शारीरिक विकलांगता से आप क्या समझते हैं ? शारीरिक विलांगता बालकों के प्रकार व उनके स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।

शारीरिक विकलांगता से आप क्या समझते हैं ? शारीरिक विलांगता बालकों के प्रकार व उनके स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर— विकलांगता का अर्थ विकलांगता एक ऐसी स्थिति है जी किसी भी व्यक्ति को किसी भी अवस्था में उसे व्यवहार, कार्य शक्ति, विचार एवं नियमित कृत्य को न्यूनाधिक प्रभावित कर आर्थिक, मानसिक, सामाजिक व भावात्मक असन्तुलन उत्पन्न कर देती है।
महेश भार्गव एवं भावना लवानिया के अनुसार, “शैक्षिक दृष्टि से विकलांगता किसी भी प्रकार की निर्योग्यता हो सकती है जो बालक विशेष को औसत बालकों की भाँति शिक्षा ग्रहण करने में असमर्थ बनाती है। ऐसे बालक सामान्य शिक्षा पद्धति से लाभान्वित नहीं हो पाते। उनके लिए अतिरिक्त सहायता तथा विशिष्ट शिक्षण की आवश्यकता होती
शारीरिक विकलांगों के प्रकार का स्वरूप–शारीरिक विकलांगों के प्रकारों का प्रायः निम्नांकित वर्गीकरण किया जाता है—
(A) चक्षु विकलांग (Visually Handicappted or Blind) – चक्षु विकलांगता या दृष्टिहीनता एक सरलतापूर्वक पहचानी जा सकने वाली विकलांग अवस्था है। प्राचीन काल से ही यह विकलांग अवस्था अत्यन्त दुखद मानी जाती रही है। ऐसे विकलांगों को जीवन पर्यन्त समाज की दया, सहानुभूति पर पराश्रित रहना पड़ता है। चक्षुहीनता के प्रकार निम्नांकित है—
(1) नेत्रहीन (Blind) – बालक–इस वर्ग में वे सभी चक्षु विकलांग बालक आते हैं जो जन्म से ही पूर्ण या आंशिक रूप से (partial) अंधे होते हैं या अल्पायु में ही पूर्ण या आंशिक रूप से दृष्टिहीन हो जाते हैं। इन्हें सामान्य विद्यालयों में शिक्षा देना सम्भव नहीं हो पाता। उनके लिए विशिष्ट अन्ध-विद्यालयों की व्यवस्था करनी होती है।
(2) आंशिक दृष्टि सम्पन्न (Partially Visioned)–  बालकइस वर्ग में वे बालक आते हैं जो अपनी दृष्टि में कभी (myopia) का निराकरण चश्में (spectacles) या सम्पर्क ताल (contact lenses) की सहायता से कर सकते हैं।
कारण (Causes) – प्राय: संक्रामक रोग दुर्घटना या चोट, वंशानुगत प्रभाव, साधारण रोग विष का प्रभाव आदि चक्षु विकलांगता के कारण बनते हैं। नेत्र रोग विशेषज्ञों के अनुसार उपर्युक्त कारणों से उत्पन्न चक्षुहीनता का उपचार न कराना अथवा उपचारोपरान्त असावधानी करने एवं धूल, धुआँ व धूप भी आंशिक, चक्षुहीनता, रतौंधी (night blindness) तथा रंग-अंधता (colour blindness) के कारण बनते हैं। चक्षुहीनता का बाल विकास पर प्रभाव ( effect of blindness of child development) निम्नांकित होते हैं—
(i) बालक का गतिहीन होना– दृष्टिहीनता के कारण ऐसे बालकों को सामाजिक या शैक्षिक क्रियाकलापों से दुर्घटना की आशंका से दूर रखा जाता है जिसके कारण इनमें गतिहीनता आ जाती है।
(ii) ज्ञानेन्द्रियों का अधिक संवेदनशील होना–दृष्टिहीनता की कमी की क्षतिपूर्ति ऐसे विकलांग बालक अपनी अन्य ज्ञानेन्द्रियों (जैसेश्रवण व स्पर्श के अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील बना कर करते हैं। इसके कारण वे संगीत व हस्त कार्य या उद्योग में प्रवीणता प्राप्त कर लेते हैं।)
(iii) समाजीकरण (Socialization) की प्रक्रिया का अवरुद्ध होना – सामुदायिक शैक्षिक क्रियाकलापों में भाग लेने में असमर्थ होने के कारण उनका समाजीकरण नहीं हो पाता ।
(iv) स्मरण शक्ति की तीव्रता — ऐसे बालकों की एकाग्रता (attention), स्मरण शक्ति ( memory), कल्पना तर्क आदि शक्तियाँ प्रायः अन्य बालकों की अपेक्षा संवर्धित हो जाती है।
चक्षुहीन बालकों की लिपि (Script of the Blind) — लुई ब्रेल न अन्धे बालकों को स्पर्श पढ़ने में समर्थ बनाने हेतु ‘ब्रेल लिपि’ का आविष्कार किया था । यह लिपि मोटे कागज पर छः विभिन्न उभरे हुए बिन्दु संकेतों के माध्यम से दृष्टिहीन अपने हाथ की अनामिका के अग्र भाग से स्पर्श कर पढ़ सकते है। इन्हीं उभरे हुए बिन्दुओं से अक्षर, शब्द, संख्या, विरामादि चिह्न पढ़े जा सकते हैं। दृष्टिहीन बालकों के शिक्षण में यह लिपि वरदान सिद्ध हुई है। जिसके द्वारा अनेक दृष्टिहीन बालक अंध विद्यालयों में पढ़कर उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर सके हैं।
(B) वाक् विकलांगता (Speech Handicapped or Dumb) – डॉ. महेश भार्गव व भावना लवानिया का मत है कि- “सामान्यतया वाक् ध्वनि का न होना ही जिससे वक्ता का मन्तव्य श्रोता न समझ सके या अस्पष्टता से या विलम्ब से समझे, वाक् विकलांगता है। वाक् दोष, असंगत ध्वनि, हकलाना, तुतलाना आदि विकार वाक् विकलांगता की श्रेणी में आते हैं। शैक्षिक दृष्टि से वाक् विकलांगता एक ऐसा वाणी विकार है जिससे वाणी अस्पष्ट, अनियमित और शब्दों के स्थान पर ध्वनि के रूप में प्रकट होती है । “
कारण, प्रकार एवं शैक्षिक निहितार्थ – वाक् विकलांगता का प्रमुख कारण श्रवण शक्ति का ह्रास, उसका विकार ग्रस्त एवं शैक्षिक निहितार्थ होना या पूर्णतया न होना है। कुछ कारण सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं मानसिक भी होते हैं। जैसे— विकृत ओष्ठ, तालु, कंठ आदि तथा देश, स्थान, वंशानुगत एवं विद्यालयीय प्रभाव भी कारण होते हैं।
वाक् विकलांगता का अध्ययन निम्नांकित रूप से वर्गीकृत कर प्रायः किया जाता है—
( 1 ) वाक् दोष (Articulatory Disorders)—इसे उच्चारण दोष कहते हैं। उच्चारण में बाधा के कारण वातावरणीय प्रभाव, निर्देशन का अभाव तथा वाक् अंगों जैसे-कंठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दाँत व श्रवणेन्द्रियों का विकार होता है। इस दोष में निराकरण हेतु विद्यालय में समूह कार्य, वाक् खेल, बाल मेले, टेप रिकार्डर व वाक् ग्रामोफोनरिकॉडर व रेडियो सुनने का अभ्यास आयोजित किए जाने चाहिए।
( 2 ) तालु व ओष्ठ विकृति (Cleft Palate and Lip)– प्राय: जन्म के साथ ही उत्पन्न होती है क्योंकि पर्यावरण में इन अंगों की अस्थि में विकार आ जाता है। इसका निराकरण शल्य प्लास्टिक क्रिया अथवा शब्द – क्रिया द्वारा किया जाता है।
( 3 ) श्रवण – विकृति (Hearing Impairment) — पूर्ण बधिर एवं आंशिक बधिर बालकों के वाणी – तंत्र विकार रहित होते हैं किन्तु ध्वनि सुन सकने की अक्षमता के कारण उनमें श्रवण – विकृति आ जाती है। इसका निराकरण विशिष्ट श्रव्य सहायक सामग्री टेपरिकॉर्डर आदि के प्रयोग से किया जा सकता है।
(4) स्वरतन्त्रिका दोष (Vocal Disorders) — इस दोष से प्रभावित व्यक्ति की वाक्-ध्वनि की तीव्रता एवं आयाम से स्पष्ट विचलन (deviation) पाए जाते हैं जिन्हें सावधानी से दूर किया जाना चाहिए ।
(5) विलम्बित वाणी विकास (Delayed Speech)– सामान्यतः बालक 9 से 15 माह के बीच में ही ध्वनि उच्चारण करने लगते हैं किन्तु कुछ बालकों में यह प्रक्रिया देर से आरम्भ होती है जिसके कारण प्रायः श्रवण – विकृति, मंद बुद्धि, संवेगात्मक अवरोध, वातावरणीय प्रभाव आदि होते हैं । अत: कारणें को जानकर उनका उपचार किया जाना चाहिए ।
(C) श्रवण – विकलांग (Aurally Diabled Handicapped) —कानों के द्वारा सुनने में बाधा से उत्पन्न अयोग्यता व्यक्ति विशेष को श्रवण विकलांग बनाती है। यह विकलांगता ऐसे बालकों को श्रवण-शक्ति (hearing) दोषयुक्त होने से उन्हें शाब्दिक या बोलकर अभिव्यक्त करने में असमर्थ बनाती है। यही कारण है कि बहरे लोग गूंगे ( Deaf) भी होते हैं । अतः सामान्य स्कूलों में शैक्षिक शिक्षण की अपेक्षा श्रवण-विकलांगों की शिक्षा हेतु पृथक गूंगे व बहरों के विशिष्ट विद्यालयों की व्यवस्था की जाती है जहाँ प्रशिक्षित अध्यापक विशिष्ट उपकरणों की सहायता से उनका विशिष्ट शिक्षण करते हैं ।
– प्रकार – श्रवण – विकलांगता अथवा बहरेपन को प्रायः दो प्रकारों में विभक्त किया जाता है—1. बधिर या बहरे (deaf) तथा 2. ऊँचा सुनने वाला (Hard of hearing) । इन दोनों प्रकारों में भाषा को सीखने की योग्यता भिन्न होती है। ऊँचा सुनने वालों को श्रवण सहायक यंत्रों (Hearing aids) की सहायता से शिक्षित किया जा सकता है किन्तु बधिरों को, जिन्होंने कभी वाणी या भाषा सुनी ही नहीं, शिक्षा व्यवस्था विशिष्ट प्रकार की होती है .
कारण — श्रवण-दोष सम्बन्धी कारण विशेषज्ञों के अनुसार निम्नांकित होते हैं—
(1) प्रसव के समय असावधानी – रक्त प्रवाह की विकृत संचार, रक्त में श्वेत रक्ताणुओं का उचित अनुपात में न होना, ऑक्सीजन का अभाव, शल्य उपकरणों से पहुँची चोट आदि के कारण भी श्रवण विकार हो जाते हैं।
(2) गर्भावस्था में श्रवण विकार –  गर्भावस्था के समय माता के रोगी होने, मदिरा सेवन, दूषित भोजन आदि के कारण श्रवण विकार हो जाते हैं।
(3) वंशानुगत – कुछ श्रवण-विकार कभी-कभी वंशानुगत भी होते हैं। जन्म के बाद बालक की श्रवण-तंत्रिकाओं में विकार हो जाता
(4) रोग – खसरा, चेचक, मोतीझरा, कनफेड़ (Mumps), कुकरखांसी, कान में घाव व मवाद होने पर रोगी के कारण श्रवण शक्ति प्रभावित हो जाती है ।
(5) दुर्घटना – कभी किसी दुर्घटना में कान के अन्दर कर्ण पटल (ear membrance) पर चोट लगने, कान बहने आदि से भी श्रवण-दोष होते हैं।
श्रवणी विकलांगता के निराकरण के शैक्षिक निहितार्थ – निम्नांकित उपायों द्वारा श्रवण-शक्ति का विकास किया जा सकता है—
(i) वाचन का विकास (Speech Development) – दृश्य-सामग्री के प्रयोग व ध्वनि के कम्पनों व स्पर्श द्वारा बधिरों की वाचन क्षमता का कुछ सीमा तक विकास किया जा सकता है। बधिर बालक अपने मुख में जबड़ों, जिह्व, ओष्ठ, तालु, कंठ आदि की पेशीय गतियों का अनुभव कर अपनी वाणी पर नियंत्रण करना सीखता है। आंशिक बधिर बालकों की श्रवण शक्ति का श्रवण – सहायक यंत्रों की सहायता व प्रयोग से विकास किया जा सकता है।
(ii) पठन (Reading) — बधिरों का भाषायी विकास व पठन योग्यता परस्पर सम्बन्धित है जो एक जटिल कार्य है । इसके लिए शिक्षकों को कठोर परिश्रम करने व विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है ।
(iii) ऊँचा सुनने वाले बालकों की श्रवण-शक्ति का विकास– श्रवण सहायक यंत्रों के नियमित प्रयोग का अभ्यास करने, टी.वी. द्वारा ध्वनि विभेदीकरण करने, ओष्ठ-पठन (lip reading) के विकास तथा उनके वाणीगत दोषों के निकराकरण के निरन्तर अभ्यास द्वारा ऊँचा सुनने वाले बालकों की श्रवण-शक्ति का विकास किया जा सकता है।
(iv) ओष्ठ द्वारा वाचन (Lip Reading)– बधिर वाणी को नहीं सुन सकते, अतः उसका अनुकरण नहीं कर सकते । इसलिए उन्हें केवल ओष्ठ-गति व मुख-मुद्रा से हावभावों को देखकर ही बोले गए अंश का काल्पनिक अर्थ निकालने का प्रयास करते हैं तथा प्रशिक्षित हो वे ओष्ठ गति व मुख मुद्रा द्वारा ही अपने विचार व भावों को पढ़कर व्यक्त करते हैं। यह सांकेतिक पद्धति द्वारा वाचन का प्रशिक्षण देना कहलाता है।
(v) भाषायी विकास (Language Development) – उपर्युक्त पद्धति द्वारा ही शनैः-शनैः बधिरों में भाषायी विकास सम्भव है जिसे विशिष्ट प्रकार से प्रशिक्षित शिक्षक ही कर सकते हैं।
(D) विरूपित बालक (Crippled or Orthopaedically Handicapped Child)– विरूपित बालक वे बालक कहलाते हैं जो अपने विभिन्न अंगों के कारण समाज में अपना समायोजन (Adjustment) नहीं कर पाते जैसे—शारीरिक रूप से विकलांग, विकृत हड्डियों वाले, लूले- लंगड़े या विषमांग बालक, विरूपित बालक (crippled children) कहलाते हैं।
विरूपित बालक प्रायः दो वर्गों में विभक्त किए जाते हैं—(1) पंगुता अथवा शारीरिक विकृति युक्त तथा (2) रोगों से ग्रसित होने से विकृति युक्त । इन बालकों की चिकित्सा शिक्षण एवं अधिगम की क्षमता तीनों में समन्वय (co-ordination) अत्यन्त आवश्यक होता है।
शारीरिक विकलांग बालकों की शिक्षा (Education of. Physically Disabled or Handicapped Children)– शारीरिक विकलांग बालक, सामान्य बालक से अधिगम की सामर्थ्य की दृष्टि से कम होता है। अतः ऐसे बालकों की शिक्षा व्यवस्था भी विशिष्ट प्रकार की होनी चाहिए। इनमें से कुछ बालक तो सामान्य विद्यालयों की सामान्य कक्षाओं में शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई का अनुभव नहीं करते जबकि गम्भीर रूप से शारीरिक विकलांग बालकों के लिए पृथक् विशिष्ट कक्षाओं तथा विशिष्ट आवासीय विद्यालयों की व्यवस्था किया जाना आवश्यक होता है। शारीरिक विकलांग बालकों को शिक्षा हेतु निम्नांकित उपाय अपनाए जाने चाहिए-
(1) विशिष्ट भ्रमणशील अध्यापक (Special Visting Teachers ) – भ्रमणशील अध्यापकों में मनोविज्ञान शास्त्री, उच्चारण सुधारक, समाजसेवी, चिकित्सक आदि की सेवाएँ शारीरिक विकलांगों को विद्यालयों में परामर्श देने ही लानी चाहिए जो समय-समय पर इन विद्यालयों में भ्रमण कर सकें।
(2) विकलांग विद्यालय (Schools for Handicapped or Physically Disabled) – गंभीर रूप से विकलांग बालक-बालिकाओं हेतु पृथक् विद्यालयों की व्यवस्था वांछनीय व अपरिहार्य है। ऐसे विद्यालयों में वैज्ञानिक विधि से शिक्षण प्रशिक्षण, प्रशिक्षित अध्यापक, आवासीय (residentail) व्यवस्था, खेल व मनोरंजन व्यवस्था, आजीविकोपयोगी उद्योगों का प्रशिक्षण, पुनर्वास ( rehabilitation), रुचि कार्य (hobbies) ‘ आदि का प्रावधान किया जाना चाहिए।
(3) विशिष्ट कक्षाएँ (Special Classes) – सामान्य विद्यालयों में कम विकलांग बालक-बालिकाओं हेतु पृथक कक्ष में विशिष्ट शिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे उनका उपचारात्मक शिक्षण (remedial teaching) हो सके। उन्हें विशिष्ट सहायक यंत्रों के उपयोग व प्रयोग का प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए।
(4) विशिष्ट पाठ्यक्रम (Special Curriculum)– विकलांग बालक-बालिकाओं की विकलांगता, सामर्थ्य, अभिरुचि व स्तर के अनुकूल विशिष्ट पाठ्यक्रम निर्मित कर उसे प्रभावी किया जाना चाहिए।
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