व्यवहारवाद, रचनावादी तथा सामाजिक प्रतिमान आप क्या समझते हैं ? विभिन्न प्रतिमानों के आंकलन के उद्देश्य बताइए।
व्यवहारवाद, रचनावादी तथा सामाजिक प्रतिमान आप क्या समझते हैं ? विभिन्न प्रतिमानों के आंकलन के उद्देश्य बताइए।
अथवा
व्यवहारवाद प्रतिमान में आकलन के उद्देश्य बताइये ।
उत्तर – ( 1 ) व्यवहारवाद प्रतिमान (Behaviourism Paradigm) – व्यवहारवाद प्रतिमान छात्रों के व्यवहारों में परिवर्तन कर उन्हें उचित प्रतिक्रिया अथवा उद्दीपन करने हेतु प्रेरित करता है। व्यवहारवाद प्रतिमान में छात्रों के अन्तः मस्तिष्क को शिक्षक उद्बलित कर विभिन्न शब्दों को निकलवाने का प्रयास करता है। यह प्रतिमान छात्रों को प्रोत्साहन के साथ अधिगम पर बल देता है। व्यवहारवाद एक वैश्विक दृष्टिकोण है जो उद्दीपन एवं प्रतिक्रिया के सिद्धान्त पर कार्य करता है। सभी व्यवहारों का कारण बाहरी उद्दीपन होता है। सभी की चेतना के आन्तरिक मानसिक स्थिति की आवश्यकता को व्यवहारों के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है । व्यवहारवाद अधिगम सिद्धान्त वस्तुनिष्ठ व्यवहार निरीक्षण का सिद्धान्त है तथा यह स्वतंत्र मानसिक गतिविधियों पर केन्द्रित होता है।
व्यवहारवाद सिद्धान्तकारों ने व्यवहार को एक नए पर्यावरण के अधिग्रहण (Acquisition) से अधिक कुछ नहीं, के रूप में परिभाषित किया है। व्यवहारवाद यह मानता है कि अधिगमकर्ता आवश्यक रूप से क्रियाशील हो सकता है यदि उसे प्रतिक्रिया के लिए उद्दीपित किया जाए। उसके अधिगम व्यवहारों को सकारात्मक एवं नकारात्मक पुनर्बलन के द्वारा एक दिशा एवं आकार प्रदान किया जा सकता है। सकारात्मक अथवा नकारात्मक पुनर्बलन किसी कार्य के पुनः होने अथवा करने की संभावना में वृद्धि करता है जबकि सकारात्मक अथवा नकारात्मक दण्ड किसी कार्य के पुनः होने अथवा करने की संभावना में कमी करता है । यह ज्ञानात्मक अधिगम का अग्रगामी व्यवहार है इसको अधिगम में निम्न प्रकार से उपयोग करते हैं—
(i) अधिगमकर्ता को तुरन्त पृष्ठपोषण प्रदान किया जाता है।
(ii) अध्ययन सामग्री को छोटे-छोटे पदों में करके अध्ययन कराया जाता है।
(iii) अधिगम के स्वरूप को अत्यधिक सरल से कठिन की ओर कराया जाता है।
(iv) उद्दीपक को सकारात्मक पुनर्बलन प्रदान किया जाता है ।
(v) स्किनर का विश्वास था कि दण्ड के स्थान पर सकारात्मक पुनर्बलन अधिगमकर्ता के व्यवहार को बदलने में प्रभावी होता है।
वी.एफ. स्किनर का ‘सक्रिय अनुकूलन’ का सिद्धान्त भी छात्रों के अधिगम हेतु उद्दीपन एवं प्रतिक्रिया द्वारा व्यवहारों के परिवर्तन को स्पष्ट करता है। साधारणतयाः अनुकूलन सिद्धान्त एक साधारण पृष्ठपोषण प्रक्रिया है। यदि ईनाम अथवा पुनर्बलन अधिगमकर्ता अथवा उद्दीपक को प्रतिक्रिया हेतु प्रोत्साहित करता है तो भविष्य में उसके प्रतिक्रिया करने की अत्यधिक संभावना होगी।
( 2 ) रचनावादी प्रतिमान (Constructivist Paradigm ) – प्रतिमान (Paradigm), अवधारणाओं विचारों एवं नमूनों का एक ऐसा समूह है जिसमें सिद्धान्तों, अनुसंधान विधियों, अभिधारणाओं एवं मानकों का किसी क्षेत्र के लिए क्या वैधानिक योगदान है, को सम्मिलित किया जाता है। सामान्य अर्थों में प्रतिमान से तात्पर्य किसी वस्तु से सम्बन्धित स्पष्ट उदाहरण, मॉडल या नमूने से है । इस पद का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के इतिहासकार थॉमस कुहन (Thomas Kuhn) द्वारा सन् 1962 में अपनी पुस्तक “The Structure of Scientific Revolution” में किया गया था।
रचनावादी प्रतिमान इस बात पर केन्द्रित होता है कि छात्र अपने चारों ओर के संसार के बारे में पहले से क्या जानता है? तथा इस संसार के प्रति उनकी समझ कितनी है? इसका प्रयोग शिक्षक आधार के रूप में करता है । वह शिक्षित करता है कि छात्र संसार (व्यावहारिक ज्ञान) के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान ले सके जिसके परिणामस्वरूप छात्र न केवल किसी वस्तु के वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में ज्ञानवर्धन करते हैं बल्कि उसके बारे में विश्लेषणात्मक रूप से चिन्तन भी करते हैं जिससे वे उस वस्तु या तथ्य का प्रयोग जीवन की किसी भी परिस्थिति में कर सकते हैं।
कुछ संज्ञानात्मक कौशल सामान्य होते हैं किन्तु उनका प्रयोग विभिन्न शैक्षिक एवं वास्तविक दुनिया के कार्यों में किया जाता है। दूसरी ओर कुछ सज्ञानात्मक कौशल सन्दर्भ आश्रित होते हैं और ज्ञान एवं कौशल के विशिष्ट पदों के प्रयोग होते हैं। यहाँ सीखने के संज्ञानात्मक कौशल और सन्दर्भों के मध्य विरोध उत्पन्न हो जाता है। कुछ संज्ञानात्मक कौशल हस्तान्तरणीय होते हैं जबकि कुछ विशिष्ट होते हैं।
रचनावादी प्रतिमान के प्रयोजन (Purposes of Constructivist Paradigm ) – रचनावादी प्रतिमान के प्रयोजन निम्नलिखित हैं—
(i) छात्रों को रचनावाद का प्रत्यय समझाना।
(ii) छात्रों को आंकलन हेतु रचनावाद के सिद्धान्तों का प्रयोग सिखाना।
(iii)छात्रों को परम्परागत आंकलन एवं रचनावाद आंकलन के मध्य अन्तर स्पष्ट करना ।
(iv) आंकलन में व्याप्त भ्रान्तियों से छात्रों को अवगत कराना ।
रचनावादी प्रतिमान के आयाम (Dimensions of Constructivist Paradigm)– प्रतिमान के आयाम, व्यापक एक मॉडल है जिसका उपयोग शोधकर्ता एवं सिद्धान्तवादी अधिगम एवं अधिगम प्रक्रिया को परिभाषित करने के लिए करते हैं। आयाम के ढाँचे के माध्यम से निम्न सहायता प्राप्त होती है —
(i) अधिगम में ध्यान बनाए रखने में,
(ii)अधिगम प्रक्रिया का अध्ययन करने में एवं
(iii) पाठ्यचर्या योजना, शिक्षण तथा अधिगम के पाँच महत्त्वपूर्ण पहलुओं का आंकलन करने में।
अधिगम के पाँच आयाम होते हैं जो कि निम्नलिखित हैं —
(i) प्रथम आयाम — मनोवृत्ति एवं धारणाएँ
(ii) द्वितीय आयाम — वांछित एवं एकीकृत ज्ञान
(iii) तृतीचय आयाम — ज्ञान का विस्तृतीकरण एवं परिष्कृतिकरण
(iv)चतुर्थ आयाम — सार्थक ज्ञान का उपयोग
(v) पाँचवाँ आयाम — मस्तिष्क की उत्पादक बातें।
( 3 ) सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिमान (Socio-Cultural Paradigm) – सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिमान सामाजिक अन्तःक्रियाओं एवं सामाजिक व्यवहारों के उत्प्रेरक प्रतिमानों का समुच्चय है। इस समुच्चय में ज्ञान, विज्ञान, कला, नैतिक मूल्य एवं प्रथाएँ सम्मिलित होती हैं। सांस्कृतिक प्रतिमान मनुष्य के वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के स्वरूप का निर्माण, निर्देशन एवं नियमन और नियंत्रण करते हैं।
इसमें प्रतीकों द्वारा अर्जित तथा सम्प्रेषित मानव व्यवहारों के सुनिश्चित प्रतिमान सन्निहित होते हैं। मनुष्य का सार तत्त्व यह है कि वह एक ‘जैविक सामाजिक प्राणी’ है अर्थात् वह जैविक प्राणी के साथ-साथ एक सामाजिक प्राणी भी है। मानव का जन्म समाज में होता है तथा व सामाजिक वातावरण में ही विकसित होता है।
प्रत्येक शिशु का विकास भौतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक तीनों दृष्टियों से भिन्न रूप से होता है। यह विकासशील शिशुओं के भौतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण में भिन्नता के कारण होता है । इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति के भौतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व एवं व्यवहारों में उसके समाज विशेष की छाप होती है ।
प्रत्येक समाज एवं भौतिक-सांस्कृतिक वातावरण का अपना एक स्वतंत्र मानदण्ड, आदर्श और मूल्य होते हैं, जिसके अनुसार उनमें अन्तः पारस्परिक क्रियाओं का विकास होता है। इस प्रकार व्यक्ति के व्यवहार प्रतिरूपों, व्यक्तित्त्व के शीलगुण आदि के विकास में सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण का महत्त्वपूर्ण स्थान या भूमिका रहती है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का सन्तुलित या असन्तुलित विकास भी व्यक्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश पर निर्भर करता है ।
प्रत्येक प्राणी अथवा मनुष्य का जन्म भिन्न-भिन्न वातावरण समाज संस्कृति तथा आर्थिक परिवेश में होता है। ये सामाजिक-आर्थिक परिवेश बालकों के मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास में सहायक होते हैं । प्रत्येक बालक को बुद्धि उसके परिवेश एवं स्थानीय पर्यावरण से प्रभावित होती है ।
इस तरह इनके कुछ अपने सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिमान होते हैं जिनके आधार पर उनका आंकलन किया जाता है। ये निम्नलिखित हैं—
(1) प्रत्येक समाज तथा समुदाय की स्वयं की संस्कृति होती है।
(ii) समाज इन सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर विकास करता है। ये मूल्य उनके जीवन एवं बौद्धिकता से सम्बन्धित होते हैं।
(iii) विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में आंकलन उनके परिणामों में भिन्नता प्रदर्शित करते हैं। इनकी विभिन्नता के आधार पर ही उनके आंकलन के लिए अलग-अलग प्रतिमान स्थापित किए जाते हैं जिसके द्वारा परिणामों को शुद्धता से व्याख्यायित किया जा सके।
सामाजिक सांस्कृतिक प्रतिमान आंकलन के उद्देश्य (Objectives of Assessment of Socio-Cultural Paradigm ) – सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिमान के निम्नलिखित उद्देश्य हैं—
(i) सामाजिक संगठन के गुणों, संभावनाओं एवं सांस्कृतिक स्तर के आयाम का आंकलन करना ।
(ii) विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के परिणामों एवं निष्कर्षों का तुलनात्मक विश्लेषण करना।
(iii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ में गुणात्मक आंकलन का पता लगाना।
(iv) सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का ज्ञान प्राप्त करना ।
(v) शिक्षा की स्थिति एवं समाज में व्याप्त मूल्यों को स्पष्ट करना।
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