पाठ्यचर्या संचालन की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। पाठ्यचर्या के प्रभावी संचालन के संदर्भ में विद्यालय दर्शन की क्या भूमिका है ? वर्णन कीजिए।

पाठ्यचर्या संचालन की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। पाठ्यचर्या के प्रभावी संचालन के संदर्भ में विद्यालय दर्शन की क्या भूमिका है ? वर्णन कीजिए।

अथवा

वर्तमान पाठ्यक्रम की समालोचना कीजिये।
उत्तर —पाठ्यक्रम का वर्तमान स्वरूप- प्रारम्भ में पाठ्यचर्या का स्वरूप विषयों की निर्धारित पाठ्य-वस्तु तक ही सीमित था तथा शिक्षा का उद्देश्य मात्र सूचनात्मक ज्ञान प्राप्त करना होता था। धीरे-धीरे शैक्षिक मनोविज्ञान, शैक्षिक समाजशास्त्र और शैक्षिक दर्शनशास्त्र आदि व्यवहार सम्बन्धी विज्ञानों का तीव्र गति से विकास हुआ, जिसका प्रभाव पाठ्यचर्या के स्वरूप पर भी पड़ा । साथ ही शिक्षण अधिगम के क्षेत्र में किये गये अनुसंधानों का भी पाठ्यचर्या के स्वरूप पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
अब विद्यालयों का कार्य बालकों को ज्ञान देने के स्थान पर ऐसी स्थितियाँ प्रस्तुत करना माना जाने लगा है जो बालकों को स्वानुभाव द्वारा ज्ञानार्जन करने में सहायक सिद्ध हो सके। इस धारणा के फलस्वरूप क्रिया आधारित पाठ्यचर्या की संकल्पना प्रस्तुत की गयी, जिसमें पाठ्यवस्तु के महत्त्व को बनाये रखते हुए उसके चयन एवं क्रियान्वयन के आधार को परिवर्तित कर दिया गया।
शिक्षा के निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु समुचित परिवेश सामाजिक जीवन के स्वाभाविक कार्यों को पूर्ण करने से ही मिल सकता है । अतः पाठ्यचर्या को ऐसे कार्यों पर आधारित करने का निश्चय किया गया । फलस्वरूप ‘विषय-वस्तु’ के रूप में प्रतिष्ठित पाठ्यचर्या का स्थान ऐसी अभिवृत्तियों, अवबोधनों, योग्यताओं एवं क्षमताओं आदि ने ले लिया जो सामान्य सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके ।
पाठ्यक्रम संचालन की अवधारणा — पाठ्यचर्या के अन्तर्गत निम्न तीन वर्गों के कार्य संपादित किए जाते हैं—
 (1) पाठ्य सहगामी क्रियाएँ,
(2) शैक्षिक क्रियाएँ,
(3) रुचिपूर्ण कार्य ।
( 1 ) पाठ्य सहगामी क्रियाएँ पाठ्यचर्या के व्यापक स्वरूप के आधार पर अब विद्यालयों में आयोजित होने वाली पाठ्येत्तर क्रियाओं; यथा- खेलकूद, व्यायाम, सांस्कृतिक क्रियाकलाप आदि को पाठ्य सहगामी क्रियाओं के रूप में लिया जाने लगा है। प्रमुख पाठ्य सहगामी क्रियाओं में निम्न को रखा जाता है
(अ) सांस्कृतिक क्रियाएँ—इसमें एकल अभिनय, मूक अभिनय, नाटक, प्रहसन, नृत्य, संगीत एवं अन्य मनोरंजनात्मक क्रियाएँ आदि सम्मिलित की जाती हैं।
(ब) सृजनात्मक क्रियाएँ—इस वर्ग के अन्तर्गत बालकों में रचना सम्बन्धी प्रवृत्तियाँ; जैसे- चित्रकारी, दस्तकारी, पच्चीकारी, बागवानी आदि उपयोगी वस्तुओं का निर्माण एवं नवीनता की खोज को विकसित किया जाता है।
(स) सामाजिक क्रियाएँ–विद्यालयों द्वारा बालकों के माध्यम से सफाई अभियान, समाज-सेवा के अन्तर्गत स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों का प्रचार, साक्षरता का प्रचार, सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करने के लिए प्रचार, अभियान आदि को संचालित करना सामाजिक क्रियाओं के अन्तर्गत आता है।
(द) शारीरिक क्रियाएँ इनके अन्तर्गत शारीरिक प्रशिक्षण, पी.टी., व्यायाम, खेलकूद, ट्रेकिंग, हाईकिंग, तैराकी आदि के साथ-साथ स्वास्थ्य परीक्षण, रोगों से बचने के उपाय, शुद्धता एवं स्वच्छता का ध्यान, मध्याह्न भोजन आदि बातों को समाहित किया जाता है।
(य) साहित्यिक क्रियाएँ — इनमें वाद-विवाद, भाषण कला, विचार गोष्ठी, कविता पाठ, कार्यगोष्ठी, वार्ता, परिचर्चा, अन्त्याक्षरी, लेखन आदि को सम्मिलित किया जाता है।
( 2 ) शैक्षिक क्रियाएँ-इन क्रियाओं का आयोजन मुख्य रूप से कक्षा-कक्षों में विभिन्न विषयों के अध्ययन-अध्यापन के रूप में किया जाता है। वर्तमान में व्यावहारिक ज्ञान अर्थात् प्रायोगिक कार्यों के पाठ्यचर्या में समावेश होने तथा नवीन शिक्षण विधियों द्वारा बालकों की सक्रियता पर अधिक बल देने के परिणामस्वरूप प्रयोगशालाएँ, कार्यशालाएँ तथा पुस्तकालय आदि शैक्षिक प्रवृत्तियों के कार्य स्थल बन गये हैं। शैक्षिक भ्रमण में सांस्कृतिक महत्त्व के स्थानों का पर्यटन, सर्वेक्षण आदि भी आयोजित किये जाते हैं।
( 3 ) रुचिपूर्ण कार्य – इस प्रकार की प्रवृत्तियों में विभिन्न वस्तुओं; जैसे—टिकट, पत्थर, सिक्के आदि का संग्रह करना, चित्र एवं कार्टून बनाना, फोटोग्राफी करना आदि सम्मिलित हैं। शाला व्यवस्था के अनुरूप इन प्रवृत्तियों का आयोजन होता रहता है। कुछ राज्यों में पाठ्य सहगामी  प्रवृत्तियों को एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यचर्या में निश्चित स्थान दिया गया है।
पाठ्यचर्या के प्रभावी संचालन के संदर्भ में विद्यालय दर्शन की भूमिका – विद्यालय दर्शन का पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। विद्यालय का स्वयं का दृष्टिकोण व्यावसायिक है या आदर्शपरक, सैद्धान्तिक पक्ष का पक्षधर है या व्यावहारिक पक्ष का। यह सभी वे कारक हैं जो पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को प्रतिस्थापित करने में सहायक या बाधक बनते हैं ।
पाठ्यचर्या निर्धारण के समय जिन उद्देश्यों को प्राप्त करने का लक्ष्य रखा जाता है, उन्हें प्राप्त करने का उत्तरदायित्व विद्यालय पर होता है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति विद्यालय द्वारा तभी संभव है जब विद्यालय दर्शन उनके अनुकूल हो । यदि विद्यालय का एकमात्र लक्ष्य व्यावसायिक उन्नयन ही है तो पाठ्यचर्या उद्देश्यों को साधना एक दुष्कर कार्य सिद्ध हो सकता है। विद्यालय सामाजिक अभिकरण है जिसका निर्माण समाज द्वारा किया गया है। विद्यालय को बनाने के मूल में समाज ने अपने लाभ की कल्पना नहीं की थी । अतः जो विद्यालय लाभ प्राप्ति के उद्देश्य पर संचालित हो रहे हों, वे पाठ्यचर्या उद्देश्यों की प्रतिस्थापना में निरर्थक ही सिद्ध होंगे। विद्यालय पाठ्यचर्या प्रतिस्थापन में तभी सहायक सिद्ध हो सकेंगे जब वे सामाजिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों से सम्बन्धित हों तथा उनमें सुधार करते रहने का दर्शन रखते हों ।
पाठ्यचर्या में अन्तर्निहित सामाजिक दायित्व का ज्ञान विद्यालय ही करवाता है। रस्क ने कहा है कि दर्शन पर पाठ्यचर्या का संगठन जितना आधारित है, उतना शिक्षा का अन्य कोई पक्ष नहीं । विद्यालय एवं समाज में विभिन्न समयों में प्रचलित दार्शनिक विचारधाराओं ने सदैव ही पाठ्यचर्या को प्रभावित किया है। आदर्शवादी विचारधाराओं के पोषक विद्यालय का लक्ष्य सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान कराना होता है। ये पाठ्यचर्या में निहित मानव विचारों, भावों, आदर्शों एवं मूल्यों पर आधारित तथ्यों की स्थापना पर बल देते हैं ।
प्रकृतिवादी दर्शन के पोषक विद्यालय पाठ्यचर्या में निहित उन तत्त्वों को प्रबलता से स्थापित करते हैं जो खेलकूद, व्यायाम, पर्यटन, भूगोल, विज्ञान आदि से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार बालक की मूल प्रवृत्तियों को स्वतन्त्रतापूर्वक विकसित किया जाता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर का ‘शान्तिकुंज’ इसी प्रकार की विचारधारा पर आधारित है। प्रयोजनवादी दर्शन के पक्षधर विद्यालय पाठ्यचर्या में निहित उपयोगिता, क्रियाशीलता तथा अभिरुचियों के सिद्धान्त के पोषक होते हैं तथा इन पर आधारित तथ्यों को विकसित करने हेतु प्रयासरत रहते हैं। कुछ विद्यालय जो यथार्थवाद के पोषक होते हैं वे पाठ्यचर्या में निहित उन पक्षों पर बल देते हैं जो व्यावहारिक एवं भौतिकता पर टिके हों । बालकों को स्वानुभूति, शान्ति पर आधारित मूल्यों, स्वास्थ्य एवं सामाजीकरण की प्रक्रिया से परिचित कराने में विद्यालयों का महत्त्वपूर्ण स्थान सदैव से ही रहा है।
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