पर्यावरणीय प्रबन्धन को परिभाषित कीजिए। । पर्यावरणीय प्रबन्धन के उद्देश्य एवं महत्त्व की व्याख्या कीजिए ।

 पर्यावरणीय प्रबन्धन को परिभाषित कीजिए। । पर्यावरणीय प्रबन्धन के उद्देश्य एवं महत्त्व की व्याख्या कीजिए । 

                                                                 अथवा
पर्यावरण प्रबन्ध क्या है ? पर्यावरण प्रबन्ध की आवश्यकता का विवेचन कीजिए।
उत्तर— पर्यावरण प्रबन्ध की परिभाषा – पर्यावरण प्रबन्ध पर्यावरण का उचित उपयोग, उचित प्रबन्ध है जिससे वह अधिक से अधिक उपयोगी हो । प्राकृतिक संसाधनों के भण्डार कम न हो तथा पर्यावरण कम से कम प्रदूषित हो और पारिस्थितिक चक्र सदा चलता रहे। पर्यावरण प्रबन्ध की परिभाषा इस प्रकार की गई— “A process of planning review, assessment, decision making and the like which is essential, in the real life situation of limited resources and changing priortities.” अर्थात् पर्यावरण प्रबन्ध के अन्तर्गत नियोजन, विश्लेषण, मूल्यांकन एवं उचित निर्णय द्वारा सीमित संसाधनों का उपयोग तथा प्राथमिकताओं में परिवर्तन आवश्यक है जिससे वास्तविक जीवन में वे उपयोगी हो सकें।
प्रबन्धन के उद्देश्य—
प्रबन्धन के कुछ मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं—
(1) प्राकृतिक संसाधनों का उचित तथा सीमित उपयोग करना ताकि भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को भी इसकी उपलब्धता बनी रहे ।
(2) अवक्रमित पर्यावरण (Degraded Environment) को पुनः सन्तुलित करना ।
(3) प्राकृतिक संसाधनों का नवीनीकरण करना ।
(4) पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करना ।
(5) प्राकृतिक संसाधनों के एक बार उपयोग के बाद प्राप्त अपशिष्टों (Wastes) को पुनः चक्रण (Recycling) के माध्यम से पुन: उपयोग के योग्य (Reapplicable) बनाना ताकि उस संसाधन का अधिकतम उपयोग किया जा सके।
(6) पर्यावरण संरक्षण के लिए नियमों, कानूनों तथा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों की व्यवस्था, सख्ती से उसका पालन करना तथा मूल्यांकन करना ।
पर्यावरणीय प्रबन्धन की आवश्यकता एवं महत्ता—
वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण की स्थिति एवं संसाधनों पर बढ़ते दबाव के कारण पर्यावरणीय प्रबन्धन अनिवार्य हो जाता है। इसकी आवश्यकता एवं महत्ता को हम भारत के परिप्रेक्ष्य में निम्न प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं—
(i) अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि
(ii) तकनीकी विकास
(iii) दोषपूर्ण कृषि विधियाँ
(iv) अनुचित व्यक्तिगत आँकड़े
(v) प्राकृतिक कारण
(i) अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि – हमारे देश की जनसंख्या प्रतिदिन बढ़ रही है। इसका हमारे पर्यावरण पर भोजन, ईंधन और स्थान की वृद्धि के रूप में अत्यधिक भार पड़ता है। अधिक लोगों का अर्थ है रोजगार की अधिक मांग । परिणामस्वरूप अधिक उद्योग, बाँध, सड़कें और रेल की पटरियाँ लगाई जा रही है। इस कारण औद्योगीकरण व शहरीकरण, झुग्गी-झोपड़ियों में वृद्धि, जंगलों में कटौती और अस्वच्छ रिहायशी स्थितियाँ पैदा हुई हैं। ये सब हमारे पर्यावरण पर प्रभाव डालकर इसके निम्नीकरण का कारण बन रही हैं।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के कारण पर्यावरण प्रबन्धन की आवश्यकता महसूस की गई है।
(ii) तकनीकी विकास—आज जीव के हर क्षेत्र में तकनीकी विकास हुआ है। बाजार में नये मॉडल की कारें, टेलीफोन, मोबाइल फोन और घरेलू उपकरण जैसे वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव ओवन आदि से बाजार भरे पड़े हैं।
हमारे घर – विद्यालयों में भी नये उपकरणों की भरमार है। इन उपकरणों का उत्पादन जिन औद्योगिक इकाइयों में होता है वहाँ इनके उत्पादन के दौरान रासायनिक अपशिष्ट, हानिकारक गैस और विघटनाभिक प्रदूषक पदार्थ निकलते हैं। ये प्रदूषक पदार्थ जल, वायु व भूमि पर सभी प्रकार के जीवन को नष्ट कर देते हैं। कारखानों, खदानों, वाहनों और जहाजों से निकलता धुआं ओजोन परत को हानि पहुँचा रहा है। अतः इस तकनीकी विकास से हमारे पर्यावरण को क्षति पहुँचती है। इस तकनीकी विकास के कारण पर्यावरण की हुई क्षति को पर्यावरण प्रबन्धन के द्वारा ही हम काफी हद तक कम कर सकते हैं ।
(iii) दोषपूर्ण कृषि विधियाँ – हमारी कृषि विधियों में भी काफी परिवर्तन आया है । पशुओं के चारागाह, रासायनिक खाद और कीटनाशकों का अधिक प्रयोग, झूम खेती, अधिक जुताई और अधिक फसल उगाने से मिट्टी कठोर हो गयी है और भूमि अपरदन हो रहा है। मिट्टी की उर्वरक और उत्पादन क्षमता भी कम हो गई है। अतः यह भी एक पर्यावरणीय चिन्ता का विषय बन चुका है। जिसके कारण पर्यावरण प्रबन्धन काफी आवश्यक हो चुका है।
(iv) अनुचित वैयक्तिक आदते – हमारी कुछ अस्वच्छ आदतें जैसे सार्वजनिक स्थानों पर मल त्याग करना, जल स्रोतों के आस-पास कपड़े धोना आदि से भूमि से भूमि व जल निम्नीकरण होता है। अन्य आदतें जैसे धूम्रपान और तेज संगीत सुनने से भी वायु प्रदूषण होता है । इन सबको मिलाकर पर्यावरण निम्नीकरण होता है। अतः पर्यावरण प्रबन्धन के लिए हमारी अनुचित वैयक्तिक आदतें भी काफी हद तक उत्तरदायी हैं।
(v) प्राकृतिक कारण – कभी-कभी प्रकृति भी पर्यावरण को प्रदूषित करती है । भूकम्प और ज्वालामुखी के फटने आदि से हानिकारक धूल, गर्मी, धुआँ और अन्य हानिकारक गैस पैदा होती है। बाढ़, सूखा, व तेज हवाओं से भूमि अपरदन होता है और मनुष्यों में व जानवरों और पौधों के जीवन की क्षति पहुँचती है। इस प्रकार भूमि, वायु और जल, सभी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वे पर्यावरण निम्नीकरण का कारण बनते हैं। हालांकि प्राकृतिक कारणों पर मनुष्य का बस नहीं चलता है, लेकिन उसके द्वारा हुई क्षति की पूर्ति के लिए पर्यावरण ही एकमात्र विकल्प है।
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