पाठ्यचर्या विकास की नवीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
पाठ्यचर्या विकास की नवीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
उत्तर–पाठ्यचर्या विकास की नवीन प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं—
(1) पाठ्यचर्या को अधिक व्यापक बनाना—आज मनुष्य की ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। शिक्षा अनेक स्तरों में बँटी हुई है; जैसे—प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, प्राविधिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, नारी शिक्षा, विशिष्ट बालकों की शिक्षा आदि। शिक्षा के अन्य विषयों के साथ भी सम्बन्ध बढ़ते जा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा की अनेक शाखाओं का जन्म हुआ है। उदाहरण के लिये, शिक्षा का समाजशास्त्र, शिक्षा दर्शन, शिक्षा मनोविज्ञान, शैक्षिक तकनीकी शिक्षा की योजना व अर्थशास्त्र आदि। इन सभी के परिणामस्वरूप पाठ्यचर्या को अधिक व्यापक व विस्तृत बनाने की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा है। उपर्युक्त वर्णित शिक्षा की विभिन्न शाखाओं के अन्तर्गत हमें दो विषयों के परस्पर सम्बन्ध एवं दोनों से सम्बन्धित अनेक तथ्यों की जानकारी होती है। शिक्षा के विभिन्न स्तरों में भी नये-नये प्रयोग करके पाठ्यचर्या को विकसित किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, सामाजिक अध्ययन एक विषय है जिसमें हमें इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र व अर्थशास्त्र चारों विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है। विज्ञान एक अकेला विषय है पर इसमें एक साथ ही रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान आदि अनेक शाखाओं का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। तकनीकी प्रभावों के कारण कम्प्यूटर शिक्षा का प्रचलन बढ़ रहा है। पर्यावरण शिक्षा एक अनिवार्य विषय बन चुका है। आज अंतरिक्ष विज्ञान जैसे विषय की भी पाठ्यचर्या में आने की प्रबल संभावना है। इस प्रकार पाठ्यचर्या को अधिकाधिक विस्तृत व व्यापक बनाने पर बल दिया जा रहा है।
(2) अधिगम प्रक्रिया में परिवर्तन आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान के बढ़ते प्रभाव के फलस्वरूप सम्पूर्ण अधिगम की अवधारणा में ही परिवर्तन आ चुका है। अधिगम-शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया बालक को केन्द्र में रखकर पूर्ण की जाती है। पाठशालायें, अध्यापक, पाठ्यचर्या, परीक्षा, पाठ्यपुस्तकें आदि बालक के विकास का साधन मानी जाती हैं। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के सिद्धान्त के आधार पर बालकों की रुचि, अभियोग्यता व क्षमताओं को ध्यान में रखकर ही शिक्षा देने का सक्रिय प्रयास किया जाता है। वर्तमान समय में इस बात का प्रयास किया जाता है कि बालक ज्ञान को ऊपर से लादा हुआ अनुभव न करें । इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हुए बालक को स्व-अनुभव द्वारा ज्ञानार्जन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। बालकों के अधिगम हेतु पाठ्य सहगामी क्रियाओं पर बल दिया जा रहा है। बालकों के सर्वांगीण विकास हेतु विद्यालयों में सांस्कृतिक-साहित्यिक कार्यक्रम, वाद-विवाद प्रतियोगिता, नाटक, खेलकूद आदि का आयोजन किया जाता है। नवीन दृष्टिकोण के अनुसार बालकों को क्रिया द्वारा तथा खेल द्वारा शिक्षा प्रदान करने पर बल दिया जाता है। माण्टेसरी शिक्षा पद्धति, डाल्टन शिक्षा पद्धति, किण्डरगार्टेन शिक्षा पद्धति व प्रोजेक्ट शिक्षा पद्धति का आविष्कार खेल शिक्षा के माध्यम से ही हुआ है। इसके साथ ही बालकों के अधिगम हेतु अनेक शिक्षण व्यूह रचनाओं का प्रयोग किया जा रहा है। बालक अनेक शैक्षिक उपकरणों की सहायता से भी उदाहरण के लिए चलचित्र, रेडियो, टेलीविजन, ग्रामोफोन, लिंग्वाफोन, एपीडायस्कोप (चित्र विस्तारक यंत्र), जादू की लालटेन, टेपरिकार्डर, स्लाइड, फिल्म स्ट्रिप्स, प्रोजेक्टर, शिक्षण मशीन तथा कम्प्यूटर व मोबाइल आदि । इन सभी ने पाठ्यचर्या विकास की अधिगम प्रक्रिया में क्रान्ति लाकर नवीन प्रवृत्ति को जन्म दिया है ।
( 3 ) भविष्य पर विशेष दृष्टि—आज पाठ्यचर्या का निर्माण व विकास आज की आवश्यकताओं के अनुसार तो किया ही जाता है, ही बालक के भावी जीवन व भविष्य को भी ध्यान में रखा जाता है। शिक्षाविदों व शिक्षाशास्त्रियों की आने वाले कल पर विशेष दृष्टि है। वे यह समझना चाहते हैं कि कल समाज व राष्ट्र का परिदृश्य कैसा होगा । वे उस अनुमानित परिदृश्य के अनुसार ही शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयास करते हैं। शिक्षा भविष्योन्मुख होती है। अतः हमें भी भविष्य पर विशेष दृष्टि रखकर नये मार्गों व वर्तमान शिक्षा की समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयत्न करना चाहिए। शिक्षाविदों ने भविष्य के परिदृश्य का जो अनुमान लगाया है उसके अनुसार बालक में आत्मनिर्भरता होना एक आवश्यक गुण है। इसीलिये वर्तमान पाठ्यचर्या में सूचनात्मक ज्ञान की अपेक्षा ज्ञानार्जन एवं अधिगम पर अधिकाधिक बल दिया जा रहा है । विभिन्न विषयों का पाठ्यचर्या भी इसी दृष्टि से निर्मित किया जा रहा है कि वह आने वाले कल में उपयोगी सिद्ध हो सके। इसके लिए ही नवीन एवं परिमार्जित शिक्षण विधियाँ भी विकसित की जा रही हैं । भविष्य पर रखी जाने वाली यह दृष्टि पाठ्यचर्या विकास में एक नवीन प्रवृत्ति के रूप में सामने आ रही है।
(4) विभिन्न व्यक्तियों एवं वर्गों की बढ़ती रुचि एवं अधिकाधिक सहभागिता–पाठ्यचर्या विकास की एक नवीन प्रवृत्ति है— लोगों की पाठ्यचर्या विकास में उत्तरोत्तर बढ़ती रुचि एवं सहभागिता । साधारणतया पाठ्यचर्या विकास से सम्बन्धित कार्य विषय विशेषज्ञ, शिक्षा परिषद् तथा राज्य-पाठ्यचर्या समिति का होता है, परन्तु आज इस कार्य में अन्य विभिन्न वर्गों व लोगों की रुचि व हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। आज पाठ्यचर्या विकास में छात्र, अभिभावक, जन सामान्य, समाजशास्त्री, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, साहित्यकार, धार्मिक नेता, वैज्ञानिक, प्रकाशक आदि भी बढ़-चढ़कर योगदान कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त श्रमिक संगठन, व्यवसायी, उद्योगपति, कृषक वर्ग और यहाँ तक कि शिक्षण सहायक सामग्री के निर्माता तथा खेलं सामग्री व उपकरणों के निर्माता भी पाठ्यचर्या विकास को प्रभावित करने लगे हैं। ये शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता का ही परिणाम है कि ये सभी किसी न किसी रूप में पाठ्यचर्या विकास में रुचि प्रदर्शित कर रहे हैं। अन्य सभी के अतिरिक्त राज्य सरकार व केन्द्र सरकार जो प्रायः शैक्षिक विकास के प्रति उदासीन रहते हैं, भी शिक्षा के प्रति विकासात्मक रवैया अपना कर पाठ्यचर्या विकास की प्रक्रिया में अपने विचार व्यक्त कर रही हैं।
( 5 ) पाठ्यचर्या विकास केन्द्रीय प्रभाव की वृद्धि भारतीय संविधान में पहले शिक्षा को राज्य सूची में रखा गया था, परन्तु बाद में इसे समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया। इसी के परिणामस्वरूप अब शिक्षा व पाठ्यचर्या पर केन्द्रीय नियन्त्रण अधिक हो गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण भी शिक्षा में बढ़ते केन्द्रीय नियंत्रण का ही परिणाम है। शिक्षा एवं पाठ्यचर्या पर केन्द्रीय प्रभाव भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी देखा जा सकता है। अमेरिका व ब्रिटेन जैसे देशों में, जहाँ पर स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है, भी विभिन्न अधिनियमों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्रीय नियंत्रण में वृद्धि होती जा रही है। इस प्रकार पाठ्यचर्या विकास में केन्द्रीय नियंत्रण की वृद्धि स्पष्ट दिखाई देती है।
(6) शिक्षा में व्यवसायीकरण—–आधुनिक युग में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में बालक का व्यावसायिक विकास करना भी सम्मिलित हो चुका है। यह शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह बालक को आत्मनिर्भर होना सिखाये तथा उसे इस योग्य बना सके कि वह अपना जीविकोपार्जन कर सके। आज पाठ्यचर्या में भी व्यवसायिक शिक्षा को महत्त्व दिया जाने लगा है। गाँधीजी की आधारभूत शिक्षा के अनुसार बालकों को हस्तकला का प्रशिक्षण देना भी आज शिक्षा का एक अंग बन चुका है। इसके साथ बालकों को तकनीकी एवं प्रौद्योगिक शिक्षा भी इसलिए प्रदान की जाती है ताकि बालक व्यावसायिक दृष्टि से सक्षम बन सके। शिक्षा की एक नवीन शाखा शैक्षिक अर्थशास्त्र के अनुसार ‘शिक्षा एक निवेश है’ है। इसका तात्पर्य भी यही है कि शिक्षा प्राप्त करने पर जो व्यय किया जाता है शिक्षा प्राप्त करने के बाद बालक आजीवन उससे कई गुणा अर्जित करने के योग्य बन जाता है। इस धारणा से भी शिक्षा के व्यावसायीकरण को बढ़ावा मिला है।
( 7 ) पाठ्यचर्या की बोझिलता को कम करना–पाठ्यचर्या विकास की प्रक्रिया के दौरान एक और ध्यान में रखी जाने वाली बात है कि बालकों पर पाठ्यचर्या का बोझ न पड़े। दूसरे शब्दों में बालक हर उस ज्ञान को प्राप्त करे जो उसके लिए आवश्यक है परन्तु फिर भी उसे एक बोझिल पाठ्यचर्या का सामना न करना पड़े।
वर्तमान समय में पाठ्यचर्या की बोझिलता को कम करने के लिए किये जाने वाले प्रयास निम्नलिखित हैं—
(i) पाठ्यचर्या में लचीलापन–प्रायः पाठ्यचर्या की अध्ययन वस्तु, शिक्षा के स्तर एवं शिक्षण विधियों में एकरूपता लाने की दृष्टि से पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है। परन्तु यह पाठ्यचर्या अत्यन्त कठोर हो जाती है जबकि एक आदर्श पाठ्यचर्या में लचीलापन होना अत्यन्त आवश्यक है। पाठ्यचर्या में लचीलापन लाने के लिए दो उपाय किये जाते हैं। पहला है आंशिक उपागम। इसके अन्तर्गत पाठ्य विषय का समपूर्ण अध्ययन न करके मात्र उन्हीं अंशों का अध्ययन किया जाता है जो बालकों तथा समाज की आवश्यकता पूर्ति में सहयोग करें। अर्थात् आवश्यक एवं उपयोगी अंशों मात्र का अध्ययन ही आंशिक उपागम कहलाता है। दूसरा उपागम संयुक्त उपागम कहलाता है। इसके अन्तर्गत पाठ्यचर्या को विषयों के स्थान पर शिक्षण इकाइयों में व्यवस्थित किया जाता है तथा उनका शिक्षण तार्किक व मनोवैज्ञानिक क्रम के अनुसार किया जाता है। इन दोनों उपागमों का प्रयोग पाठ्यचर्या में लचीलापन लाने के लिए किया जा रहा है। N.C.E.R.T. ने भी अपने दस वर्षीय पाठ्यचर्या हेतु इन उपागमों को अपनाने की सिफारिश की है। इससे इनकी महत्ता स्वयं स्पष्ट हो जाती है।
(ii) विषयों का सम्मिश्रण—इसके अन्तर्गत विषयों की संख्या को कम करने के लिए एक समान धारा के विभिन्न विषयों को मिलाकर. एक विषय के रूप में ही पढ़ाया जाता है। उदाहरण के लिए विज्ञान के अन्तर्गत भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान व जीव विज्ञान तीनों विज्ञानों को पढ़ाया जाता है तथा सामाजिक अध्ययन में इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र व नागरिक शास्त्र को एक साथ मिलाकर पढ़ाया जाता है।
(iii) शीघ्रतर विभिन्नीकरण एवं चयन— इसके अन्तर्गत पाठ्य विषयों को दो भागों अनिवार्य एवं ऐच्छिक में रखा जाता है तथा बालकों को इनके चयन की स्वतन्त्रता होती है। अनिवार्य विषय सभी छात्रों के लिए उपयोगी होते हैं तथा उनका अध्ययन सभी के लिए आवश्यक व अनिवार्य होता है। जबकि ऐच्छिक विषय विभिन्न विषयों का समूह होता है। इन विषयों को बालक अपनी योग्यता, रुचि व इच्छानुसार चयन कर सकता है। शीघ्रतर विशिष्टीकरण एवं चयन के माध्यम से पाठ्यचर्या का बोझ तो कम होता ही है, बालक अपनी रुचियों के अनुसार शिक्षा प्राप्त करके जीवन में सफलता भी प्राप्त करते हैं । माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने भी भारतीय माध्यमिक शिक्षा में विभिन्नीकरण का प्रयोग किया है। इसमें बालकों को कक्षा नौ में आने पर कुछ अनिवार्य विषय सामूहिक रूप से लेने होंगे तथा ऐच्छिक विषय जिनको डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदलियर ने सात वर्गों में बाँटा है, में से तीन-तीन विषय प्रत्येक बालक को अपनी रुचि व योग्यता के अनुसार लेने होंगे।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पाठ्यचर्या विकास में अनेक नई प्रवृत्तियों का समावेश हो चुका है। इन सभी प्रवृत्तियों का उद्देश्य बालकों का सर्वांगीण विकास करना है।
(iv) नवाचारों को अपनाना–शिक्षा में नवाचारों को आज तीव्रता से अपनाया जा रहा है। इसके माध्यम से पाठ्यचर्या को सरलता से समझा जा रहा है व पाठ्यचर्या बालकों के लिए बोझ न होकर एक ज्ञानवर्द्धन को वस्तु है। पाठ्यचर्या में शिक्षण मशीन, टेप, वीडियो, फिल्म, रेडियो, दूरदर्शन, जादू की लालटेन, ओवर हेड प्रोजेक्टर जैसी विकसित मशीनों के साथ ही शिक्षण की उच्च प्रविधियों पर भी बल दिया जा रहा है; जैसे—पाठ्य-वस्तु विश्लेषण विधि, अभिक्रमित अनुदेशन, समूह शिक्षण, विचार-विमर्श प्रविधि, ट्यूटोरियल विधि, सम्मेलन प्रविधि, वार्तालाप विधि आदि ।
(8) तकनीकी, व्यावसायिक एवं सामान्य विषयों का संतुलित समावेश —शिक्षा में तकनीकी व व्यावसायिक विषयों का उद्देश्य बालकों को वर्तमान गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में आत्मनिर्भर बनना सिखाना है। वैज्ञानिक व तकनीकी प्रभाव ने व्यक्तियों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बना दिया है। उनको प्रवृत्ति भी वैज्ञानिक बन रही है। लोगों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सार्थकता प्राप्त करने के लिए विज्ञान एवं तकनीकी सिद्धान्तों और निष्कर्षों को मूर्त रूप देना प्रारम्भ कर दिया है। इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न तकनीकियों, इन्जीनियरिंग, प्राकृतिक विज्ञान, व्यावहारिक विज्ञान तथा अन्य तकनीकियों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। व्यावसायिक शिक्षा भी बालकों की धनार्जन की क्षमता का विकास करने के उद्देश्य से दी जाती है। हालांकि व्यावसायिक व प्राविधिक शिक्षा के अनेक लाभ हैं परन्तु यह सामान्य व उदार शिक्षा के उद्देश्यों की उपेक्षा करता है। यह शिक्षा बालक को व्यावसायिक व व्यावहारिक दृष्टि से तो सक्षम बनाती है परन्तु बालक में मानवीय गुणों के विकास पर बल नहीं देती। यह बालक के नैतिक व चारित्रिक विकास की भी उपेक्षा करती है। दूसरी ओर सामान्य शिक्षा बालक में सामाजिक व सांस्कृतिक गुणों का विकास करती है परन्तु जीवनयापन की योग्यता का विकास करने में अक्षम होती है। इसीलिए वर्तमान पाठ्यचर्या में सामान्य शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के संतुलित समावेश पर बल दिया जा रहा है। इन तीनों प्रकार की शिक्षा का समन्वय करके बालकों में इन तीनों के अपेक्षित गुण लाने के प्रयास भी पाठ्यचर्या विकास की नवीनतम प्रवृत्ति है।
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