राजस्थान की हस्तकला पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये ।
राजस्थान की हस्तकला पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये ।
उत्तर— राजस्थान की हस्तकला–प्राचीन काल से ही राजस्थानी हस्तशिल्प के उत्कृष्ट नमूने यहाँ के जनमानस की कलात्मक अभिरुचि को प्रदर्शित कर रहे हैं। राजस्थानी हस्तशिल्पों में जयपुर के मीनाकारी व नक्काशी की वस्तुएँ, बाड़मेरी लाख की चूड़ियाँ, प्रस्तर प्रतिमाएँ, मूल्यवान व अर्द्धमूल्यवान रत्न, मिट्टी के खिलौने, ब्ल्यू पॉटरी, जयपुर का हाथीदाँत, सांगानेरी व बगरू की हाथों की छपाई, आकर्षक लहरिये व चूनड़ियाँ, नागरा जूतियाँ, जोधपुर की कसीदाकारी जूतियाँ, बटुए, मोठड़े, बादले व बन्धेज की ओढ़नियाँ, ऊँट की खाल की बनी कलात्मक सजावटी वस्तुएँ, उदयपुर के चन्दन व लकड़ी के खिलौने, नाथद्वारा की फड़ पेन्टिंग्स, मीनाकारी, सलमा- सितारों व गोटे-किनारी के काम से उक्त परिधान, सवाई माधोपुर के लकड़ी के खिलौने व खस के बने पानदान, कोटा की मसूरिया- डोरिया की साड़ियाँ व प्रतापगढ़ के सोने पर थेवा कला आदि देश-विदेश में विख्यात हैं।
राजस्थान की प्रमुख हस्तकलाएँ निम्नलिखित हैं—
(1) मीनाकारी व मूल्यवान रनों की कटाई–सोलहवीं सदी में आमेर के तत्कालीन शासक महाराज मानसिंह लाहोर से कुशल कारीगर लाये थे । मीना का काम फाइनीशिया में सर्वप्रथम किया जाता था। मीनाकारी दो प्रकार की होती है—एक कच्ची और दूसरी पक्की । लाल रंग बनाने में जयपुर के मीनाकार कुशल होते हैं। ताम्बे पर केवल सफेद, काला और गुलाबी रंग ही काम में लाया जा सकता है। मीना तलवार, छूरियों की मुँठ तथा आभूषणों में बाजू, बंगडी, हार ताबीज, कनगती, सिगरेट केस आदि पर किया जाता है।
(2) कपड़ा बुनाई, रंगाई व छपाई–जयपुर के सवाई जयसिंह द्वारा संस्थापित कारखानों में कम कम चार सौ वस्त्रों से सम्बद्ध थे— सीवन खाना, रंगखाना, छापाखाना, जहाँ क्रमश: कपड़े सिले, रंगे एवं छापे जाते थे वहाँ बहुत कीमती कपड़े तैयार होते और सुरक्षित रखे जाते थे। आकोला की छपाई के घाघरे वहाँ ज्यादा चलते हैं । ढूंढाड़ में गहरे रंग पसन्द किये जाते हैं। शेखावाटी व मारवाड़ का बन्धेज बारीक और बढ़िया समझा जाता है। जयपुर में भी बन्धेज का काम बहुत होता है।
छपाई के लिए बालोतरा, बाड़मेर, पाली, जैसलमेर, आकोला, चित्तौड़ आहाड़, सांगानेर, बगरू आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। यद्यपि आजकल रंगाई-छपाई में रासायनिक रंगों का प्रयोग होता है। किन्तु इनसे अलग हट कर अभी भी परम्परागत शुद्ध वानस्पतिक रंगों और प्राकृतिक उत्पादों आदि के उपयोग से रंग तैयार करने की परम्परा विद्यमान है यही विशिष्टता इनको दूसरे हस्तशिल्पियों से अलग पहचान देती है। सांगानेर में सिंथेटिक रंगों का प्रयोग किया जाने लगा है।
(8) लकड़ी, हाथीदाँत व चन्दन की हस्तशिल्प वस्तुएँ–लोक कथाओं के आधार पर कथाशिल्पी कठपुतली का तमाशा दिखाते हैं। कठपुतली बनाने का कार्य उदयपुर में किया जाता है। यहाँ के मकानों के दरवाजों की नक्काशीदार चौखटें, खिड़कियाँ, पालने, झुले, तख्ते, कुर्सियाँ आदि शेखावाटी क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए हैं। आमेर महल व जयपुर संग्रहालय के कार्यालयों के दरवाजे लकड़ी पर पीतल की कटाई का उत्कृष्ट प्रमाण है जो शेखावटी के कारीगरों द्वारा बनाये गये थे। चित्तौड़गढ़ जिले के बस्सी गाँव में गणगौर बनाने, नागौर जिले के मेड़ता कस्बे में खिलौने बनाने, जयपुर में पशु-पक्षियों के सेट बनाने के उद्योग केन्द्रित हैं। बीकानेर, पूंगल, भिवानी में लकड़ी और चन्दन का अच्छा काम प्राचीन काल से होता आया है।
(4) ब्ल्यू पॉटरी–यहाँ की ब्ल्यू पॉटरी में बने भाँति-भाँति के फूलदान, सुराहियाँ, लेम्पस्टैण्ड, गमले एवं तश्तरियाँ गृह-सज्जा के सुन्दरतम नमूनों के रूप में व्यक्ति को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं। 1963 ई. में सवाई रामसिंह शिल्पकला मन्दिर, जयपुर के निदेशक, पद्मश्री कृपालसिंह शेखावत के अथक प्रयासों से पुन: जीवन मिला। इन्होंने विविध प्राचीन अलंकरणों का समावेश कर उन्हें हड़प्पा संस्कृति के नजदीक ला खड़ा किया है ।
(5) लाख का काम–प्राचीन काल से ही विविध रूपों में लाख का उपयोग होता आया है, किन्तु लाख के कई शिल्पियों ने लाख को जो कलात्मक रूप दिये हैं इससे लाख के काम की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी है। साधारण-सी दिखने वाली लाख कलात्मक रूप में परिवर्तित हो जाती है और पेड़ों से गोंद की शक्ल में प्राप्त यह वन-उपज रंग-बिरंगे चूड़े, कंगन, पाटले और हार के रूप में नारी का शृंगार बन जाती है। लाख के सीसे से जड़ित हाथी, टेबल लेम्प, मोर तथा लाख की अन्य कलाकृतियाँ बनायी जाती हैं।
(6) चमड़े पर चित्रांकन–आरम्भ में ऊँट के कुम्पों पर मुनव्वत का काम बीकानेर में ही होता था। कुम्पे तेल रखने के काम में लाये जाते थे, किन्तु बीकानेर के उस्ता परिवार के लोगों ने उन पर नक्काशी का काम आरम्भ किया । बीकानेर के तत्कालीन महाराजा ने ऊँट की खाल पर चित्रकारी करने वाले कलाकारों को अपने यहाँ आश्रय देकर उस कला को भरपूर संरक्षण प्रदान किया था। आजकल ऊँट के खाल से बनी ढाल, सुराही आदि भी चित्रकारी का काम किया जाता है।
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