शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषा स्पष्ट कीजिए। शिक्षण के उद्देश्य एवं कार्यों को संक्षेप में समझाइये ।

शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषा स्पष्ट कीजिए। शिक्षण के उद्देश्य एवं कार्यों को संक्षेप में समझाइये ।

उत्तर – शिक्षण का अर्थ, उद्देश्य एवं कार्यों को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा समझाया जा सकता है—
 ( 1 ) शिक्षण का अर्थ सूचना देना है— शिक्षण का अर्थ सूचनायें देना भी है। आजकल दुर्भाग्यवश शिक्षण के इस रूप पर विशेष बल दिया जाता है। शिक्षक बहुत सी नई नई बातें बालकों को बतलाते हैं, जिनका ज्ञान बालक स्वयं नहीं प्राप्त कर सकते। प्रारम्भिक कक्षाओं में तो शिक्षक बालकों को लगभग सभी बातें बतलाते हैं, अस्तु शिक्षण का एक मुख्य कार्य सूचनायें देना है। जो शिक्षक कहानी कहने की कला में निपुण होते हैं वे इस कार्य को बड़ी सुगमतापूर्वक कर लेते हैं। यदि यह कार्य खेल का रूप ले ले तो वह अत्यन्त ही रुचिकर, आकर्षक तथा प्रभावपूर्ण हो जाता है । इसके अतिरिक्त यदि नई सूचनाओं का सम्बन्ध बालक की पूर्वार्जित सूचनाओं से स्थापित हो जाय तो बालक ज्ञान को बड़ी सरलता से ग्रहण कर लेते हैं। सूचनायें सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करनी चाहिये जिससे बालक को उनके समझने में कोई कठिनाई न हो ।
( 2 ) शिक्षक का अर्थ सीखने का संगठन है—’मर्शल’ महोदय के कथनानुसार ‘शिक्षण सीखने को पथ-प्रदर्शन नहीं वरन् सीखने का संगठन है।’ इस विचारधारा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सफल शिक्षक’ में लिखा है कि ‘सफल शिक्षण सीखने के संगठन’ का तात्पर्य शिक्षण और शिक्षार्थी की परिस्थिति के समस्त उपकरणों के परस्पर एक हो जाने से है। शिक्षण और शिक्षार्थी की क्रियायें एक हो जायें और इन क्रियाओं में सभी प्रकार के कार्यों, शिक्षण तैयारी का साधन है। यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य है । भविष्य के लिए सबसे उत्तम तैयारी यह है कि वर्तमान में ईमानदारी के साथ जीवन व्यतीत किया जाय । अच्छी प्रकार जीवन व्यतीत करने का कार्य शिक्षण द्वारा ही परिपूर्ण होता है। अतएव शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है कि जो बालक के शारीरिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक तथा संवेगात्मक विकास में योग देकर उसे प्रभावी जीवन के लिये तैयार करती है ।
( 3 ) शिक्षण का अर्थ बालक के संवेगों को प्रशिक्षित करना है—’रायबर्न’ महोदय ने संवेगों के प्रशिक्षण को भी शिक्षण कार्य के अन्तर्गत रखा है यदि हम चाहते हैं कि हमारे बालक ठीक-ठीक कार्य करें तो उनके संवेग भी ठीक होने चाहिये । कार्य भावना पर निर्भर होता है। यदि हम ठीक कार्य करने की इच्छा करते हैं तो हमें अच्छी भावनायें उत्पन्न करनी चाहिये । रुचि तथा उचित भावनायें उत्तम बातों में रुचि रखने से उत्पन्न होती हैं और उत्तम बातों में रुचि शिक्षण द्वारा उत्पन्न होती है। अतः शिक्षण बालकों में उचित भावनायें उत्पन्न करने का एक  साधन है। स्पष्ट है कि शिक्षण द्वारा बालकों के संवेगों की प्रशिक्षण होता है। यदि शिक्षण द्वारा बालकों के संवेगों का प्रशिक्षण न हो सका तो हमारा शिक्षण अधूरा रह जायेगा और बालक समाज में उचित व्यवहार न कर सकेगा। अतः शिक्षण द्वारा ‘स्थिर संवेगात्मक जीवन’ का विकास होना आवश्यक है। जीवन की संवेगात्मक स्थिरता का विकास शिक्षक की सहानुभूति, प्रेम, उचित कार्य, वैयक्तिक सम्पर्क तथा प्रदर्शन द्वारा सम्भव है।
(4) शिक्षण का अर्थ सिखाना है-ज्ञान, रुपये की भाँति एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य को नहीं दिया जा सकता। जब तक बालक स्वयं ज्ञान को ग्रहण करने के लिये तैयार न हो तब तक उसे ज्ञान नहीं दिया जा सकता। दूसरे शब्दों में, बिना सिखाये शिक्षण नहीं हो सकता। अतः शिक्षण का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सीखना है। शिक्षण सीखने का कारण है। शिक्षण का उत्तरदायित्व बालकों को कुछ बातें बता देने पर ही समाप्त नहीं हो जाता। उसका मुख्य कार्य बालकों को सीखने के लिये तैयार करना है। उसका शिक्षण तभी सार्थक होता है जब बालक उसके दिये हुए ज्ञान को भली प्रकार सीख ले ‘ह्यूजेज’ महोदय के अनुसार “तब तक कुछ नहीं पढ़ाया जब तक वह सीखा नहीं गया।” कुछ सूचनायें दे देना मात्र ही वास्तविक शिक्षण नहीं। वास्तविक शिक्षण वह है जिससे हम बालकों को स्वयं सीखने के लिये प्रेरित करते हैं। शिक्षण-प्रक्रिया का मुख्य कार्य यही है और इसी के आधार पर हमारे समस्त शिक्षण कार्य तथा शिक्षण विधियों का निर्माण होता है। इस प्रकार शिक्षण को मौलिक सिद्धान्त बालकों को स्वयं अपने लिये कार्य करने, सीखने तथा विषय से सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता देना है। शिक्षण क्रिया द्वारा ऐसी परिस्थितियों का आयोजन किया जाता है जिसमें बालक स्वयं अपने प्रयास से अधिक से अधिक सीखने के अनुभव प्राप्त करता है और अपने ज्ञान की वृद्धि करता है। कक्षा के अन्दर सीखने की दृष्टि से उपयोगी वातावरण बनता है। तीसरे, वह वाद-विवाद के द्वारा, व्यक्तिगत बातचीत के द्वारा तथा समस्यायें उत्पन्न होने पर परामर्श देकर पथ-प्रदर्शन करता है। स्पष्ट है कि शिक्षण कार्य में दो मूल क्रियायें निहित हैं— (1) शिक्षा सामग्री प्रस्तुत करना और (2) बालकों की मानसिक क्रियाशीलता का पथ-प्रदर्शन करना ।
(5) शिक्षण का अर्थ— सम्बन्ध स्थापित करना है- शिक्षा एक ‘त्रिभुजी प्रक्रिया’ है। शिक्षक, विद्यार्थी तथा विषय, इस प्रक्रिया के तीन केन्द्र बिन्दु हैं। इन तीनों में आदान-प्रदान होता है। यह आदान-प्रदान शिक्षण-क्रिया द्वारा होता है। दूसरे शब्दों में शिक्षण उक्त तीनों बिन्दुओं में स्थापित किया जाने वाला सम्बन्ध है। इस कथन का आशय इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है “शिक्षक जॉन को लैटिन पढ़ाता है।” इस वाक्य में क्रिया शब्द ‘पढ़ाता है’ तीनों संज्ञाओं-(शिक्षक, जॉन तथा लैटिन) के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। इस प्रकार शिक्षण वह क्रिया है जिसके द्वारा शिक्षक, शिक्षार्थी तथा विषय के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है। शिक्षक, शिक्षण द्वारा विद्यार्थी तथा विषय के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है। उक्त तीनों बिन्दुओं में शिक्षक तथा शिक्षार्थी सजीव एवं सक्रिय बिन्दु है। शिक्षक, शिक्षण के समय अपनी सक्रियता एवं सजीवता दिखलाता है और शिक्षार्थी सीखने के समय ।
( 6 ) शिक्षण शिक्षक का स्व-मूल्यांकन है–शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक का कार्य सिखाना है और शिक्षार्थी का कार्य सीखना है। अध्यापक के कार्य की सफलता तभी होती है जब शिक्षार्थी अधिक से अधिक सीखें।
शिक्षण की परिभाषा—गेज के अनुसार, “शिक्षण पारस्परिक प्रभाव का एक स्वरूप है, जिसका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति की व्यावहारिक क्षमता में परिवर्तन लाना है। “
ग्रीन के अनुसार, “शिक्षण शिक्षक का वह कार्य है जिसे बालक के विकास के लिये संपादित किया जाता है। “
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