ज्ञान की रचना के आधारभूत सिद्धान्त कौन-कौनसे हैं ? स्पष्ट कीजिये।
ज्ञान की रचना के आधारभूत सिद्धान्त कौन-कौनसे हैं ? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर- ज्ञान की रचना के आधारभूत सिद्धान्त निम्न हैं(1) अधिगम एक सक्रिय प्रक्रिया है-अधिगम निष्क्रिय रहकर ज्ञान को स्वीकार करना नहीं है, इसमें अधिगमकर्त्ता ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग करते हुए अर्थ का निर्माण करता है।
(2) अधिगम तुरन्त घटित नहीं होता है-अधिगम में समय लगता है। सार्थक अधिगम के लिए, विद्यार्थी को अपने विचारों को पुनः स्मरण कर एवं विचार कर, प्रयोग करना होता है। यह 5 या 15 मिनट की प्रक्रिया नहीं है। यदि हम पूर्व में सीखी हुई विषय-वस्तु पर चिन्तन करें
तो यह अनुभव करते हैं कि यह निरन्तर विचार करने एवं उद्घाटन का परिणाम है।
( 3 ) अधिगम में भाषा संलग्न है—जो भाषा हम प्रयोग करते हैं वह हमारे द्वारा अर्जित ज्ञान अथवा हमारे अधिगम को प्रभावित करती है। लेव व्योगोटस्की नामक मनोवैज्ञानिक का मानना है कि भाषा एवं अधिगम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं अर्थात् इन दोनों को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता।
(4) अभिप्रेरणा अधिगम का प्रमुख घटक है-अभिप्रेरणा न केवल अधिगम में सहायक होती है, अपितु यह अधिगम के लिए आवश्यक भी है।
(5) अधिगम सदैव संदर्भित होता है— तथ्यों एवं सूचनाओं के अर्थ को संदर्भों में सीखा जाता है। हम सिद्धान्तों एवं तथ्यों को, अपने जीवन से विलग कर मस्तिष्क के किसी कोने में नहीं संजों सकते। इसलिए अधिगम प्रासंगिक होता है। ज्ञान, विश्वास, तथ्यों, सूचनाओं में सहसम्बन्ध स्थापित करने पर ही अधिगम होता है।
(6) अधिगम कैसे किया जाता है ? – इसे व्यक्ति अधिगम करते समय सीखते हैं अधिगम में अर्थ की संरचना के साथ-साथ अर्थ की संरचना प्रणाली भी सम्मिलित है।
(7) नवीन ज्ञान के निर्माण का आधार पूर्व ज्ञान होता है जो कुछ हम जानते हैं, वह हमारी पूर्व जानकारी, पूर्ण विश्वास, पूर्वाग्रहों एवं आशंकाओं से सम्बन्धित कर सीखा हुआ है। नवीन ज्ञान का आत्मीकरण, पूर्व संरचित ज्ञान पर आधारित होता है। जितना अधिक बालक जानता है, उतना ही अधिक सीख पाते हैं। जीन पियाजे ने भी आत्मीकरण में विगत अनुभवों का प्रयोग करते हुए, अनुभवों का परिचित परिस्थितियों में, रूपान्तरण करने को कहा है। नवीन ज्ञान की रचना, पूर्व अधिगम / पूर्व ज्ञान तथा अधिगम की तत्परता दोनों से सम्बन्धित होती है।
(8) अर्थपूर्ण-अधिगम की प्रक्रिया, मानसिक प्रक्रिया है यह मस्तिष्क में घटित होती है। बालकों के लिए, विशेष रूप से शारीरिक क्रियाएँ एवं स्व-अनुभव आवश्यक होते हैं, परन्तु ये पर्याप्त नहीं हैं। अधिगम के लिए हाथों व शारीरिक क्रियाओं (दैहिक क्रियाओं) के साथ-साथ मस्तिष्क को भी संलग्न करने की आवश्यकता है। जॉन डीवी ने इसे चिन्तनयुक्त प्रक्रिया कहा है।
(9) अधिगम एक सामाजिक प्रक्रिया है—अधिगम का सम्बन्ध समवयस्क समूह, परिवार, अध्यापक एवं परिचितों से होता है। डीवी ने कहा है कि शिक्षा की व्याख्या, अधिगमकर्ता एवं विषय-वस्तु से सम्बन्धित है। उन्होंने कक्षा का वातावरण अथवा कक्षा-कक्ष को, वह स्थान बताया है, जहाँ हम वास्तविक जीवन की समस्याओं के विषय में सामाजिक अन्तःक्रिया करते हैं तथा जहाँ विषय-वस्तु एक निश्चित तथ्यों को एक क्रम में व्यवस्थित करके नहीं पढ़ाई जाती, अपितु विषयों का उपयोग वास्तविक जीवन की समस्याओं का समाधान करने में किया जाता है।
जॉन डीवी ने प्रगतिशील शिक्षा में अधिगम के सामाजिक पक्ष पर बल देते हुए वार्तालाप, दूसरों के साथ अन्तःक्रिया तथा ज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग को अधिगम का अभिन्न अंग माना है।
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