पारिस्थितिकी के तंत्रों के प्रकार लिखिए।

पारिस्थितिकी के तंत्रों के प्रकार लिखिए। 

उत्तर—  पारिस्थितिकी तंत्रों के प्रकार (Types of Ecosystems)-पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न पारितंत्रों में प्रमुख पारितंत्र निम्नलिखित हैं—

(i) अपूर्ण पारितंत्र (Incomplete ecosystem)
(ii) स्वयं समर्थ पारितंत्र (Self sufficient ecosystem
(iii) विकृत पारितंत्र (Degraded ecosystem)
(iv) अनियंत्रित पारितंत्र (Unconrolled or cultural ecosystem)
(i) अपूर्ण पारितंत्र (Incomplete ecosystem) —  सामान्यतया सभी पारितंत्रों में अजैविक पदार्थ, जीवधारी, उपभोक्ता जीवधारी तथा विघटक जीवधारी होते हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसी उदाहरण भी होते हैं जिनमें एक या एक से अधिक इन घटकों की उपलब्धता न हो। तब ऐसी स्थिति में उस पारितंत्र को अपूर्ण पारितंत्र कहा जाता है। जैसे गहरे समुद्र की गहराई में रोशनी के अभाव में वनस्पति तथा पादप पनप नहीं पाते अर्थात् उत्पादक ही नहीं होते। तब वहाँ जानवरों का भोजन ऊपरी सतह से मृत जानवर, पौधे अथवा अन्य कार्बनिक पदार्थ नीचे पहुँच जाते हैं। इस स्थिति में उपभोक्ता तथा विघटक तो होते हैं लेकिन उत्पादक नहीं होता है।
(ii) स्वयं समर्थ पारितंत्र (Self sufficient ecosystem) – इस पारितंत्र को सामान्य पारितंत्र अथवा स्वयं व्यवस्थित पारितंत्र भी कहते हैं। इस प्रकार के पारितंत्रों में यदि कोई परिवर्तन या किसी वस्तु या घटक की कमी या वृद्धि होती है तो वहाँ के अन्य घटक स्वयं स्थिति को नियंत्रण में लाते हैं। जैसे-एक जंगल में पेड़ गिरते हैं, नए उगते हैं। अतः वहाँ की भोजन श्रृंखला, ऊर्जा प्रवाह और पोषक चक्र में कोई व्यवधान नहीं होता है। यदि असामान्य रूप में कभी शाकाहारी और मांसाहारी जीवों की संख्या के अनुपात में स्पष्ट अन्तर आ भी जाता है तो कुछ प्रकृति और कुछ पारितंत्र की सामान्य प्रक्रिया उसे ठीक-ठाक कर देती है।
(iii) विकृत पारितंत्र (Degraded ecosystem) – ऐसे पारितंत्र मुख्य रूप से घास के मैदान अथवा वे चरागाह होते हैं, जहाँ उत्पादक की कमी से शाकाहारी और मांसाहारी उपभोक्ताओं के प्रतिशत में एक साथ कमी अथवा अधिकता हो जाती है या इन दोनों उपभोक्ताओं के आवश्यक अनुपात में अन्तर आ जाता है। ऐसी स्थिति में पारितंत्र विकृत होने लगता है और प्रायः अन्त में नष्ट भी हो जाता है।
(iv) अनियंत्रित पारितंत्र (Unconrolled or cultural ecosystem) – जब किसी पारितंत्र में मानव द्वारा ऐसी गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दी जाती हैं जो सामान्यतया व्यक्ति विशेष के किसी विशेष लाभ में केन्द्रित हों तो वहाँ की स्थिरता और सन्तुलन समाप्त हो जाता है। शाकाहारी जीवों को नष्ट करने से मांसाहारी जीवा का जीव संकट में पड़ जाता है। इस स्थिति में उपज तो मिल जाती है परन्तु पारितंत्र समाप्त हो जाता है।
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