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(अ) फ्रेंकलिन मॉडल (पाठ्यक्रम) का
(ब) पाठ्यक्रम का टेलर मॉडल

उत्तर-(अ) फ्रेंकलिन बॉबेट मॉडल–शिकागो विश्वविद्यालय में शैक्षिक प्रशासन के प्रोफेसर फ्रेंकलिन बॉबिट ने 20वीं शताब्दी के प्रथम तीन दशकों में पाठ्यचर्या का विशिष्टीकरण कर शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बॉबिट का विचार था कि अधिगम उद्देश्यों के साथ अन्य क्रियाओं को भी सामूहिक गतिविधियों के रूप में वर्गीकृत एवं क्रमानुसार रखे जाने चाहिए, जिससे अनुदेशन एवं कार्य को स्पष्ट किया जा सके। उनके विचार में पाठ्यचर्या एक विज्ञान है जो छात्रों की आवश्यकताओं पर बल देती है।
बॉबिट का यह दृष्टिकोण स्पष्ट करता है कि छात्रों की आवश्यकता के अनुसार पाठ्य का नियोजन एवं संगठन किया जाता है। उनकी आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षकों द्वारा छात्रों को वयस्क जीवन के लिए तैयार करना चाहिए।
1918 में पाठ्यचर्या पर प्रकाशित पुस्तक ‘द करिकुलम’ में जॉन फ्रैंकलिन बॉबिट ने कहा कि एक विचार के रूप में पाठ्यचर्या की जड़ें रेस-कोर्स के रूप में होती हैं। इन्होंने पाठ्यचर्या का वर्णन ऐसे कार्यों एवं अनुभवों के रूप में किया जिसके माध्यम से बालक अपेक्षित वयस्क के रूप में विकसित होते हैं एवं वयस्क समाज में सफलता प्राप्त करते हैं। उनका मानना था कि पाठ्यचर्या में केवल विद्यालय में होने वाले अनुभव ही नहीं बल्कि विद्यालय के बाहर के कार्य एवं अनुभव रूपी सम्पूर्णता भी समाहित होनी चाहिए। अर्थात् पाठ्यचर्या में, उन अनुभवों को जो अनियोजित और अर्निदिष्ट हैं और उन अनुभवों को भी, जिन्हें समाज के वयस्क सदस्यों के उद्देश्यपूर्ण गठन की दिशा में जानबूझकर प्रदान किया गया है, को भी सम्मिलित करना चाहिए।
समय-समय पर बॉबिट अपने विश्वविद्यालय के कर्त्तव्यों के भाग ‘के रूप में स्थानीय स्कूल प्रणाली का सर्वेक्षण करते रहते थे। इसमें उन्होंने विशेष रूप से अपने पाठ्यक्रम की पर्याप्तता एवं संचालन के सर्वेक्षण का कार्य किया। सैन एन्टोनियो पब्लिक स्कूल का 1914 का मूल्यांकन और लॉस एंजिल्स सिटी स्कूल का 1922 का सर्वेक्षण, इनका । सबसे प्रसिद्ध सर्वेक्षण था।
वैज्ञानिक पाठ्यचर्या का निर्माण बॉबिट को उनकी सबसे अच्छी दो पुस्तकों, पाठ्यचर्या (1918) और पाठ्यक्रम (1924) को बनाने के लिये जाना जाता है। इन पुस्तकों के खण्डों में और उसके अन्य लेखन में, वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त, जिसे टेलर ने अमेरिकी उद्योग को और अधिक कुशल बनाने के लिए दिया था, का उपयोग कर बॉबिट ने पाठ्यचर्या विकास के सिद्धान्त को विकसित किया। टेलर के सिद्धान्तों का मूल विचार था कि कार्य में प्रत्येक कार्यकर्त्ता कुछ पूर्व निर्धारित प्रक्रियाओं का उपयोग एक विशिष्ट दर प्रदर्शित करने के लिए करता है। यह उभरते पेशे की दक्षता एवं विशेषता की सटीक पहचान की जिम्मेदारी भी थी। बॉबिट द्वारा विश्लेषित पाठ्यक्रम बनाने की योजना को टेलर के कार्य से अनुकूलित किया गया। इसके द्वारा विशिष्ट गतिविधियों की पहचान की गई तथा इसके द्वारा वह लोगों में व्यावसायिक, नागरिकता एवं अन्य भूमिकाओं के रूप में योग्यता का विकास करने में सफल हुए।
बॉबिट ने उल्लेख किया है कि पाठ्यचर्या शिक्षण के माध्यम से शिक्षक बालकों को सक्षम एवं जिज्ञासु बनने के लिए प्रेरित करता है और इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करता है। इनमें से कुछ उद्देश्य सामान्य प्रकृति के हैं और सभी बच्चों को वयस्क नागरिकों के रूप में अपनी जिम्मेदारियों के साथ तैयार करने का प्रतिनिधित्व करते हैं।
उनका पाठ्यचर्या निर्माण के दो उल्लेखनीय लक्षण हैं
(1) विशेषज्ञों को अपने विशेष ज्ञान के आधार पर ही पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहिए यही न्याय संगत भी होगा क्योंकि इसी से छात्र अपेक्षित गुण एवं अनुभव प्राप्त कर सकेंगे।
(2) पाठ्यचर्या को ऐसे कार्यानुभवों के रूप में परिभाषित करना जो छात्रों को अपेक्षित वयस्क बनाने के लिए आवश्यक हों।
बॉबिट ने पाठ्यचर्या को लोगों के चरित्र का निर्माण करने वाले कार्यों एवं अनुभवों की ठोस वास्तविकता के स्थान पर एक आदर्श के रूप में परिभाषित किया है।
फ्रेंकलिन बॉबिट का शिक्षा में योगदान–शिक्षा के चार क्षेत्रों पर बॉबिट का पाठ्यचर्या निर्माण मॉडल प्रमुख रूप से प्रभाव डालता है। सर्वप्रथम वे पहले अमेरिकन शिक्षाशास्त्री थे जिन्होंने पाठ्यचर्या निर्माण में उद्देश्यों की पहचान को महत्त्वपूर्ण बताया। उन्होंने यह भी कहा कि माध्यमिक शिक्षा के राष्ट्रीय शिक्षा संघ के प्रमुख सिद्धान्त पाठ्यचर्या की सामग्री ज्ञान के पारम्परिक विषयों में नहीं था, परन्तु इसे उद्देश्यों से प्राप्त किया जा सकता था। बॉबिट के अनुसार शिक्षा अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं थी बल्कि इसका महत्त्व बच्चों को उनके आगामी जीवन के लिए वयस्क के रूप में तैयार करने से था।
दूसरा, पाठ्यचर्या निर्माण के लिए अपने तथा कथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण अध्ययन के द्वारा पाठ्यचर्या प्रारूप के लिए आधी सदी तक कई शिक्षकों के साथ एक मिशल के रूप में सेवा कार्य किया।
तीसरा, बॉबिट ने 20वीं सदी के प्रारम्भिक स्कूलों में क्षमता उन्मुख स्कूल सुधार के लिए पाठ्यचर्या में कई क्रियाओं को सम्मिलित किया। कुछ शैक्षणिक एवं कुछ व्यावसायिक क्षेत्रों में छात्रों को उनकी क्षमताओं के आधार पर क्षेत्रों को चुनने की स्वतंत्रता प्रदान की गई। उन्होंने व्यवसाय आधारित पाठ्यचर्या में औचित्यपूर्ण शिक्षा को वैज्ञानिकता प्रदान की।
चौथा और अन्तिम क्षेत्र, बॉबिट आधुनिक समाज की समस्याओं के समाधान के लिए सामाजिक नियन्त्रण या विनियमन के एक उपकरण के रूप में पाठ्यचर्या को परिभाषित करने वाले पहले अमेरिकी प्रशिक्षकों में से एक थे।
• सामाजिक दक्षता के आदर्शों के लिए वह युवाओं में ज्ञान, कौशल और विश्वास स्कूल अध्ययन के दौरान विकसित करना चाहते थे।
इस प्रकार बॉबिट ने पाठ्यचर्या विकास के द्वारा छात्रों में व्यावसायिक ज्ञान, कौशल का विकास कर उनकी कार्य क्षमता एवं दक्षता में वृद्धि कर शिक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
(ब) टेलर का पाठ्यचर्या विकास मॉडल–सन् 1940 में टेलर ने अपने सर्वोत्तम एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले पाठ्यचर्या मॉडल का विकास (निर्माण) किया। टाइलर वास्तव में किसी मॉडल का निर्माण नहीं करना चाहते थे। उन्होंने केवल अपने विचारों को एक पुस्तक में लिखा कि पाठ्यक्रम का विकास कैसे किया जाए तथा छात्रों को इसके लिए कुछ दिशा-निर्देश दिए थे, जिससे एक अच्छी पाठ्यचर्या का निर्माण किया जा सके। यह तो टेलर की प्रतिभा थी कि यह उस समय के प्रारम्भिक मॉडलों में से एक था और आज भी प्रमुख मॉडलों में एक है। यह चार सरल चरणों से मिलकर बना है जो निम्नलिखित हैं—
(1) विद्यालय के उद्देश्यों को निर्धारित करना ।
(2) उद्देश्य से सम्बन्धित शैक्षिक अनुभवों को पहचानना
(3) अनुभवों को व्यवस्थित करना ।
(4) उद्देश्यों का मूल्यांकन ।
प्रथम चरण के तहत विद्यालय या कक्षा के उद्देश्य निर्धारित गए हैं। दूसरे शब्दों में छात्रों को सफल होने के लिए क्या करने की जरूरत है ? प्रत्येक विषय का प्राकृतिक उद्देश्य है कि उसमें महारत (विशेषज्ञता) प्राप्त की जाए। समस्त उद्देश्यों को विद्यालय के दर्शन के साथ संगत होना जरूरी है परन्तु अक्सर पाठ्यचर्या के विकास में इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है। उदाहरणार्थ- यदि एक विद्यालय अंग्रेजी विषय की पाठ्यचर्या का विकास कर रहा है तो उसका प्राथमिक उद्देश्य छात्रों को निबन्ध लिखना सिखाना होना चाहिए। इसके साथ ही अन्य उद्देश्यों को भी प्रमुखता दी जानी चाहिए।
द्वितीय चरण में शैक्षिक अनुभवों का विकास होता है और इसके माध्यम से प्रथम चरण के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है । उदाहरणार्थ – यदि छात्रों को निबन्ध लेखन के उद्देश्य को प्राप्त करना है तो शिक्षक अपने अनुभव के द्वारा छात्रों के समक्ष एक निबन्ध का प्रदर्शन करे या लिखित रूप में दर्शाए। उसके पश्चात् छात्रों को अभ्यास द्वारा निबन्ध लेखन करना चाहिए।
तृतीय चरण के तहत अनुभवों को व्यवस्थित किया जाता है अर्थात् शिक्षक पहले प्रदर्शन करे फिर छात्रों को तुरन्त लिखकर सीखना चाहिए। ये कार्य किसी भी तरह से पूर्ण किया जा सकता है। ये शिक्षक के दर्शन एवं छात्रों की आवश्यकताओं से निर्धारित होता है फिर भी शिक्षक को अपने अनुभव एक तार्किक क्रम में निर्धारित करना चाहिए।
अन्त में, चौथे चरण के तहत तीनों चरणों का मूल्यांकन किया जाता है। इस चरण में शिक्षक छात्रों के निबन्ध लिखने की क्षमता का आकलन करता है। इसे ज्ञात करने के कई तरीके हैं जैसे—छात्रों द्वारा शिक्षक की सहायता से बगैर निबन्ध लिखना। यदि छात्र ऐसा करने में सफल हो जाता है तो स्पष्ट है छात्रों ने निर्धारित उद्देश्य को प्राप्त कर लिया है।
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