पाठ्यचर्या विकास के प्रतिमानों से आप क्या समझते

पाठ्यचर्या विकास के प्रतिमानों से आप क्या समझते

अथवा

“पाठ्यक्रम विकास प्रतिमानों” से आपका क्या अभिप्राय है? “हिल्दा टाबा” प्रतिमान का वर्णन कीजिये।
अथवा
हिल्दा टाबा के पाठ्यक्रम विकास के प्रतिमान की परिचर्चा  करें।
अथवा
हिन्दा टाबा प्रतिमान की व्याख्या कीजिये ।
अथवा
हिल्दा टाबा मॉडल के गुण/ विशेषताओं को लिखिये।
उत्तर–पाठ्यक्रम विकास के प्रतिमान को हम निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं—किसी भी प्रत्यय, अवधारणा, सम्बन्ध, संरचना, प्रणाली या घटना आदि का सरलीकृत संस्करण अथवा चित्रमय, गणितीय (प्रतीकात्मक) भौतिक अथवा शाब्दिक प्रस्तुतीकरण करना ही मॉडल/ प्रतिमान कहलाता है। प्रतिमान (मॉडल), जटिल प्रत्ययों से सम्बद्ध अनावश्यक घटकों/तत्त्वों को हटाकर, हमारी समझ को सुगम बना देता है।
मॉडल केवल उन्हीं विशेषताओं एवं बिन्दुओं को केन्द्र में रखता है जो कि उस प्रतिमान के निर्माणकर्त्ता के लिये प्राथमिक रूप से महत्त्वपूर्ण थे। शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र, जैसे- प्रबंधन, पर्यवेक्षण, अनुदेशन, मूल्यांकन आदि में विभिन्न प्रतिमान पाए जाते हैं। इसी प्रकार ‘पाठ्यक्रम’ जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में भी प्रतिमान होते हैं। पाठ्यक्रम नियोजन के तत्त्वों तथा इन तत्त्वों के आपसी सम्बन्ध को प्रदर्शित करने की संरचनात्मक व्यवस्था ही पाठ्यक्रम विकास के प्रतिमान कहलाती है। पाठ्यक्रम विकास का मॉडल (प्रतिमान), पाठ्यक्रम विकास की प्रकृति तथा प्रक्रिया दोनों को ही प्रदर्शित करता है।
पाठ्यक्रम विकास के प्रतिमान में निम्नलिखित चार चरण सम्मिलित होते हैं—
( 1 ) पाठ्यक्रम नियोजन—पाठ्यक्रम नियोजन में विद्यालय के दृष्टिकोण, ध्येय तथा लक्ष्यों को ध्यान में रखा जाता है। यह विद्यालय के शिक्षा दर्शन के आधार पर नियोजित होता है। इन सभी का अंततः, कक्षा-कक्ष में, निश्चित योजना बनाकर संचरण कर दिया जाता है, जो कि विद्यार्थियों के अपेक्षित अधिगम परिणामों के रूप में परिलक्षित होते. हैं।
( 2 ) पाठ्यक्रम रूपरेखा बनाना/पाठ्यवस्तु अभिकल्पनपाठ्यक्रम रूपांकन / अभिकल्पन, एक तरीका है, जिसमें पाठ्यक्रम की विषय-वस्तु के चयन एवं व्यवस्थापन के साथ-साथ, अधिगम-अनुभवों अथवा क्रियाओं का व्यवस्थापन तथा मूल्यांकन की प्रक्रिया का चयन किया जाता है। इस चरण में अधिगम परिणामों के आंकलन हेतु उपकरणों का चयन भी कर लिया जाता है। एक पाठ्यक्रम रूपरेखा में, उपयोग में लिए जाने वाले संसाधनों एवं अभीष्ट अधिगम परिणामों से सम्बन्धित कथन (Statements) भी सम्मिलित होते हैं ।
( 3 ) पाठ्यक्रम का क्रियान्वयन–कक्षा-कक्ष परिस्थितियों अथवा अधिगम वातावरण में, पाठ्यक्रम अभिकल्प पर आधारित पाठ्यक्रम योजना को कार्यान्वित करना ही, पाठ्यक्रम का क्रियान्वयन कहलाता है। इस पद में शिक्षक एक सुगमकर्त्ता की भूमिका निभाता है तथा शिक्षक एवं शिक्षार्थी, दोनों ही पाठ्यक्रम के माध्यम से दिशा-निर्देशन प्राप्त करते हैं तथा वांछित अधिगम परिणामों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इनमें क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है, ये क्रियाएँ प्रत्येक शिक्षक के कक्षा-कक्ष में सम्पन्न होती हैं, जहाँ पर अधिगम एक सक्रिय प्रक्रिया बन जाती है।
( 4 ) पाठ्यक्रम का मूल्यांकन–पाठ्यक्रम का मूल्यांकन, वांछित परिणाम की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है ? यह निर्धारित करता है। इसमें अधिगमकर्त्ता की प्रगति का ज्ञान हो जाता है तथा साथ ही पाठ्यक्रम क्रियान्वयन में क्या कठिनाइयाँ आईं अथवा पाठ्यक्रम क्रियान्वयन को किन-किन कारकों ने समर्थित किया, यह भी पाठ्यक्रम मूल्यांकन से निर्धारित किया जाता है।
हिल्दा टाबा प्रस्तुत पाठ्यक्रम विकास प्रतिमान–टाबा का विचार था कि चिन्तन को सिखाया जा सकता है। व्यक्ति तथा सूचनाओं (आँकड़ों) के मध्य सक्रिय अन्तःक्रिया ही चिन्तन है।
उनके अनुसार, “ज्ञान में वृद्धि करने का सर्वोत्तम तरीका, विचारों एवं प्रत्ययों के अन्तर्ग्रहण, अवबोध तथा प्रयोग पर बल देना है, न कि मात्र तथ्यों पर बल देना।”
हिल्दा टाबा ने ज्ञान के तीन स्तर बताए हैं—(1) तथ्य, (2) मूलभूत विचार एवं सिद्धान्त/नियम, (3) सम्प्रत्यय । टाबा ने कहा कि कक्षा में शिक्षण करते समय अधिकाधिक तथ्यात्मक सूचनाएँ शीघ्रता से प्रस्तुत की जाती है। इसलिए विद्यार्थी नवीन सूचनाओं एवं उनके मस्तिष्क में सचित पूर्व सूचनाओं के मध्य कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते हैं। तथ्यों को केवल स्मृति में रखा जा सकता है तथा पूर्व ज्ञान सूचनाओं से सम्बन्धित नहीं हो पाते, क्योंकि विद्यार्थी याद किए गए तथ्यों को संभवतः 1-2 वर्षों में विस्मृत कर देते हैं। इसलिए टाबा ने तथ्यों की अपेक्षा, उन मूलभूत विचारों एवं सिद्धान्तों के चयन पर बल दिया, जो विद्यार्थियों की आयु के अनुरूप सीखे जा सकने वाली सूचनाओं तथा वैज्ञानिक वैधता वाली सूचनाओं पर आधारित होते हैं। जब विद्यार्थी परिणामों को प्राप्त अथवा पूर्वानुमान करने के लिए सभी विषय-वस्तु क्षेत्रों से ज्ञान का उपयोग करते हैं, तो वह ‘प्रत्यय’ का रूप ले लेता है। टाबा ने इसी अवधारणा का प्रयोग करते हुए चार चिन्तन रणनीतियाँ दीं—(1) प्रत्यय विकास, (2) आँकड़ों का अर्धापन, (3) सामान्यीकरणों का अनुप्रयोग, (4) भावनाओं, अभिवृत्तियों एवं मूल्यों का अर्थापन ।
पाठ्यक्रम के विषय में टाबा ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि “सभी पाठ्यक्रम, चाहे जिस विशिष्ट प्रारूप के हों, कुछ तत्त्वों/ घटकों से निर्मित होते हैं। एक पाठ्यक्रम में सामान्यतः उद्देश्यों के कथन तथा उनसे सम्बन्धित कुछ विशिष्ट उद्देश्य होते हैं। विशिष्ट उद्देश्य, विषय-वस्तु के चयन एवं नियोजन (संगठन) को इंगित करते हैं, ये शिक्षण और अधिगम के निश्चित प्रारूप को भी व्यक्त करते हैं। पाठ्यक्रम के परिणामों में, मूल्यांकन कार्यक्रम समाहित होता है।”
टाबा का विश्वास था कि “पाठ्यक्रम विकास के सिद्धान्त तथा इस विषय में चिन्तन के लिए, संस्कृति तथा समाज, दोनों की, माँगों एवं आवश्यकताओं के विषय में प्रश्न करना आवश्यक है। पाठ्यक्रम युवा व्यक्तियों को, हमारी संस्कृति में सहभागित्व करने के लिए तैयार करने का एक तरीका है।”
टाबा ने ‘पाठ्यक्रम विकास’ के सम्बन्ध में चार मूलभूत सिद्धान्त प्रतिपादित किए, वे निम्नलिखित हैं-
(1) टाबा के अनुसार, सामाजिक प्रक्रियाएँ, जैसे—मानव का सामाजीकरण रेखीय नहीं होता है तथा उनको किसी रेखीय नियोजन के द्वारा निश्चित साँचे में नहीं ढाला जा सकता। दूसरे शब्दों में, अधिगम एवं व्यक्तित्व विकास में शैक्षिक लक्ष्यों एवं आदर्श शैक्षिक संस्थान द्वारा निर्धारित विशिष्ट उद्देश्यों को स्थापित करने की प्रक्रिया, ‘एक-मार्गीय प्रक्रिया’ नहीं है।
(2) सामाजिक संस्थाऐं, जिसमें विद्यालयी पाठ्यक्रम एवं कार्यक्रम सम्मिलित है, को प्रभावी रूप से पुनर्विन्यासित किया जा सकता है, यदि उनको किसी प्रशासनिक पुनर्विन्यास की तरह उच्च से निम्न की ओर करने की अपेक्षा, अच्छी तरह स्थापित तथा समन्वित विकास की प्रणाली की तरह निम्न से उच्च की ओर पुनः व्यवस्थित किया जा सकता है।
(3) प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों एवं कार्य-वितरण पर आधारित सिद्धान्तों के अनुसार, यदि पाठ्यक्रम एवं कार्यक्रम विकसित किए जाऐं, तो वे अधिक प्रभावी होते हैं। उन्होंने प्रशासन के स्थान पर क्षमता आधारित साझेदारी पर बल दिया।
(4) पाठ्यक्रम एवं कार्यक्रमों का नवीनीकरण करना, लघुअवधि प्रयास नहीं हैं, अपितु कई वर्षों तक चलने वाली प्रक्रिया है।
टाबा ने पाठ्यक्रम विकास प्रतिमान को निम्न चित्र द्वारा समझाया है—
(1) आवश्यकताओं की पहचान-टाबा (1962) द्वारा दिए गए पाठ्यक्रम विकास प्रतिमान का प्रथम पद, एक शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों की आवश्यकताओं की पहचान करना है। इसलिए टाबा का मानना है कि शिक्षक अपने विद्यार्थियों की आवश्यकताओं के प्रति जागरूक होते हैं, इसलिए उन्हें पाठ्यक्रम निर्माण करते समय सम्मिलित किया जाना चाहिए।
विद्यार्थियों की आवश्यकताओं का पता करने के लिए निम्नलिखित पदों का अनुसरण किया जा सकता है—
समस्या का पता लगाना |
समस्या का विश्लेषण ।
परिकल्पनाओं का निर्माण करना एवं आँकड़े एकत्रित करना ।
कार्य के साथ प्रयोग करना ।
( 2 ) उद्देश्यों का निरूपण-टाबा के अनुसार, उद्देश्य, उपलब्धि के मूल्यांकन के साथ-साथ पाठ्यक्रम की प्रत्येक गतिविधियों एवं क्रियाओं पर भी ध्यान केन्द्रित करते हैं। टाबा ने कहा कि उद्देश्यों को अपेक्षित व्यवहार के सन्दर्भ में वर्णित किया जाना चाहिए। उनके शब्दों में, “उद्देश्य विकासात्मक होते हैं, यात्रा के लिए सड़क का प्रतिनिधित्व (प्रदर्शित) करते हैं, न कि यात्रा के अन्तिम पड़ाव को।” (1962; 203)
( 3 ) विषय-वस्तु का चयन-उद्देश्यों के निर्धारण से पाठ्यक्रम की विषय-वस्तु का दिशा-निर्देशन प्राप्त होता है। विषय-वस्तु के चयन के सन्दर्भ में टाबा का मत है कि केवल विषय-वस्तु तथा उद्देश्य ही एक-दूसरे के सुसंगत नहीं होने चाहिए, अपितु विषय-वस्तु की वैधता तथा सार्थकता भी विद्यार्थी की आवश्यकता के अनुरूप निर्धारित होनी नादिए। उनके अनुसार, नवीन विषय-वस्तु को, विद्यार्थियों के अनुभवों एवं पूर्व ज्ञान के आधार पर सीखा जा सकता है।
(4) विषय-वस्तु का व्यवस्थापन–विषय-वस्तु के चयन के उपरान्त, शिक्षक का महत्त्वपूर्ण कार्य, उसका व्यवस्थापन करना है। इस व्यवस्थापन प्रक्रिया को करते समय, विषय-वस्तु के तार्किक क्रम के साथ-साथ अधिगमकर्त्ता का मानसिक स्तर, शैक्षिक उपलब्धि तथा रुचियों का भी ध्यान रखना चाहिए। एक शिक्षक को मुख्य विचारों, तथ्यों एवं प्रत्ययों को इस प्रकार सुव्यवस्थित करना चाहिए, जिससे विद्यार्थी उनको सरलता से समझ सकें एवं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। शिक्षक को विषय-वस्तु व्यवस्थापन करते समय, इस बिन्दु का भी ध्यान रखना चाहिए कि सभी विद्यार्थी एक ही तरीके से नहीं सीखते हैं । इसलिए उसे अनुदेशनात्मक तकनीकियों में भिन्नता लानी चाहिए। टाबा के अनुसार, अनुभवों तथा क्रियाओं में संतुलन स्थापित करना चाहिए।
(5) अधिगम अनुभवों का चयन – एक शिक्षक के द्वारा शिक्षण करते समय कई विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ की जाती है; जैसे—विषयवस्तु के स्पष्टीकरण के लिए वह दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग करता है, व्याख्यान देता है, प्रश्न पूछता है, स्पष्टीकरण करता है, प्रतिपुष्टि प्रदान करता है आदि। इन सभी क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य, विद्यार्थियों को उस विषय-वस्तु में संलग्न एवं प्रवृत्त रखना होता है क्योंकि इस संलग्नता से, विद्यार्थी उस विषय-वस्तु को अधिक ग्रहण एवं धारण कर सकेंगे।
(6) अधिगम अनुभवों का व्यवस्थापन–अधिगम अनुभवों का व्यवस्थापन, विषय-वस्तु की प्रकृति के साथ-साथ, विद्यार्थी की आवश्यकता पर निर्भर करता है कि वे क्या सीखेंगे ? इसलिए अधिगम अनुभवों के चयन के पश्चात् एवं अनुदेश से पूर्व, उन्हें व्यवस्थित कर लेना चाहिए।
(7) मूल्यांकन-इस अन्तिम चरण में टाबा ने, शिक्षा में अभिभावकों की भूमिका का भी उल्लेख किया है। उन्होंने कहा कि उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है ? इसको ज्ञात करने के लिए शिक्षक, विद्यार्थी की प्रगति का मूल्यांकन करते हैं तथा वहीं ? विद्यार्थी यह निर्णय लेते हैं कि उन्होंने क्या है इसके पश्चात् अभिभावक को, उनके बच्चों की प्रगति का मूल्यांकन करए चाहिए।
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