पारिस्थितिकी तंत्र को परिभाषित कीजिए। पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं ? विस्तारपूर्वक समझाइए |

पारिस्थितिकी तंत्र को परिभाषित कीजिए। पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं ? विस्तारपूर्वक समझाइए | 

उत्तर— पारिस्थितिकी तंत्र (Ecostytem)– इसके लिए लघू. प्रश्न संख्या 13 का उत्तर देखें ।
पारिस्थितिकी तंत्रों के प्रकार — पारिस्थितिकी तंत्र के सामान्य दो प्रकार होते हैं—
(A) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र — प्राकृतिक रूप में मानव के प्रभाव के बिना कार्यरत रहते हैं। ये (1) स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र जैसे—वानिकी, घास क्षेत्र, मरुस्थल आदि होते हैं । (2) जलीय पारिस्थितिक तंत्र के दो प्रकार होते हैं—(i) शुद्ध जलीय (Fresh water) इसमें बहता पानी जैसे नदी, झरना तथा स्थिर जल जैसे— झील, तालाब, दलदल आदि और (ii) सागरीय (Marine) में गहरा सागरीय एवं तटीय या उथला सागरीय |
(B) अप्राकृतिक या मानवकृत पारिस्थितिक तंत्र—इसमें मानव अपने बौद्धिक तकनीकी एवं वैज्ञानिक स्तर के अनुरूप पर्यावरण का उपयोग कर पारिस्थितिक तंत्र व प्रदेश विकसित करते हैं; जैसे— कृषि प्रदेश या पारिस्थितिक तंत्र (Cropland Ecosystem), चरागाह, नगरीय, आकाशीय पारिस्थितिक तंत्र का विकास करता है।
(1) सागरीय पारिस्थितिक तंत्र (Marine Ecosystem) – पृथ्वी जल के लगभग 70 प्रतिशत महासागरीय भाग में प्रत्येक महासागर का एक वृहत् पारिस्थितिक तंत्र होता है। सागरीय जल का रासायनिक प्रक्रम भिन्न होता है अतः उसमें तापमान एवं ऑक्सीजन आदि की प्रक्रिया भी भिन्न होती है। सागरीय या सामुद्रिक पारिस्थिति के सम्बन्ध में ओडम ने लिखा है—“Marine ecology emphasizes the totality or pattern of relationships between organism and the sea environment” सागरीय तंत्र में भी गहरे सागर की पारिस्थितिकी उथले सागर की पारिस्थितिकी से भिन्न होती है। इसी का एक मुख्य भाग ‘एस्चूरी पारिस्थितिकी’ (Esturine ecosystem) होता है। सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र में जल की संरचना, उसके जीव-जन्तुओं, वनस्पति का पर्यावरण से समानुकूलन का तंत्र है। इसका अध्ययन समुद्र विज्ञान, जन्तु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान के लिए महत्त्वपूर्ण है।
(2) शुद्ध जल पारिस्थितिकी तंत्र (Fresh Water Ecosystem) — इस तंत्र में जल के प्राकृतिक, रासायनिक, भू-गर्भिक और जैविक तथ्यों का अध्ययन होता है। शुद्ध जल ठहरा या स्थिर (Lentic) एवं बहता हुआ (Lotic) हो सकता है। ओडम महोदय ने शुद्ध जल की पारिस्थितिक परिभाषा इस प्रकार की है—“Fresh Water ecology emphasises the organism environment relationship in the fresh water habitat in the contact of the ecosystem principle.” आशय है कि जल में उसकी संरचना के अनुरूप विभिन्न प्रकार के उत्पादक अथवा जीवों का उद्भव होता है, वे उसी से या एक दूसरे से भोजन प्राप्त करते हैं और अस्तित्व में आते हैं तथा अन्त में अपघटित हो जाते हैं।
(3) वनीय पारिस्थितिक तन्त्र (The Forest Ecosystem) – पृथ्वी के विस्तृत क्षेत्रों में वनों का विस्तार है। यह एक ओर सदाबहार उष्ण कटिबंधीय वन हैं तो दूसरी ओर शीतोष्ण के पतझड़ वाले तथा शीत-शीतोष्ण के सीमावर्ती प्रदेशों के कोणधारी वन हैं। वन या प्राकृतिक वनस्पति जहाँ एक ओर पर्यावरण व पारिस्थितिक के विभिन्न तत्त्वों जैसे तापमान, वर्षा, आर्द्रता मृदा आदि को नियंत्रित करते हैं वही उनका अपना .पारिस्थितिक तंत्र भी होता है।
उत्पादक के रूप में वनीय प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के वृक्ष होते हैं जो उष्ण, शीतोष्ण एवं शीत दशाओं के साथ-साथ परिवर्तित होते हैं। इन्हीं के साथ विषुवत रेखीय प्रदेशों में झाड़ियाँ, लताएँ आदि की प्रधानता होती है। प्राथमिक उपभोक्ताओं में विभिन्न प्रकार के जानवर जो वनस्पति का भोजन करते हैं, कीट, वृक्षों पर रहने वाले परिन्दे, द्वितीय उपभोक्ता में मांसाहारी जीव-जन्तु, पक्षी सम्मिलित हैं। वनस्पति निरन्तर गिर कर सड़ती रहती है तथा मृदा में समाहित हो जाती है, इसी प्रकार जीव-जन्तु भी मृत्यु के पश्चात् जीवाणुओं द्वारा सड़ते हैं और अन्त में मिट्टी में मिल जाते हैं। विश्व के उष्ण कटिबन्धीय वन (tropical forest) की ओर वर्तमान में पर्याप्त स्थान आकृष्ट है क्योंकि इनका तीव्रगति से हो रहा विनाश पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए खतरा है।
(4) घास के मैदानों का पारिस्थितिक तंत्र (The Grassland Ecosystem) – यह स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र के अन्तर्गत आता है। घास के मैदान पृथ्वी पर लगभग 19 प्रतिशत भाग पर हैं जिनमें उष्ण कटिबंधीय (tropical) तथा शीतोष्ण कटिबंधीय (temperate) घास के मैदान सम्मिलित हैं। इसमें ‘सवाना’ घास का पारिस्थितिक तंत्र महत्त्वपूर्ण है। इस तंत्र में वायु एवं मृदा में उपस्थित विभिन्न रासायनिक तत्वों के प्रभाव से विभिन्न प्रकार की घास, झाड़ियाँ और पौधों का विकास होता है। इनके प्राथमिक उपभोताओं में घास खाने वाले जानवर तथा घास की पत्तियाँ खाने वाले अनेक प्रकार के कीट आते हैं। द्वितीय उपभोक्ताओं में मांसाहारी जीव जन्तु आते हैं। अपघटक के रूप में मृत जीव-जन्तु, उनके उत्सर्जित पदार्थ से अनेक जीवाणुओं का जन्म हो जाता है जो अन्त में मृदा में मिल जाते हैं। इन प्रदेशों में पशु चारण स्वतंत्र एवं व्यापारिक प्रमुखता से होता है ।
(5) मरुस्थलीय पारिस्थिति तंत्र (The Desert Ecosystem) – पृथ्वी तल के लगभग 17 प्रतिशत भाग पर उष्ण मरुस्थल है। यहाँ का पर्यावरण अल्प वर्षा और उच्च तापमान के कारण विशिष्ट होता है। जल की कमी के कारण यहाँ की वनस्पति भी विशिष्ट होती है और शुष्कता के कारण बालू के स्तूपों का सर्वत्र विस्तार होता है । मरुस्थल क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति कटीली झाड़ियां, छोटी घास एवं कुछ शुष्कता सहन करने वाले वृक्ष होते हैं जो कम वर्षा एवं अल्प भोजन पर जीवन व्यतीत कर लेते हैं। इन प्रदेशों में पशुपालन के साथ जहाँ जल उपलब्ध हो जाता है मोटे अनाज की खेती भी की जाती है। एक सामान्य तथ्य मरुस्थलों के सम्बन्ध में यह है कि यहाँ यदि जल उपलब्ध हो तो वे उत्तम कृषि क्षेत्र बन जाते हैं जैसा कि नील नदी की घाटी में, थार में इन्दिरा गांधी नहर क्षेत्र में आदि ।
(6) कृषि क्षेत्र पारिस्थितिक तंत्र (Cropland Ecosystem) – पारिस्थितिक तंत्र जहाँ एक ओर पूर्णतया प्राकृतिक है वहीं मानव के तकनीकी एवं वैज्ञानिक ज्ञान के फलस्वरूप प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर मानवकृत तन्त्र का विकास होता है, इसी में एक में प्रमुख है कृषि क्षेत्र का पारिस्थितिक-तन्त्र । इसमें मानव अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक तत्वों में परिवर्तन करता है, परिवर्तन करता है, मृदा में कृत्रिम उर्वरक देकर खनिज लवणों की पूर्ति करता है, विशिष्ट प्रकार के बीज, सिंचाई व्यवस्था एवं तकनीकी प्रयोग से न केवल कृषि क्षेत्र में विस्तार करता है अपितु उत्पादन में वृद्धि, उत्तमता में विकास, नवीन फसलों के उत्पादन द्वारा अधिकतम विकास करता है।
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्राकृतिक पर्यावरण में परिवर्तन के साथ-साथ पारिस्थितिक तन्त्र में परिवर्तन आता है, मानवीय प्रयास उनमें और अधिक समानुकूलन उत्पन्न करते हैं और अनेक बार नवीन पारिस्थितिक तन्त्रों का विकास हो जाता है।
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