौधे प्रदूषकों का विघटन व अवशोषण करने की क्षमतायुक्त होते हैं। जैसे सदाबहार पौधे में ट्राइनाइट्रोटोलुईन विस्फोटक का विघटन करने की क्षमता होती है। अनेक जीवाणु जैसे स्यूडोमोनास प्यूटिडा, आर्थोबेक्टर विस्कोसस व साइट्रोबेक्टर प्रजातियों में औद्योगिक अपशिष्ट से भारी धातुओं को हटाने की क्षमता होती है। राइजोपस ओराइजीस कवक में यूरेनियम व थोरियम तथा पेनिसीलियम क्राइसोजीनस में रेडियम जैसे घातक तत्त्वों को हटाने की क्षमता होती है।
(iii) पोषक चक्र नियंत्रण (Protection of nutrient cycle) – जैव-विविधता पोष चक्र को गतिमान रखती है। मिट्टी में विद्यमान जीवाणुओं की विविधता जीवों के मृतभागों को विघटित करके पुनः पौधों को उपलब्ध कराती है । अतः इस प्रकार से यह चक्र गतिमान रहता है।
जैव-विविधता का संरक्षण-जैव विविधता का संरक्षण निम्न दो विधियों द्वारा किया जाता है—
(1) स्व: स्थाने संरक्षण (In-situ Conservation)– जीवों के विकास एवं वृद्धि के लिए इनके प्राकृतिक आवास ही सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं। ऐसा संरक्षण जो प्राकृतिक आवास में ही मानव द्वारा प्रदत्त अनुरक्षण से किया जाता है, स्वःस्थाने (Insitu) संरक्षण कहलाता है। जिस संकटग्रस्त प्रजाति को संरक्षित करना होता है, उसके अनुसार चयनित प्राकृतिक आवास में ही अनुकूल परिस्थितियों एवं सुरक्षा उपलब्ध कराई जाती है। इसके तहत जीवमण्डल रिजर्व (Biosphere Reserve), राष्ट्रीय उद्यान (National Parks), अभयारण्य (Wild Life Sancturies) तथा संरक्षण रिजर्व (Conservation Reserve) आदि की स्थापना की जाती है। वर्तमान में भारत में 14 जैवमण्डल रिजर्व, 99 राष्ट्रीय उद्यान तथा 523 वन्यजीव अभयारण्य तथा 47 संरक्षित रिजर्व स्थापित किए जा चुके हैं, जिनमें देश का कुल 1,58,745 वर्ग किमी. क्षेत्र संरक्षित हो चुका है।
(2) बहिस्थाने संरक्षण ( Ex-situ Conservation ) — जैव विविधता संरक्षण की इस विधि में संकटग्रस्त पादप व जन्तु प्रजातियों को उनके प्राकृतिक आवास से बाहर कृत्रिम आवास में संरक्षण प्रदान किया जाता है। इसके तहत वनस्पति प्रजातियों के संरक्षण हेतु वानस्पतिक (Botanical) उद्यान, बीज बैंक, उतक संवर्धन प्रयोगशाला (Tissue culture laboratories) आदि की स्थापना की जाती है। वही जन्तुओं के संरक्षण हेतु चिड़ियाघर, एक्वेरियम आदि की स्थापना की जाती है। संकटग्रस्त पादपों व जन्तुओं के जननद्रव्यों (Germplasm) अर्थात् बीज, विधि (Crypopreservation) व मंद बुद्धि कल्चर (Slow Growth Culture) तकनीक से किया जाता है। इसके अलावा संकटग्रस्त पौधों या जन्तुओं के जीन्स (Genes) को अंकुरणक्षम अवस्था में जीन बैंकों (Gene Banks) में सुरक्षित रखा जाता है।
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