मानव पर्यावरण सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।

मानव पर्यावरण सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – मानव पर्यावरण सम्बन्ध–सभी जीवधारी एक पर्यावरण  में रहते हैं। मनुष्य भी पर्यावरण का एक आन्तरिक भाग है। मनुष्य बायोस्फियर परत में, जहाँ जीवन का अस्तित्व है, एक अद्वितीय स्थान रखता है जीव और वनस्पति की अनगिनत जातियों के अलावा मनुष्य के चारों और प्राकृतिक संसाधन भी प्रचुर मात्रा में है। मनुष्य के पास सोचने, योजना बनाने तथा आस-पास की प्रकृति को अपने लाभ के लिए परिवर्तित करने की एक अद्भुत क्षमता है लेकिन दुर्भाग्यवश वह अपने पर्यावरण के लिए एक संकुचित दृष्टिकोण रखने वाला तथा एक अच्छा ‘कुप्रबन्धक’ सिद्ध हुआ है।
बच्चे भी बड़ों की भाँति एक पर्यावरण में रहते हैं। उनका प्राथमिक • पर्यावरण घर से शुरू होता है और द्वितीय कक्षा तक शुरू होता है, जब वे स्कूल जाना प्रारम्भ कर देते हैं। बच्चा उन सभी समस्याओं का सामना करता है जिनका सामना एक विकासशील व्यक्ति को करना पड़ता है। बच्चा अपने शुरू के वातावरण से सीखता है। पहले घर में तत्पश्चात् स्कूल में। >
जनसंख्या वृद्धि निम्न कोटि के पर्यावरण को उत्पन्न करती है। लगातार बढ़ रही जनसंख्या के कारण रोटी, कपड़ा और मकान की समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए अधिक भोजन और अधिक औद्योगीकरण की आवश्यकता हो सकती है। इन क्षेत्रों की आवश्यकताओं के लिए अधिक उर्वरकों की आवश्यकता हो सकती है जो पर्यावरण को और अधिक बिगाड़ सकता है। इसी प्रकार औद्योगीकरण भी आस-पास के वातावरण को अधिक प्रदूषित कर सकता है। शोर एवं कचरे की परिस्थिति के कारण प्रदूषित पर्यावरण अधिक जनसंख्या वृद्धि ‘के कारण और अधिक प्रदूषित होने का डर है।
हमारी जनसंख्या वृद्धि भी गाँव और संतुलन के उन सभी नियमों से प्रभावित होती हैं जो अन्य जीवों में जनसंख्या वृद्धि को प्रभावित करते हैं। हमारी पृथ्वी पर भोजन और क्षेत्र सीमित हैं। यदि बहुत अधिक लोग होंगे तो जनसंख्या में प्रतियोगिता बढ़ेगी और उनमें अस्तित्व के लिए संघर्ष में तेजी से वृद्धि होगी। परिणामस्वरूप वहाँ अत्यधिक नगरीकरण व औद्योगीकरण होगा जिससे कृषि योग्य भूमि में कमी होगी ओर प्रदूषण के लिए उत्तरदायी कारक प्रबल रूप से सक्रिय हो जायेंगे।
स्वस्थ पर्यावरण हेतु भूमि के 33 प्रतिशत क्षेत्र पर वन होने चाहिए, किन्तु जनसंख्या में वृद्धि होने के कारण इस क्षेत्र में कमी आई है। परिणामस्वरूप स्वस्थ पर्यावरण नहीं बन पाया है। इसलिए वृक्षारोपण के कार्यक्रमों को प्रबल रूप से हाथ में लिया जाना चाहिए। जब वनों का विकास होगा तो जंगली जीवों को स्वयमेव संरक्षण मिल जाएगा।
पिछले कुछ दशकों या उससे पूर्व भौतिक और जैविक पर्यावरण पर प्रभाव पड़ रहा है। भारत के नागरिकों पर ही नहीं बल्कि अन्य देशों में रहने वाले लोगों के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों परिवर्तन आ रहा है। देश में पर्यावरण पर दुष्परिणाम के कारण नवीन पर्यावरणीय जनआन्दोलन के रूप में प्रारम्भ करने की आवश्यकता है। भारत की संसद व राज्यों की विधानमंडलों ने समय-समय पर नियमों व कानूनों का निर्माण किया है। सन् 1983 में संसद ने पर्यावरण विधेयक पारित किया है जो संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्टाकहोम में 1972 की घोषणाओं के अनुरूप ही है। अत: निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि भारतीय समाज व सरकार ने पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने हेतु प्रभावशाली कदम उठाए हैं। इन नियमों और कानूनों के निर्माण का एकमात्र उद्देश्य यह है कि प्रकृति के साथ तारतम्यता तो बनाये रखी जाये, पर्यावरण पर दुष्प्रभाव न पड़ सकें।
मनुष्य को केवल प्रकृति से ही तारतम्यता बैठाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि प्रकृति के साथ स्वयं को अपनी आत्मा से तारतम्यता भी बैठाने की महती आवश्यकता है। यदि मनुष्य प्रकृति के साथ आंतरिक तारतम्यता नहीं बैठाएगा तो हिंसा को जन्म देने को अग्रसर होगा। आज देश-विदेशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की भड़क रही हिंसा का मूल कारण आंतरिक अतारतम्यता ही है, क्योंकि युद्ध मानव के मस्तिष्क में प्रारम्भ होता है। इसलिए शान्ति की व्यवस्था भी मानव मस्तिष्क में ही होनी आवश्यक है। आज भौतिक पर्यावरण में परिवर्तन आया है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के बाहरी और आंतरिक पर्यावरण में संघर्ष है। यद्यपि आज के इस भौतिकवादी युग में मनुष्य अपने आपको अलग-थलग नहीं कर पा रहा है, क्योंकि वह चारों ओर से इस व्यवस्था से घिरा हुआ है फिर भी भौतिक पर्यावरण के साथ स्वयं को समाहित नहीं कर पाया है।
जनसंख्या की वृद्धि का कारण मनुष्य की नासमझी, भूल व अंधविश्वास हो सकता है तो प्रदूषण का कारण अधिक रूप में प्रकृति की प्रक्रिया को समझे बिना व विज्ञान तथा तकनीक के अत्यधिक प्रयोग हैं। पर्यावरण की समस्या का कारण प्रदूषण को ही मानते हैं लेकिन विस्तृत रूप में विश्लेषण करें तो यह मुख्य कारण है-हमारी सभ्यता के भौतिक पहलू पर अधिक जोर देने से पर्यावरण की समस्या उत्पन्न होती है। हमें प्रकृति के नियमों को जानने, समझने व अपने कार्यों को इससे सुसम्बन्धित रखने के लिए अधिक सावधानी रखने की आवश्यकता है। वर्तमान में यह गम्भीर मुद्दा है तथा समाज को स्थिरता व सुख देने के लिए तकनीकी का अंधाधुंध प्रयोग उपयोगी कह सकेंगे ? आज तकनीकी के प्रयोग के फलस्वरूप पड़ रहे दुष्प्रभावों से सभी परिचित हैं। अतः यह महसूस किया जा रहा है कि अत्यधिक प्रयोग लाभ की बजाय हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। मनुष्य प्रकृति का संवर्धन है।
हमारा जीवन, समृद्धि और सांस्कृतिक धरोहर पर्यावरण पर ही निर्भर करती है परन्तु अज्ञानता और भेदभाव की वृत्ति ने पर्यावरण को अत्यधिक हानि पहुँचाई है। अतः हमें पर्यावरण के प्रभावों के लिए
क्रिया-कलापों को अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण एवं सावधानी के साथ सम्पन्न करने की आवश्यकता है।
आधुनिक जल, थल, नभ सेनाओं की अत्याधुनिक तकनीक भी प्रकृति के साथ मानव की समरूपता को समाप्त कर रही है। देश की रक्षा के नाम पर आधुनिकतम हथियारों के निर्माण किए जा रहे हैं। हम ऐसे अत्याधिक हथियारों के निर्माण एवं सम्भाविक प्रयोग से पर्यावरण पर परिस्थितिकीय समस्या को परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से थोपने जा रहे हैं। भारत में पर्यावरण आन्दोलन कुछ दशकों से चालू है लेकिन विश्व पर्यावरण आन्दोलन उससे कुछ पुराना है। इन सबका उद्देश्य है कि वैज्ञानिक मानववाद के स्वरूप को सुधार कर प्रकृति के साथ तारतम्यता को पुनः स्थापित करना ।
मानव पर्यावरण की एक संकुचित पहचान नहीं है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि हम इसे पूर्ण रूप से सम्भाल सकें। विज्ञान और तकनीकी का अत्यधिक वेग, जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि व ऊर्जा के अत्यधिक प्रयोग से जुड़ा हुआ है, जिसका देश के पर्यावरण पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।
हमारी आधुनिक प्रवृत्ति, भविष्य की मानवता को ध्यान में रखते हुए इनके अंधाधुन्ध दोहन की ओर अग्रसर होती ही जा रही है। अपनी आवश्यकताओं के लिए परिस्थितिकीय व्यवस्था की सुरक्षा के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। इस विषय में संवैधानिक विधि राष्ट्रीय पर्यावरण की आवश्यकता के अनुरूप प्रतीत नहीं हो रही हैं। यद्यपि केन्द्रीय और राज्य विधान मण्डल ने इस सम्बन्ध में अधिनियम बनाए हैं परन्तु क्रियान्विति
प्रभावशाली नहीं हो पा रही है। देश में प्राचीन परम्परा एवं अनुभव तथा वर्तमान की कठिनाइयों को दृष्टि में रखते हुए कानूनों का निर्माण किया जाना चाहिए। हमें चाहिए कि प्रकृति के साम्यभाव बनाने एवं स्वतंत्र रहने की क्षमता पैदा करने के लिए तकनीकी की बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा कम करने और एक-दूसरे के बीच सौहार्द बनाने का सफल प्रयास आवश्यक है। सभी भारतीय क्षेत्र के लोगों के सभी हितों को ध्यान में रखकर ही पर्यावरण कानूनों की व्याख्या की जानी चाहिए सभी राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय योजनाएँ पर्यावरण परिप्रेक्ष्य में ही बनाई जानी चाहिए। मानव पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने की महती आवश्यकता के अनुरूप ही ग्राम स्तर से राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लिये जायें। निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं।
अतः पर्यावरण में रखकर परम्परागत वृद्धि व वृद्धि के सिद्धान्तों, राष्ट्रीय संसाधनों की उपलब्धता, जनसंख्या वृद्धि को दृष्टि में रखकर पर्यावरण नीति का निर्माण किया जाना चाहिए। देश के नागरिकों में रचनात्मकता में बढ़ोत्तरी करने की मनोवृत्ति का विकास करें कि पर्यावरणीय वातावरण को शुद्ध वातावरण तैयार कर सकें। हमें पर्यावरण व्यवस्था के उत्पादकों का उचित वितरण की तरफ भी व्यक्तिगत ध्यान आकर्षित करने की आवश्यकता है। कौशलपूर्ण उपभोग के लिए प्रतियोगिता आवश्यक है जिससे आर्थिक व्यवस्था की बढ़ोत्तरी में बल मिलेगा।
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