भाषा कौशल परस्पर एक-दूसरे से किस प्रकार सहसम्बन्धित है ?
भाषा कौशल परस्पर एक-दूसरे से किस प्रकार सहसम्बन्धित है ?
उत्तर— सामान्यतया बालक जब शिशु अवस्था में होता है, तभी से ही वह अपने माता-पिता, परिवारजनों आदि से भाषा सीखने का प्रयत्न करने लगता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है और उसका सम्पर्क बढ़ता चला जाता है, भाषा सीखने की दक्षता में वृद्धि होती चली जाती है। इसी क्षमता वृद्धि के आधार पर वह अपनी मातृभाषा को धीरे-धीरे बोलना सीख जाता है। उस काल में उसके द्वारा सीखी हुई भाषा एक प्रकार से काम चलाऊ भाषा होती है, लेकिन विद्यालय में प्रवेश लेने के बाद शिक्षक और शिक्षार्थियों के सम्पर्क में आने पर उसकी भाषा में शनै: शनै: निखार आने लगता है और वह भाषा व्यवहार को समझने लगता है।
भाषा व्यवहार के शिक्षण का मुख्य उद्देश्य छात्र में भाषा व्यवहार की कुशलता उत्पन्न करना होता है। भाषा सीखने के दो अन्योन्याश्रित कौशल- श्रवण व वाचन।
ये दोनों कौशल भाषा व्यवहार के मुख्य आधार हैं। श्रवण अर्थात् सुनना से तात्पर्य यह है कि वक्ता द्वारा प्रयुक्त ध्वनियों तथा उनसे बने शब्दों और वाक्यों को सुनकर उनमें निहित विचारों या भावों को समझना बोलने से तात्पर्य है कि मनोगत विचारों को वांछित गति से इस प्रकार प्रकट करना कि श्रोता समझ सकें। इस रीति से वक्ता और श्रोता एकदूसरे के विचारों या कथन के माध्यम से भाषा सीखने का प्रयास करते हैं ये दोनों कौशल एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं और भाषा सीखने की ‘पहली सीढ़ी भी होते हैं। भाषायी कौशलों को सीखने का अर्थ है— भाषा की सम्पूर्ण व्यवस्था की जानकारी तथा उनके प्रयोग की कुशलता का विकास करना।
वाचन कौशल व लेखन कौशल में सह-सम्बन्ध– अभिव्यक्ति की दृष्टि से लेखन तथा वाचन परस्पर पूरक होते हैं। वाचन से लेखन कठिन होता है। लेखन में वर्तनी का विशेष महत्त्व है जबकि वाचन में ध्वनि का महत्त्व होता है उच्चारण की शुद्धता आवश्यक तत्त्व है और लेखन में अक्षरों का सुड़ौल होना और वर्तनी की शुद्धता होनी चाहिए।
लेखन की विषयवस्तु साहित्य का क्षेत्र होता है और वाक्य लिखित भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होता है। लेखन में सोचने तथा चिन्तन के लिए अधिक समय मिलता है जबकि वाचन में भावाभिव्यक्ति का सतत् प्रवाह बना रहता है सोचने का समय नहीं रहता।
लेखन की अशुद्धियाँ पाठकों तथा आलोचकों की दृष्टियों से बच नहीं सकती हैं जबकि वाचन में इतना ध्यान नहीं जाता है। इस कारण लेखन में भाषा की शुद्धता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। पाठ्यसामग्री, विषय-सामग्री, भाषा व शैली के परिष्कार पर विशेष ध्यान देना पड़ता है।
लेखन के माध्यम से साहित्य की विधाओं एवं शैली का निर्माण तथा विकास किया जाता है। साहित्य में स्थायीपन लेखन से आता है। लेखन से अभिव्यक्ति के अनेक रूप हैं—कहानी, नाटक, निबन्ध, कथाएँ, आत्मकथा, संवाद, संस्मरण, जीवनी, कविता, गद्यगीत, काव्य आदि । छात्रों को शिक्षण से इन विधाओं एवं रूपों से अवगत कराया जाता है। वाचन में भावात्मक पक्ष की प्रधानता होती है जो लेखन द्वारा सम्भव नहीं हो पाती है।
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