पाठ्यक्रम विकास एवं क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका और समर्थन का वर्णन कीजिए।
पाठ्यक्रम विकास एवं क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका और समर्थन का वर्णन कीजिए।
उत्तर–पाठ्यचर्या निर्माण प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिकाजॉन ई केर ने पाठ्यचर्या के चार प्रमुख अंग बताये हैं, जो परस्पर पूर्ण रूप से संबंधित हैं
(1) पाठ्यचर्या के उद्देश्य,
(2) ज्ञान,
(3) सीखने के अनुभव,
(4) मूल्यांकन ।
इन सभी अंगों पर ध्यान देने पर ज्ञात होता है कि एक शिक्षक सीधे तौर पर पाठ्यचर्या से संबंधित होता है। पाठ्यचर्या उद्देश्यों के अनुरूप ही विषयवस्तु का चयन किया जाता है जिसके लिए प्राप्य उद्देश्यों का निर्माण शिक्षक द्वारा किया जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण के लिए उद्देश्य निर्धारण के समय शिक्षकों से सुझाव आमंत्रित कर एक व्यावहारिक • दृष्टिकोण वाले पाठ्यचर्या निर्माण की नींव रखी जा सकती है। शिक्षक सीधे तौर पर बालकों से जुड़ा होता है अतः वह उनके मनोविज्ञान को भी अच्छे से समझता है। एक शिक्षक के इस अनुभव का प्रयोग कर पाठ्यचर्या के लिए विषयवस्तु का चयन करना अधिक हितकारी सिद्ध हो सकता है। सीखने के अनुभवों को पाठ्यचर्या का अभिन्न अंग माना जाता है। इन सीखने के अनुभवों का संगठन एवं आयोजन कक्षा-कक्ष शिक्षण में शिक्षक करता है। शिक्षक पाठ्यवस्तु के अनुरूप सीखने के अनुभवों को क्रमबद्ध एवं नियोजित करने का कार्य करता है। शिक्षक ही सीखने के अनुभवों एवं प्रक्रिया के विविध सोपानों यथा—अभिप्रेरणा, पुनर्बलन, संभावित अनुक्रियाएँ इत्यादि का निर्धारक होता है। अधिगम एक सतत् व्यापक एवं जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। अधिगम एक साथ नहीं हो जाता है वरन् इसके लिए विभिन्न अनुभवों को एकत्रित करना पड़ता है। इन सबके साथ-साथ शिक्षक अभिप्रेरणा की ‘प्रविधियों का चयन एवं प्रयोग कक्षा स्तर, छात्रों की आवश्यकताओं, सीखने के उद्देश्यों एवं स्वरूप आदि को ध्यान में रखकर करता है। मिल्टन के अनुसार—”यदि छात्रों को अभिप्रेरणा प्रदान की जाये तो अधिगम सर्वोत्तम होगा।”
पाठ्यचर्या का अंतिम एवं महत्त्वपूर्ण अंग मूल्यांकन है। सम्पूर्ण पाठ्यचर्या का मूल्यांकन एक दुष्कर कार्य है परन्तु प्रत्येक विषयवस्तु का समय-समय पर विविध प्रविधियों द्वारा मूल्यांकन करना एक शिक्षक का प्रमुख दायित्व है। विषयवस्तु की प्रकृति के एवं छात्रों के स्तरानुरूप एक शिक्षक मूल्यांकन प्रविधियों का चयन कर छात्रों की उपलब्धियों का आकलन करता है।
इस प्रकार पाठ्यचर्या के प्रत्येक अंग में शिक्षक की पूर्ण भागीदारी हो सकती है। पाठ्यचर्या निर्माण की विविध अवस्थाएँ/ प्रक्रियाएँ निम्न प्रकार हैं
(1) पाठ्यचर्या उद्देश्यों का चयन।
(2) उद्देश्य चयन के बाद अनुकूल विषयवस्तु का चयन एवं व्यवस्थापन ।
(3) उद्देश्यों एवं विषयवस्तु की दृष्टि से सीखने के अनुभव की व्यवस्था करना ।
(4) अंत में पाठ्यचर्या के उद्देश्य, विषय-वस्तु तथा सीखने के अनुभवों को ध्यान में रखकर मूल्यांकन करना ।
(5) मूल्यांकन द्वारा पाठ्यचर्या के उद्देश्यों में, सीखने के अनुभवों में तथा मूल्यांकन प्रक्रिया में सुधार इत्यादि सभी में शिक्षकों के सुझाव आमंत्रित किए जाने चाहिए। ऐसा करने पर पाठ्यचर्या प्रभावशाली एवं पूर्ण समझा जा सकता है।
शिक्षकों का योगदान शिक्षा पद्धति की कुशलता शिक्षकों की योग्यता पर निर्भर है। अच्छे शिक्षकों के अभाव में सर्वोत्तम शिक्षा पद्धति भी अवश्यम्भावी रूप से असफल हो सकती है। अच्छे शिक्षकों द्वारा शिक्षा-पद्धति के दोषों को भी अधिकांशतः दूर किया जा सकता है। शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है, शिक्षक का स्थान समाज एवं विद्यालय में महत्त्वपूर्ण है। शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में शिक्षकों की अवहेलना करना हानिकारक ही सिद्ध होता है। अध्यापकों के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं
(1) बच्चों के चरित्र का निर्माण।
(2) प्रभावशाली ढंग से शिक्षण।
(3) बच्चों का व्यावसायिक विकास।
(4) पाठ्यचर्या का विकास एवं सुधार करना। (5) राष्ट्रीय भावों को भरना ।
(6) विद्यालय को प्रभावशाली बनाना।
इस प्रकार पाठ्यचर्या का विकास एवं सुधार करना शिक्षक के प्रमुख कार्यों के अन्तर्गत आता है। परन्तु इस कार्य हेतु एक शिक्षक को व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है। जब तक शिक्षक स्वायत्तता के आधार या मापदण्ड परिभाषित नहीं किए जाते तब तक शिक्षक स्वायत्तता के अभाव में, शिक्षकों के नये दायित्व अनुभव नहीं किए जा सकते। पाठ्यचर्या निर्माण में शिक्षकों का योगदान होना अनिवार्य है परन्तु यह कार्य प्रशासकों के सहयोग के अभाव में पूर्ण नहीं हो सकता है। पाठ्यचर्या निर्माण का कार्य व्यक्तिगत लोच तथा सामूहिक एकता के बिना शिक्षक द्वारा संपादित नहीं हो सकता। निर्णय लेने की क्षमता का अधिकार शिक्षकों को प्रदान करके ही शिक्षकों को उनके इस नये उत्तरदायित्व के प्रति तैयार किया जा सकता है।
पाठ्यचर्या संपादन में शिक्षक की भूमिका–पाठ्यचर्या अनुरूप सार्थक एवं क्रमबद्ध अध्यापन करने के लिए शिक्षक एक सशक्त माध्यम के रूप में कार्य करता है। सामान्य रूप से शिक्षण करते समय अनेक अवसरों पर शिक्षक निर्धारित विषय से पृथक् हटकर चर्चा में उलझ जाते हैं जिसका विषय से कोई संबंध नहीं होता परन्तु एक योग्य शिक्षक जब यह अनुभव करता है कि वह विषय से पृथक् हो गया है तो ऐसी स्थिति से तुरन्त बाहर आते हुए, वह छात्रों को स्वयं निर्देशन प्रदान करता हुआ अपने विषय पर आने का प्रयत्न करता है। अधिगम प्रक्रिया में भी शिक्षक की भूमिका उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि अध्यापन में कोई पाठ्यचर्या एवं उसके उद्देश्य, बिना शिक्षक के पूर्ण नहीं हो सकते।
शिक्षण में पाठ्यचर्यानुसार अध्ययन अध्यापन संस्थितियाँ विकसित करने में शिक्षक की भूमिका का महत्त्व निम्न बिन्दुओं द्वारा प्रस्तुत है— (
(1) शिक्षार्थियों के स्तरानुकूल विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण ।
(2) शिक्षण व्यूह रचनाओं का निर्धारण ।
(3) क्रमबद्ध शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का आयोजन ।
(4) नवीन शिक्षण विधियों का समावेशन । –
(5) शिक्षण सूत्रों का प्रयोग
(6) आवश्यकता की पहचान ।
(7) अधिगम अनुभवों का समावेश तथा संगठन
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