वनोन्मूलन से पड़ने वाले दुष्प्रभावों को समझाइये ।

वनोन्मूलन से पड़ने वाले दुष्प्रभावों को समझाइये ।

उत्तर–वनोन्मूलन से पड़ने वाले दुष्प्रभाव–वनोन्मूलन का सबसे बड़ा दुष्परिणाम पर्यावरण असन्तुलन है। प्राकृतिक वनस्पति जो प्रकृति का प्रमुख घटक है, का लगातार शोषण किया जा रहा है जिससे प्राकृतिक वनस्पति का आवरण घटता जा रहा है। भौतिक विकास तथा अधिकाधिक लाभ प्राप्ति हेतु प्रकृति के अन्य स्रोतों का भी अधिकाधिक दोहन किया जा रहा है जिससे पर्यावरण में तेजी से परिवर्तन हो रहा है। यह परिवर्तन विनाशकारी हो रहा है तथा इससे वातावरण में असन्तुलन उत्पन्न हो रहा है। वातावरण में असन्तुलन से मानवीय जीवन खतरे में पड़ सकता है।
( 1 ) भू-क्षरण की समस्य| – वृक्ष एवं प्राकृतिक वनस्पतियाँ अपनी जड़ों के द्वारा मिट्टी को बाँधकर व फाड़कर रखती हैं। प्राकृतिक वनस्पति को नष्ट होने तथा इनके सड़ने-गलने से यह स्वयं मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। मनुष्य की गतिविधियों तथा विभिन्न योजनाओं की पूर्ति हेतु वनों का बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा है। जिन क्षेत्रों में वनों का विनाश हुआ है वहाँ की भूमि में मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया समाप्त हो गई है। वन के विनाश से न केवल ऊपरी मिट्टी की परत कट कर बह रही है अपितु ऐसी वन विहीन भूमि में वर्षा के पानी को सोखने की क्षमता भी समाप्त हो गई हैं। वनस्पतियों को नष्ट होने से इन क्षेत्रों की चट्टानें नंगी हो जाती हैं। ऐसी नंगी तथा खाली भूमि में बहते हुए पानी तथा वर्षा बूँदों द्वारा भूक्षरण प्रारम्भ हो जाता है।
(2) हिमस्खलन की समस्या – हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि, सड़कों का निर्माण, यातायात का विकास, बाँध परियोजनाओं का निर्माण तथा उद्योगों के लिए कच्चे माल की पूर्ति हेतु वनों को अधिक काटा गया फलस्वरूप इसका प्रभाव हिमाच्छादित क्षेत्रों पर भी पड़ा। हिमालय से अधिक ऊँचाई वाले भागों में जहाँ सघन वन थे वहाँ भीषण हिमपात होता था किन्तु वनों के कटने के कारण इन क्षेत्रों की जलवायु शुष्क हो गई है।
वन विनाश का हिमपात एवं हिमाच्छादित क्षेत्रों पर दो रूप से प्रभाव पड़ रहा है। प्रथम वनों के कटने से वायुमण्डलीय तापमान बढ़ रहा है जिसके फलस्वरूप हिमपात कम हो रहा है। द्वितीय प्रभाव हिमच्छादित क्षेत्रों का क्षेत्रफल घट रहा है। हिमनद पिघलकर पीछे हटने के साथ-साथ बड़े-बड़े हिमखण्ड टूटकर गिर रहे हैं जिन्हें हिमस्खलन कहते हैं।
( 3 ) कृषि पर प्रभाव – हमारे देश में वन विनाश का विनाशकारी प्रभाव कृषि भूमि की दशाओं तथा कृषि उत्पादन पर पड़ रहा है। पर्वतीय क्षेत्र में वन विनाश के फलस्वरूप जल के स्रोत पतले होते जा रहे हैं तथा कहीं-कहीं सूख गये हैं। जल का अभाव होने के कारण कृषि के लिए सिंचाई की समस्या उत्पन्न हो रही है। मैदानी क्षेत्रों तथा पठारी क्षेत्रों में भी वनस्पतियाँ अपनी जड़ों द्वारा वर्षा के पानी को रोककर भूमिगत जल के रूप में संचित करती हैं। वनों के विनाश तथा सिंचाई द्वारा भूमिगत जल के अतिदोहन से भूमिगत जल स्तर नीचे गिर रहा है।
(4) वन्य जीवों पर प्रभाव-वन्य जीव प्रकृति की धरोहर हैं जिनका वनों के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। घने वनों में वन्य जीव-जन्तु अधिक किन्तु विरल वनों में वन्य जीव-जन्तुओं का अभाव रहता है।
वनों के विनाश एवं वनों में आधुनिकता का प्रभाव बढ़ने से वन्य जीवों एवं पक्षियों का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है।
(5) ईंधन की समस्या वर्तमान समय में सबसे प्रमुख संकट ईंधन का संकट है। ईंधन संकट के समाधान के लिए सबसे अधिक उपयोग वनों से प्राप्त लड़कियों का किया जा रहा है। वनों के निरन्तर विनाश के कारण वर्तमान समय में लकड़ी ईंधन का संकट उत्पन्न हो गया है। वर्तमान समय में विश्व की लगभग 25% जनसंख्या ईंधन के लिए लकड़ी पर निर्भर कर रही है। इसके फलस्वरूप ऊर्जा संकट के साथ-साथ अनेक प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो जायेगी।
(6) स्थानीय वातावरण पर प्रभाव-भूमि, जल एवं स्थानीय वातावरण के संरक्षण में वनों का अत्यधिक महत्त्व है। वन सम्पदा के नष्ट होने के फलस्वरूप मौसम में असामयिक परिवर्तन, अनावृष्टि तथा अतिवृष्टि जैसे अनेक प्राकृतिक प्रकोप उत्पन्न हो रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में वनों की अविवेकपूर्ण कटाई के कारण नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों की पारिस्थितिकी दशा बिगड़ती जा रही है जिसके परिणामस्वरूप भू-स्खलन तथा बाढ़ की घटनाएँ उग्र रूप धारण कर रही हैं।
वन विनाश का सर्वाधिक कुप्रभाव स्थानीय तापमान और वर्षा पर पड़ा है। जिन बस्तियों के चारों ओर पहले सघन वन थे वहाँ के ग्रीष्म ऋतु के तापमान में अधिक वृद्धि नहीं होती थी किन्तु वनों के कटने के फलस्वरूप इन बस्तियों के तापमान में पिछले दशकों की अपेक्षा अधिक वृद्धि हुई है।
वन स्थानीय तापमान को नियंत्रित करते हैं। इसका घना विस्तार सूर्य की किरणों को सीधे पृथ्वी तक नहीं पड़ने देता है जिससे भूमि गर्म नहीं हो पाती है। रात्रि के समय भूमि का तापमान वनों की उपस्थिति के कारण अधिक गिरने नहीं पाता है इसलिए वनाच्छादित क्षेत्रों के वार्षिक तापान्तर में अधिक अन्तर नहीं मिलता है ।
वन विनाश का प्रभाव वार्षिक वर्षा की मात्रा पर भी पड़ता है। जहाँ वन घने होते हैं वहाँ वर्षा की मात्रा भी अधिक होती है किन्तु जहाँ वनों का विस्तार कम होता है, छितरे वन मिलते हैं वहाँ वर्षा कम होती है । जिन क्षेत्रों में वनों का अधिक विनाश हुआ है वहाँ वर्षा की वार्षिक मात्रा में महत्त्वपूर्ण कमी हुई है। हिमालय क्षेत्र में वन विनाश के कारण वार्षिक वर्षा की मात्रा में 3% से 4% की कमी हुई है। 18
वनों का आर्द्रता पर भी प्रभाव पड़ता है। वृक्ष जो जल भूमि से प्राप्त करते हैं उसकी अधिकांश मात्रा वाष्पीकरण की क्रिया द्वारा वायुमण्डल में निकाल देते हैं जिससे स्थानीय वातावरण में नमी की मात्रा अधिक हो जाती है। वनविहीन क्षेत्रों में वनों के अभाव के कारण वातावरण में शुष्कता रहती है। सघन वन सूर्य की किरणों को पृथ्वी पर नहीं पहुँचने देते हैं जिससे इन क्षेत्रों में भूमि की आर्द्रता समुचित मात्रा में विद्यमान रहती है। इसके विपरीत वनों के अभाव में भूमि में वाष्पीकरण की दर बढ़ जाती है और वह शुष्क हो जाती है ।
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