समूह परिचर्चा विधि के गुण-दोषों को समझाइए।

समूह परिचर्चा विधि के गुण-दोषों को समझाइए।

उत्तर – समूह परिचर्चा विधि के गुण–समूह परिचर्चा विधि के गुण निम्न हैं—

(1) जनतांत्रिक मूल्यों का विकास— एक अच्छे लोकतंत्र के लिए उसके नागरिकों में समूह भावना, सहयोग, सद्भावना, सहकारिता, शान्ति, सहिष्णुता आदि सद्गुणों का होना आवश्यक है। समूह परिचर्चा में इन गुणों का विकास किया जाना सम्भव है।
(2) विद्या केन्द्रित— इस विधि में विद्यार्थी अध्यापक से ज्ञान प्राप्त करने की अपेक्षा वे जो कुछ जानते हैं उसको सबके समक्ष व्यक्त करते हैं। वे आपसी विचार-विमर्श करने के लिए सभी आवश्यक व्यवस्था को करते हैं तथा लोकतांत्रिक विधि से चर्चा करते हैं। अध्यापक का कार्य केवल मार्गदर्शक का है। इस प्रकार यह एक ऐसी प्रविधि है जो कि छात्रों द्वारा संचालित तथा उनके विकास की दृष्टि पर मूलतः केन्द्रित है।
(3) क्रियाशीलता द्वारा अधिगम—समूह परिचर्चा की सफलता विद्यार्थीिीं को क्रियाशीलता पर निर्भर है। यदि छात्र केवल मूकदर्शक रहेंगे तो समूह परिचर्चा में होने वाली चर्चाएँ नहीं हो पायेंगी। अतः इस प्रविधि में छात्रों का क्रियाशील होना आवश्यक है।
(4) उच्च मानसिक योग्यता का विकास— समूह परिचर्चा में बालक का उच्च स्तरीय मानसिक विकास होना संभव है। मानसिक क्रियाएँ जैसे चिन्तन एवं मनन करना, समस्या का विश्लेषण एवं संश्लेषण आदि करने का अवसर मिलता है।
(5) निर्णय करने की क्षमता का विकास—बालक इसमें प्रकरण के पक्ष एवं विपक्ष में अनेक तर्क सुनता है। वह इन सब सूचनाओं का विश्लेषण कर सही तथ्यों के बारे में निर्णय लेना सीखता है।
(6) विचार व्यक्त करने की क्षमता का विकास—छात्र अपने मूल विचारों को अपने शब्दों में व्यक्त करता है। इससे उसमें विचार व्यक्त करने की क्षमता का विकास होता है।
(7) तर्क करने का अवसर— छात्र तथ्यों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं व गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। इसके उपरान्त वे इस तर्क की कसौटी पर कसते हैं। इससे सम्बन्धित शंकाओं के निवारण के लिए प्रश्न पूछते हैं अथवा अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं। इन सब प्रक्रियाओं से उनको तर्क-शक्ति का विकास होता है।
समूह परिचर्चा विधि के दोष-समूह परिचर्चा विधि के दोष निम्न हैं—
(1) समय अधिक लगना — इसमें पाठ्यक्रम को पूरा किया जाना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस प्रविधि में छात्रों को प्रकरण से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न क्रियाओं को करना पड़ता है जिससे उन्हें काफी समय लगता है, उनका अधिकांश समय वार्तालाप में व्यतीत हो जाता है।
(2) सभी प्रकरणों के लिए उपयुक्त नहीं — इसमें केवल वे ही प्रकरण लिये जा सकते हैं, जिन पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। केवल मात्र सूचना प्रदान करने वाले प्रकरणों पर विचार विमर्श किया जाना संभव नहीं है।
(3) कमजोर छात्रों के लिए अनुपयुक्त—इसमें उच्च स्तर को मानसिक क्रियाएँ जैसे चिन्तन, मनन, तर्क आदि किये जाते हैं। कमजोर छात्र इन क्रियाओं को करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।
(4) प्रतिभावान छात्रों का प्रभुत्व— प्रतिभावान छात्र ही विचारविमर्श में अपना प्रभुत्व जमाये रखते हैं। कारण यह है कि उनकी स्मृति अच्छे स्तर की तथा शब्द-भण्डार पर्याप्त मात्रा में होता है। वे उच्च मानसिक क्रियाएँ जैसे चिन्तन एवं तर्क आसानी से कर सकते हैं।
(5) कुशल शिक्षकों की कमी— शिक्षक का कार्य काफी मेहनत का तथा कुशलता लिए हुए हैं। यह अध्यक्ष के रूप में प्रकरण पर विचार-विमर्श प्रारम्भ करता है। समय-समय पर उसे मार्गदर्शन भी देना होता है। इन सब कार्यों को एक कुशल एवं परिश्रमी अध्यापक ही कर सकता है ।
(6) संसाधनों की कमी— विद्यालयों में फर्नीचर आदि की कमी होती है तथा पुस्तकालय आदि में पुस्तकों का अभाव होता है। ऐसी स्थिति में यह विधि प्रभावी रूप से प्रयोग में नहीं लाई जा सकती।
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