पाठ्यक्रम के प्रकार समझाइये ।

पाठ्यक्रम के प्रकार समझाइये ।

उत्तर–पाठ्यक्रम को निम्न छः प्रकारों में विभक्त कर सकते हैं—
( 1 ) विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम को परम्परागत पाठ्यक्रम भी कहते हैं। पाठ्यक्रम के स्वरूप में विषय-वस्तु को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालक तथा उसकी रुचियों एवं योग्यताओं को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। इसमें शिक्षक ही सर्वेसर्वा होता है। बालक शिक्षा के लिए होता है, न कि शिक्षा बालक के लिए। बालक में योग्यताएँ तथा रुचियाँ हैं या नहीं, उसे कठोर परिश्रम करके निर्धारित विषय-वस्तु का ज्ञान करना ही पड़ता है।  इस प्रकार का पाठ्यक्रम ज्ञानात्मक पक्ष को अधिक बल देता है।
विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम में अध्यापक का शिक्षण पाठ्यक्रम तक ही सीमित रहता है। वह पाठ्यक्रम के अलावा छात्रों को और कोई ज्ञान प्रदान करना उचित नहीं समझता है। वह छात्र के केवल ज्ञान-भण्डार को बढ़ाने पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करता है, भले ही इस ज्ञान की छात्र के जीवन में कोई उपयोगिता हो या न हो।
सेलर तथा अलेक्जेण्डर के अनुसार, “विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम में ज्ञान के संगठित अंगों के अध्ययन के अनुभव को शिक्षा के उद्देश्यों के प्राप्त करने के लिए प्रयोग में आने वाली प्रमुख निधि माना जाता है। तथ्यों, विवरणों, व्याख्याओं, सामान्यीकरणों, सिद्धान्तों तथा धारणाओं से युक्त ज्ञान को सामग्री के अंगों के रूप में गठित तथा पुनर्गठित किया जाता है।”
पक्ष में तर्क—
(1) व्यवहार परिमार्जन में सहायक -जब छात्रों का बौद्धिक विकास होता है तो निश्चित ही उनके व्यवहारों में भी परिमार्जन होता है। विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम हमारी बौद्धिक क्षमताओं को बढ़ाकर हमारे व्यवहारों में वांछित परिवर्तन लाते हैं ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम सहज, सुलभ तथा सुविधापूर्ण होने के साथ ही साथ हमारी बौद्धिक क्षमताओं में वृद्धि करने वाला तथा व्यवहारों में परिमार्जन करने वाला है। इसलिए इसे छात्र, अध्यापक तथा अभिभावक सभी चाहते हैं।
( 2 ) अनुभवों की प्रभावी व्याख्या—विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम बालकों को न केवल तैयार अनुभव ही प्रदान करता है वरन् इन अनुभवों को समन्वित रूप भी प्रदान करता है। इससे उनकी व्याख्या करना सरल हो जाता है। वर्तमान अनुभव तभी सार्थक होते हैं जब उनको भूतकालीन, व्यक्तिगत तथा समूहगत अनुभवों से जोड़ दिया जाय। विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम अनुभवों को व्यवस्था देकर छात्रों के समय तथा श्रम में बचत करता है।
(3) बौद्धिक विकास में सहायक–विषय- केन्द्रित पाठ्यक्रम सरलता से छात्रों का बौद्धिक विकास कर पाता है। इसमें ज्ञानात्मक शक्तियों के विकास पर बल दिया जाता है।
विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम की कमियाँ–विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम में निम्नांकित कमियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं—
( 1 ) पुस्तकीय ज्ञान-विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम छात्रों को केवल पुस्तकीय तथा सैद्धान्तिक ज्ञान भर ही प्रदान कर पाते हैं। विषय- केन्द्रित पाठ्यक्रम में व्यावहारिक ज्ञान की उपेक्षा की जाती है। इस प्रकार ज्ञान जीवन को सफल बनाने के लिए अधिक उपयोगी नहीं होता है।
( 2 ) रटने पर बल इस प्रकार के पाठ्यक्रम में वही छात्र उत्तम माना जाता है जो अधिक-से-अधिक विषय-वस्तु को रट लेता है।
रटकर सीखा ज्ञान अस्पष्ट तथा अर्थहीन होता है। छात्र उसको अपने जीवन में प्रयोग करने में असफल रहता है।
( 3 ) संकीर्णता—विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम शिक्षा को संकीर्णता प्रदान करता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षा केवल कुछ विषयों के ज्ञान तक ही सीमित रह जाती है। यह शिक्षा को संकुचित अर्थ देता है। दूसरे, इसमें छात्र के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम से एकीकृत, समन्वित तथा सह-सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त करना कठिन होता है।
( 4 ) अमनोवैज्ञानिक – इस प्रकार का पाठ्यक्रम पूरी तरह अमनोवैज्ञानिक होता है ।
( 2 ) क्रिया – केन्द्रित पाठ्यक्रम-आज के मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाविदों ने क्रिया-केन्द्रित पाठ्यक्रम की पर्याप्त प्रशंसा की है। उनके अनुसार इस प्रकार का पाठ्यक्रम बच्चे की स्वाभाविक प्रकृति के अनुरूप होता है, क्योंकि क्रिया करना बालक का स्वाभाविक गुण है। बालक कोई-न-कोई क्रिया करता ही रहता है । वह शान्त तथा निष्क्रिय रूप में कठिनाई से ही बैठता है। बालक की इसी विशेषता के कारण जॉन डीवी, किलपैट्रिक, मारिया मान्टेसरी तथा फ्राबेल जैसे व्यावहारिक शिक्षाशास्त्रियों ने क्रिया-केन्द्रित पाठ्यक्रम को अपनी-अपनी शिक्षण प्रणालियों में अपनाया।
‘क्रिया- केन्द्रित’ पाठ्यक्रम की परिभाषा देते हुए जॉन डीवी लिखते हैं ‘‘क्रिया-केन्द्रित पाठ्यक्रम बालक की क्रियाओं की सतत् प्रवाहित होने वाली धारा है जिससे व्यवस्थित विषयों में कोई व्यवधान नहीं आता तथा जो बालकों की रुचियों तथा अनुभूत व्यक्तित्व आवश्यकताओं से उदित होती है। “
क्रिया- केन्द्रित पाठ्यक्रम के गुण– क्रिया – केन्द्रित पाठ्यक्रम के नीचे लिखे गुण या लाभ हैं—
(1) यह बालकों की मानसिक प्रवृत्तियों का पालन करता है ।
(2) यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
(3) छात्रों में मिलकर क्रिया करने की प्रवृत्ति का विकास होता है। इससे उनमें परस्पर सहयोग, सहानुभूति तथा सहिष्णुता की भावना विकसित होती है, जो अन्ततोगत्वा सामाजिक विकास के रूप में प्रकट होती है।
(4) छात्र शारीरिक श्रम के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करते हैं।
(5) छात्र भावी जीवन के लिए तैयार होते हैं। वे विभिन्न समस्याओं का समाधान करना सीख जाते हैं।
(6) इसमें बालक स्वयं क्रिया करके सीखता है। इससे बालक की कल्पना शक्ति तथा सृजनात्मकता में वृद्धि होती है।
(7) यह छात्रों को परीक्षण एवं खोज के लिए प्रोत्साहित करती है।
(8) यह छात्रों को आत्मानुभूति प्रदान करती है क्योंकि छात्र स्वयं करके वस्तु का निर्माण करते हैं। उनमें आत्म-गौरव विकसित होता है कि यह मैंने किया है।
(9) छात्रों में आत्म-विश्वास का विकास होता है।
(10) अनुशासनहीनता की समस्या समाप्त हो जाती है।
(11) सैद्धान्तिक ज्ञान प्रदान करने वाली पुस्तकों से काफी मात्रा में मुक्ति मिल जाती है।
क्रिया-केन्द्रित पाठ्यक्रम के दोष – क्रिया – केन्द्रित पाठ्यक्रम में उपर्युक्त गुणों के साथ ही साथ कुछ दोष या कमियाँ भी हैं, जैसे—
(1) सभी विषयों का समस्त ज्ञान केवल क्रियाओं के माध्यम से नहीं किया जा सकता है।
( 2 ) पूरे विद्यालय – समय को केवल क्रियाओं के माध्यम से गुजारना कठिन है। अर्थात् बालक के लिए यह असंभव है कि वह पूरे समय क्रिया ही करता रहे ।
(3) है कभी-कभी अति क्रियाशीलता की समस्या पाई जाती है।
(4) यह पूर्व – अनुभवों तथा समस्या की सांस्कृतिक धरोहरों का • समुचित लाभ नहीं उठा पाता।
( 3 ) अनुभव – केन्द्रित पाठ्यक्रम – ऐसा पाठ्यक्रम जो बालक के व्यक्तित्व का विकास अनुभवों को समृद्ध बनाकर करता है, अनुभवकेन्द्रित पाठ्यक्रम कहलाता है। एक लेखक ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है, “वह पाठ्यक्रम जो ज्ञान, अभिरुचियों, रुचियों तथा शलाध्य के समृद्ध तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव प्रदान करता है, अनुभव पाठ्यक्रम कहलाता है। “
सेलर तथा अलेक्जेंडर के अनुसार, “अनुभव – आधारित पाठ्यक्रम वह है जिसमें अधिगम अनुभव की इकाइयाँ छात्रों के द्वारा शिक्षक के निर्देशन में स्वयं चुनी तथा योजनाबद्ध की जाती हैं। “
अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम के गुण–अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम में निम्नांकित गुण स्पष्ट दिखाई देते हैं—
 (1) अनुभव – केन्द्रित पाठ्यक्रम अधिगम को तीव्रता एवं अधिकता प्रदान करता है क्योंकि अनुभव ही अधिगम का आधार है।
(2) इस प्रकार का पाठ्यक्रम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अपेक्षाकृत अधिक लाभदायक तथा प्रभावी होता है |
(3) अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करने में अपेक्षाकृत अधिक सफल रहता है।
(4) अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम बालक की रुचियों तथा अभिक्षमताओं से प्रत्यक्ष संबंध रखता है।
अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम के दोष अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम में हम नीचे लिखी कमियाँ देखते हैं
(1) अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम सुव्यवस्थित नहीं होता है। इसमें केवल अनुभवों पर ध्यान दिया जाता है इसलिए विषयवस्तु की व्यवस्था की उपेक्षा कर दी जाती है।
(2) अनुभव पहले से ही निश्चित नहीं किये जा सकते हैं। अनुभव तभी निश्चित किये जा सकते हैं जब क्रियाओं का निर्धारण हो जाये।
(3) इसमें क्रियाओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है। क्रियाओं को महत्त्व देने के कारण विषय-वस्तु पुनः उपेक्षित हो जाती है।
( 4 ) कार्य-आधारित पाठ्यक्रम कार्य-आधारित पाठ्यक्रम की यह नवीनतम अवधारणा है। इस धारणा के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये जिसमें कुछ सैद्धान्तिक विषय पढ़ने हेतु हों, कुछ क्रियाएँ हों तथा किसी एक केन्द्रीय कार्य पर आधारित हों। इसी अवधारण के आधार पर कोठारी आयोग (1966) ने अपने द्वारा प्रस्तुत पाठ्यक्रम में कार्यानुभव को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। कार्य-आधारित पाठ्यक्रम में विभिन्न विषयों, क्रियाओं तथा कार्य को इस प्रकार से व्यवस्थित तथा संगठित किया जाता है कि छात्र निर्धारित शैक्षिक साध्यों तथा लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें ।
कार्य-आधारित पाठ्यक्रम के दोष–कार्य-आधारित पाठ्यक्रम में हम कुछ कमियाँ भी पाते हैं; जैसे—
(1) इसकी व्यवस्था आर्थिक रूप से सम्पन्न विद्यालय ही कर सकते हैं।
(2) क्रियाशीलता के कारण सैद्धान्तिक विषयों की उपेक्षा हो जाती है।
(3) इसमें अति क्रियाशीलता का भी भय रहता है। (4) यह आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा करता है।
(5) यह शिक्षा के उच्च स्तरीय आदर्शों को गिरा देता है। इसके अनुसार शिक्षा केवल भौतिक उन्नति का साधन मात्र रह जाती है।
(6) यह पाठ्यक्रम सभी क्रियाओं को समान महत्त्व प्रदान नहीं कर पाता है।
कार्य-आधारित पाठ्यक्रम के गुण–कार्य आधारित पाठ्यक्रम में हम निम्नांकित गुण पाते हैं
(1) भावी जीवन की तैयारी कराता है।
(2) इसमें बालक शारीरिक श्रम एवं कार्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करता है।
(3) इससे सृजनात्मकता तथा रचनात्मकता का विकास सम्भव है।
(4) यह पाठ्यक्रम युवकों की बेरोजगारी की समस्या का समाधान करता है।
(5) यह बालक में सामाजिक एवं प्रजातांत्रिक गुणों का विकास करता है।
(6) यह पाठ्यक्रम अपेक्षाकृत अधिक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
(7) इसमें प्रयोगों पर अधिक बल दिया जाता है।
(8) यह विद्यालय को स्वावलम्बी तथा आत्मनिर्भर बनाता है।
(9) करके सीखने के कारण अर्जित ज्ञान स्थायी तथा अधिक प्रभावी होता है ।
(10) व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की आर्थिक उन्नति में सहायक है।
 (5) जीवन-केन्द्रित पाठ्यक्रम – शिक्षा को जीवन के लिए तैयारी माना जाता है। इसका तात्पर्य है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जो बालक में ऐसी योग्यताएँ तथा क्षमताएँ विकसित करें जो उसके भावी जीवन को सफल बना सके। बचपन में प्राप्त शिक्षा ऐसी हो जिसके आधार पर वह अपने प्रौढ़ जीवन की विविध समस्याओं का समाधान कर सके। शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा हो जो बालक में स्वावलम्बन विकसित कर सके, जो बालक में सामाजिक गुणों का विकास कर सके तथा प्रजातंत्र के लिए वांछित गुणों का विकास कर सके। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा हो जो बालक को जीवन के लिए तैयार कर सके। ऐसा पाठ्यक्रम जो बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करता है जीवन-केन्द्रित पाठ्यक्रम कहलाता है।
जीवन-केन्द्रित पाठ्यक्रम के सिद्धान्त – जीवन केन्द्रित पाठ्यक्रम निम्नांकित सिद्धान्तों पर आधारित होता है—
(1) सामाजिकता का सिद्धान्त–बालक को अपना सारा जीवन समुदाय तथा समाज में ही व्यतीत करना है। अतः बालक में सामाजिक दक्षता का विकास करना आवश्यक होता है जिससे बालक स्वस्थ सामाजिक जीवन व्यतीत कर सके । अतः जीवन-केन्द्रित पाठ्यक्रम ऐसा हो जो बालकों में सामाजिक दक्षता का विकास कर सके।
( 2 ) समन्वय का सिद्धान्त — पाठ्यक्रम में जो भी विषय रखे जायें वे एकीकृत तथा सह-सम्बन्धित हों। जीवन एक एकीकृत इकाई है अतः शिक्षा भी एकीकृत होनी चाहिये। इसके लिए आवश्यक है कि विषय-वस्तु विभिन्न खण्डों में प्रस्तुत न करके एकीकृत रूप में प्रस्तुत की जाय।
( 3 ) लोच का सिद्धान्त — जीवन केन्द्रित पाठ्यक्रम में लोच होनी चाहिए जिससे आवश्यकता पड़ने पर उसे सुविधापूर्वक परिवर्तित किया जा सके।
( 4 ) उपयोगिता का सिद्धान्त—जीवन केन्द्रित पाठ्यक्रम छात्रजीवन के लिए उपयोगी होता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में केवल ऐसे तत्त्व एवं विषय-वस्तु को ही शामिल किया जाता है जो जीवन के लिए उपयोगी होते हैं।
(5) विविधता का सिद्धान्त—जीवन से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में विविधता होनी चाहिये जिससे बालक अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के अनुसार पाठ्य-वस्तु का चयन कर सकें। पाठ्यक्रम जितना व्यापक एवं विविधतापूर्ण होगा, वह व्यक्तिगत विभिन्नताओं के सिद्धान्त का उतना ही अधिक पालन करेगा।
( 6 ) बाल केन्द्रितता का सिद्धान्त—जीवन-केन्द्रित पाठ्यक्रम बाल केन्द्रित भी होता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों, योग्यताओं, दक्षताओं एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं।
( 7 ) भावी जीवन का सिद्धान्त — इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये जो बालकों को भावी जीवन के लिए तैयार कर सके। पाठ्यक्रम बालक को ऐसी शिक्षा दे तथा उसमें ऐसे गुणों का विकास करे जिससे वह अपने प्रौढ़ जीवन में स्वयं का समाज का तथा राष्ट्र का अधिक-से-अधिक कल्याण कर सके।
(8) क्रियाशीलता का सिद्धान्त–जीवन से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में छात्र क्रियाओं की पर्याप्त व्यवस्था होती है। क्रियाओं के माध्यम से बालक करके सीखता है और स्वयं करके सीखा हुआ ज्ञान न केवल अधिक प्रभावी ही होता है वरन् व्यावहारिक भी होता है।
( 6 ) कोर पाठ्यक्रम — जेम्स ली कोर पाठ्यक्रम की परिभाषा देते हुए लिखते हैं, “कोर पाठ्यक्रम वह है जो व्यक्तिगत तथा शाश्वत दोनों ही प्रकार के हितों से सम्बन्धित अन्तःक्षेत्रीय समस्याओं में केन्द्रित होता है। इसमें विषय-वस्तु को विचाराधीन समस्या के समाधान के लिए आवश्यक होने के नाते सीखने के लिए स्थान प्रदान किया जाता है। “
अलबर्टी ने कोर पाठ्यक्रम को परिभाषित करते हुए लिखा है, “कोर पाठ्यक्रम उस समग्र पाठ्यक्रम का एक अंग माना जा सकता है
जो सभी छात्रों के लिए आधारभूत है तथा जिसमें सीखने की उन क्रियाओं का समावेश रहता है, जिनका संगठन परम्परागत विषयों से पृथक रखकर
कोर पाठ्यक्रम इस बात पर बल देता है कि विद्यालय और अधिक सामाजिक दायित्वों को ग्रहण करें तथा सामाजिक रूप से कुशल नागरिकों का निर्माण करें।
कोर पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे विषय रखे जाते हैं जिनका अध्ययन करना सभी छात्रों के लिए अनिवार्य होता है। ये विषय ऐसे होते हैं जो छात्रों में सामाजिक तथा व्यक्तिगत क्षमताओं का एक सीमा तक विकास कर सके। सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन की सफलता के लिए इन विषयों का एक निश्चित तथा न्यूनतम स्तर तथा ज्ञान आवश्यक समझा जाता है।
कोर पाठ्यक्रम में हम निम्नांकित विशेषताएँ पाते हैं—
(1) इसमें कुछ विषयों का अनिवार्य रूप से प्रत्येक छात्र को अध्ययन करना पड़ता है। ये अनिवार्य विषय कहलाते हैं।
(2) इसमें व्यापकता तथा विविधता होती है। वैकल्पिक विषयों की बहुत बड़ी सूची होती है जो इसकी व्यापकता एवं विविधता दर्शाती है।
(3) व्यक्तिगत तथा सामाजिक दक्षता पर बल देता है।
(4) अनिवार्यता के साथ-साथ स्वतंत्रता भी होती है। कुछ विषयों का चयन करने के लिए बालक पूर्णतः स्वतंत्र होता है।
(5) वैयक्तिक विभिन्नताओं का ध्यान रखा जाता है इससे यह बाल केन्द्रित बन जाता है।
(6) कुछ विषय वैकल्पिक होते हैं। छात्र इनका चयन अपनी रुचि तथा क्षमताओं के अनुसार करते हैं।
(7) इसमें विषयों का यथासम्भव समन्वय किया जाता है। चेष्टा की जाती है कि जहाँ तक सम्भव हो विषय पृथक्पृथक् न पढ़ाये जायें। यही कारण है कि इसमें हम सामान्य विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान जैसे समन्वित विषय पाते
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