विद्यालयी संस्कृति के मूल तत्त्वों को समझाइये ।
विद्यालयी संस्कृति के मूल तत्त्वों को समझाइये ।
उत्तर – विद्यालयी संस्कृति के मूल तत्त्व निम्न हैं— ( 1 ) योजना–कुशल प्रशासन की धुरी योजना है। जब किसी भी कार्य की योजना बनाई जाती है तो उसके अन्तर्गत प्रारम्भ से लेकर अन्त तक जितने भी कार्य किए जाते हैं उनकी विस्तारपूर्वक एक रूपरेखा तैयार कर ली जाती है। नियोजक जो योजना बनाता है उसमें धैर्य, अनुभव, हिम्मत तथा साहस का होना अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त नियोजक में पूर्ण ज्ञान तथा अन्तर्दृष्टि का होना भी अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि योजना एक सम्पूर्ण बौद्धिक क्रिया है। बिना ज्ञान तथा अन्तर्दृष्टि के कोई भी नियोजक उच्च श्रेणी की योजना नहीं बना सकता है। योजना बनाना भी एक प्रगतिशील प्रक्रिया है। योजना बनाते समय वर्तमान को ध्यान में रखते हुए भविष्य के उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु भूतकाल के अनुभवों तथा निर्देशों से लाभ लेना अधिक श्रेयकर होता है ।
योजना बनाते समय जिन बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। वे निम्नलिखित हैं—
(i) नियोजक के समक्ष योजना का लक्ष्य पूर्णरूप से स्पष्ट होना चाहिए।
(ii) एक बार उद्देश्यों को निर्धारित करने के बाद उनको प्राप्त करने के लिए कार्यों के रूप-रेखा की विस्तृत सूची तैयार कर लेनी चाहिए।
(iii) सभी कार्य किन-किन विधियों, प्रणालियों एवं तकनीकों द्वारा सम्पन्न किए जा सकते हैं यह भी निश्चित कर लेना चाहिए।
(iv) योजना के क्रियान्वयन हेतु सहायक सामग्री का चयन तथा उनका वर्गीकरण करना आवश्यक होता है।
बी.एड. द्वितीय वर्ष (Pa
(2) दिशा-सफल नेतृत्व तथा दिशा-निर्देशन के अभाव में प्राय: सम्पूर्ण योजना तथा संगठन मार्ग से भटक जाते हैं तथा जो अपना परिणाम निकालने में असफल हो जाते हैं इसलिए विद्यालय प्रबन्धन में दिशा-निर्देशन एक आधार के रूप में होता है-निर्णय लेना, निर्णयों की घोषणा करना तथा निर्णयों को व्यावहारिक रूप देना। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संचालन एक साधारण प्रक्रिया न होकर एक जटिल प्रक्रिया है जिसके लिए प्रबन्धक में सूझ-बूझ, दूरदर्शिता, योग्यता, ज्ञान, विवेक आदि गुणों का होना अति आवश्यक है।
एक कुशल प्रबन्धक स्वयं को संस्था का अनिवार्य अंग मानते हुए अपने साथियों के परामर्श से ही किसी विषय पर अन्तिम निर्णय लेना चाहिए। इसके उपरान्त ही उसे अपने विचारों को इस प्रकार से प्रस्तुत करना चाहिए कि वे दूसरों को स्वयं के ही विचार लगे न कि उसके द्वारा जारी किया गया फरमान यानि आदेश। यदि संस्था का संचालक बढ़िया पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करता है तो वह सफल संचालक कहलाता हैं।
(3) स्टाफ की नियुक्ति किसी भी विद्यालय संस्था के महत्त्वपूर्ण अंग संस्था के स्टाफ एवं विद्यार्थी होते हैं। संस्था मुख्य रूप से इन्हीं दोनों पर आधारित है। इसलिए विद्यालय के स्टाफ की नियुक्ति विद्यालय तथा विद्यार्थियों की आवश्यकतानुसार होनी चाहिए। संस्था के मुखिया का यह उत्तरदायित्व होता है कि वह अपनी संस्था के लिए अच्छे एवं योग्य स्टाफ का चयन करें तथा विभिन्न कार्यों का विभाजन उनकी कार्यक्षमता तथा योग्यता के अनुसार करें जिससे वे अपने कार्यों को भली-भाँति पूरा कर सकें।
(4) रिकॉर्ड और रिपोर्ट—विद्यालय संस्थान विभिन्न कार्यों को क्रियान्वित करने का स्थल होता है। एक व्यक्ति इन सब कार्यों का लेखा-जोखा न तो तैयार कर सकता है और न ही उसे सँभाल सकता है। संस्था के मुखिया का यह कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व होता है कि वह इन सब कार्यों का रजिस्टर बनाए तथा उसमें प्रतिदिन के कार्यों का रिकॉर्ड रखकर उसकी गम्भीरता से जाँच करें। वर्ष की समाप्ति पर उसे इन कार्यों ! की रिपोर्ट भी देनी होती है, इसलिए रिपोर्ट सम्बन्धी खाका दिमाग में बनाकर रखें ताकि अन्तिम रिपोर्ट बनाने में उसे किसी प्रकार की कोई समस्या न आए। यह बात मुखिया को ध्यान में रखनी है कि यह रिपोर्ट उसे उच्च अधिकारी को सौंपनी है। इसलिए यह पूर्णरूप से गुप्त होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रत्येक विद्यार्थी की उपलब्धि, दण्ड तथा पुरस्कार आदि का भी रिकॉर्ड बनाए रखना होता है।
(5) बजट— आधुनिक विज्ञान तथा तकनीकी के युग में विद्यालयों के लिए अत्याधुनिक शिक्षण विधियों को अपनाना अति आवश्यक है क्योंकि ऐसा न करने पर, उस संस्था के विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थियों से प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। इन आधुनिक सुविधाओं को मुहैया कराने के लिए विद्यालयों के आर्थिक पक्ष पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। ऐसे में विद्यालय के मुखिया का यह उत्तरदायित्व बन जाता है कि वह आय प्राप्ति के लिए नवीन साधन एकत्रित करे तथा सभी प्रकार के अपव्य पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाए। यदि बजट अच्छा होगा तो संस्था भी ठीक प्रकार से कार्य करते हुए उन्नति के पथ पर अग्रसर रहेगी।
( 6 ) नियन्त्रण— सम्पूर्ण प्रशासनिक प्रक्रिया का निरीक्षण नियन्त्रण कहलाता है। विद्यालय के सम्पूर्ण ताने-बाने, पाठ्य पुस्तकों का चयन, समय-सारणी, पाठ्य सहगामी क्रियाएँ, अर्थव्यवस्था तथा बजट आदि । सभी के नियन्त्रण की अति आवश्यकता है। नियन्त्रण ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा किसी कार्य के परिणामों का मूल्यांकन किया जा सकता है। नियन्त्रण प्रगति को सुनिश्चित करता है तथा भावी योजनाओं के क्रियान्वयन को आधार प्रदान करता है।
( 7 ) संगठन— संगठन के विषय में जे. बी. सीयर्स महोदय ने कहा है, “संगठन कार्य करने की मशीन है जिसका निर्माण व्यक्तियों, वस्तुओं, विचारों, धारणाओं, प्रतीकों, स्वरूपों, नियमों, सिद्धान्तों के द्वारा या इन सबके संयोग से होता है। मशीन स्वतः कार्य कर सकती है या इसका संचालन मानवीय निर्णय एवं इच्छा के द्वारा किया जा सकता है |
उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि विद्यालय के उचित वातावरण के लिए पर्याप्त सामग्री को व्यवस्थित रूप से संगठित करना अत्यन्त आवश्यक होता है। संगठन प्रशासन का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। संगठन के बिना विद्यालय में प्रत्येक वस्तु अव्यवस्थित रहती है जिसके परिणामस्वरूप समय सामग्री तथा शक्ति का अपव्यय होता है |
संगठन से सम्बन्धित दो प्रकार की व्यवस्थाएँ हैं—
(i) मानवीय एवं
(ii) भौतिक ।
मानवीय संगठन के अन्तर्गत शिक्षक, छात्र वर्ग, कक्षाएँ, समितियाँ एवं अन्य कर्मचारी वर्ग आते हैं। भौतिक संसाधनों के अन्तर्गत विद्यालय की इमारत, फर्नीचर, पुस्तकालय एवं अन्य सामग्री आती हैं। इन दोनों प्रकार की सामग्रियों को इस प्रकार से संगठित किया जाना चाहिए जिससे समस्त कार्यक्रम सुचारु रूप से क्रियान्वित किया जा सके। योजना तथा संगठन अलग-अलग न होकर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। संगठन भिन्न-भिन्न संसाधनों को इकट्ठा करता है जिससे सभी कार्यक्रमों को उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सुविधाजनक ढंग से क्रियान्वित किया जा सके।
( 8 ) तालमेल – साधारण शब्दों में ताल-मेल का अर्थ है संगठन से सम्बन्धित जितने भी तत्त्व हैं उनमें पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करना । यदि इनमें ताल-मेल का अभाव रहता है तो कई प्रकार की समस्याएँ पैदा हो सकती हैं तथा समय एवं श्रम का अपव्यय भी हो सकता है। वर्तमान समय में विद्यालयी कार्यविधि की बहुत आलोचना हो रही है जिसका एकमात्र कारण विद्यालय की भिन्न-भिन्न क्रियाओं में तालमेल का न होना होता है। इसलिए मुखिया को सभी प्रकार की क्रियाएँ सुनियोजित करके उनमें उचित समन्वय स्थापित करना चाहिए।
( 9 ) मूल्यांकन विद्यालय प्रबन्ध प्रक्रिया का मूल्यांकन एक अति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। किसी भी कार्य को तब तक पूर्ण नहीं माना जा सकता है जब तक उसके परिणामों का मूल्यांकन उचित प्रकार से न कर लिया गया हो। मूल्यांकन के द्वारा इस बात का पता चलता है कि हमने अपने उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त किया है साथ ही साथ उस कार्य के दोषों का भी ज्ञान हो जाता है जिससे हमें कार्य में पूर्ण सफलता नहीं प्राप्त हो रही है। इसलिए विद्यालय प्रबन्धन के कार्यों में निरन्तर सफलता के लिए प्रगति होती रहनी चाहिए।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
- Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Facebook पर फॉलो करे – Click Here
- Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Google News ज्वाइन करे – Click Here