पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में जॉन डीवी के विचारों का उल्लेख कीजिए ।
पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में जॉन डीवी के विचारों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— डीवी के अनुसार पाठ्यक्रम–डीवी तत्कालीन प्रचलित पाठ्यक्रम को बालक एवं समाज की दृष्टि से स्तरहीन एवं निरर्थक मानते थे। डीवी ने लिखा है “हम बालक को यकायक पढ़ने, लिखने, भूगोल आदि अनेक विशिष्ट विषयों से परिचित कराकर, उसके स्वभाव के प्रतिकूल कार्य करते हैं।” डीवी बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम पर बल देते हैं । उनका मानना है कि पाठ्यक्रम के विषयों एवं क्रियाओं का बालक के अनुभवों, समस्याओं आदि से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए। इस दृष्टि से डीवी ने पाठ्यक्रम के निम्नांकित सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है—
(1) उपयोगिता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम की विषय-वस्तु एवं क्रियाएँ बालक की आवश्यकताओं पर आधारित हों, उसके लिए उपयोगी हों।
(2) जीवन-संबद्धता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम बालक के वास्तविक सामाजिक जीवन से संबद्ध हो ।
(3) रुचि का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम बालक की रुचियों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए, जिसमें बालक का स्वाभाविक विकास हो सके ।
(4) अनुभव एवं योग्यता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम की रचना बालक के अनुभवों, योग्यताओं, प्रवृत्तियों आदि को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए।
(5) लचीलेपन का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम कठोर न होकर लचीला होना चाहिए जिससे विभिन्न योग्यताओं एवं प्रवृत्तियों वाले बालकों को इसके द्वारा विकास का अवसर मिल सके। स्थान, समय एवं शिक्षार्थी आदि की दृष्टि से भी लचीलापन आवश्यक है।
(6) भावी जीवन से संबद्धता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम भविष्योन्मुखी भी हो, वर्तमान तक सिमटकर न रह जाए क्योंकि शिक्षा का लक्ष्य बालक का विकास है। अतः उसके भावी जीवन को ध्यान में रखकर ही इसे तैयार किया जाना चाहिए।
(7) सहयोग एवं उत्तरदायित्व विकास का सिद्धान्त—डीवी के अनुसार शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है और सामाजिक प्रक्रिया का तब तक निर्वहन नहीं होता जब तक परस्पर सहयोग न हो, हम अपने दायित्व को न समझें। अतः आवश्यक है कि पाठ्यक्रम की संरचना के समय, इन सामाजिक गुणों के विकास के लिए विषय-वस्तु एवं विशेष रूप से क्रिया-कलापों के समावेश का ध्यान रखा जाए।
(8) रचनात्मक एवं उत्पादकता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम सैद्धान्तिक न होकर रचनात्मक एवं उत्पादक कार्यों पर आधारित हो । रचनात्मक क्रियाकलापों पर आधारित हो ।
(9) बौद्धिक, भावात्मक, नैतिक एवं सामाजिक विकासोन्मुखता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम बालक के बौद्धिक, भावात्मक, नैतिक तथा सामाजिक विकास के लिए हो । यह प्रचलित पाठ्यक्रम की तरह ज्ञानात्मक विकास तक ही सीमित नहीं रहे।
(10) सहसंबद्धता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम के विभिन्न विषय एवं क्रियाकलाप एक-दूसरे से सहसम्बद्ध हों। अलग-अलग, विखण्डित रूप में न हो। इनको विभाजित रूप में नहीं प्रस्तुत किया जाए।
(11) व्यापकता का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम बालक के वर्तमान जीवन के विभिन्न पक्षों- यथा-व्यावसायिक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक से सम्बन्धित हो। उसमें एकांगीपन न हो।
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