सामाजीकरण से आप क्या समझते हैं ? लिंग सामाजीकरण में परिवार की भूमिका का वर्णन करें।

सामाजीकरण से आप क्या समझते हैं ? लिंग सामाजीकरण में परिवार की भूमिका का वर्णन करें।

उत्तर – सामाजीकरण– सामाजीकरण की प्रक्रिया ही शिशु को सामाजिक प्राणी बनाती है, इसके अभाव में वह सामाजिक प्राणी नहीं बन सकता। अनेक उदाहरण इस प्रकार के हैं जिनमें नवजात शिशु को जंगली जानवर उठाकर ले गए आर बाद में बालक जंगली जानवरों जैसे ही चलने-फिरने, खाने-पीने लगे। इससे भी स्पष्ट होता है कि जन्म के समय शिशु एक जीवित प्राणिशास्त्रीय इकाई मात्र होता है, जिसमें किसी प्रकार के सामाजिक गुण नहीं होते। धीरे-धीरे वह सांस्कृतिक और भौतिक वातावरण को हृदयंगम करता है, उसमें सामूहिक भावना विकसित होती है, अन्यों से सहयोग करना सीखता है, उसमें सामाजिक चेतना का विकास होता है और वह समाज का एक महत्त्वपूर्ण सदस्य बन जाता है।
सामाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषा — सामाजीकरण का शाब्दिक अर्थ ‘नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी बनाने की प्रक्रिया’ से लिया जाता है। प्रमुखतया ‘सामाजीकरण’ को दो अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है: : एक तो मार्क्सवादी अर्थशास्त्रीय अर्थ जिसमें सम्पत्ति पर समाज के अधिकार के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाता है; जैसे—बैकों, कारखानों आदि उत्पादन के साधनों पर समाज का स्वामित्व होना चाहिए। दूसरे समाजशास्त्रीय संदर्भ में इसका अर्थ व्यक्ति को समाज का क्रियाशील सदस्य बनाने के उद्देश्य से सामाजिक मूल्यों को सीखने से लिया जाता है। यहाँ ‘सामाजीकरण’ के सम्प्रत्यय को समाजशास्त्रीय संदर्भ में ही देखा जाएगा जिसमें सामाजीकरण ऐसी प्रक्रिया मानी जाती है जिसमें व्यक्ति समाज के आदर्शों, मानदण्डों, मूल्यों और उद्देश्यों आदि को सीखता है अथवा ग्रहण करता है।
(1) टालकट पार्सन्स के अनुसार, “सामाजीकरण में व्यक्ति द्वारा सामाजिक मूल्यों को सीखने और उन्हें आभ्यान्तरीकरण करने को कहा जाता है।” इस परिभाषा में सामाजीकरण में व्यक्ति द्वारा मूल्यों को सीखना ही पर्याप्त नहीं, अपितु उन्हें हृदयंगम अथवा आभ्यान्तरीकरण करना भी निहित है।
(2) जॉनसन के अनुसार, “सामाजीकरण सीखने की वह प्रक्रिया है, जो सीखने वाले को सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह करने योग्य बनाती है। “
(3) ए. डब्ल्यू. ग्रीन के शब्दों में, “सामाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक सांस्कृतिक विशषताओं आत्मत्व और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है । ‘
(4) फिचर के मत में, “सामाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को स्वीकारता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है। “
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामाजीकरण के द्वारा सामाजिक मूल्यों को सीखा जाता है एवं उनका आभ्यंतरीकरण किया जाता है। यह सीखने की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण करके समाज का सदस्य बनता है। इसी के द्वारा वह सामाजिक मानदण्डों को सीखता है और समाज के साथ अपना अनुकूलन करता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक मूल्यों, लोकाचारों, जनरीतियों, आदर्शों और मानदण्डों को सीखने की प्रक्रिया ही समाजीकरण है जो व्यक्ति को समायोजित व्यवहार करना सिखाता है।
जेण्डर हेतु समाजीकरण में परिवार की भूमिका–जेण्डर हेतु समाजीकरण में परिवार की भूमिका को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है—
(1) समान शिक्षा की व्यवस्था—परिवारों में प्राय: देखा जाता है कि लड़के-लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था में असमानता का व्यवहार किया जाता है, जिससे लड़कियाँ उपेक्षित और पिछड़ी रह जाती हैं। लड़कियों की शिक्षा की व्यवस्था भी उत्तम कोटि की करनी चाहिए, परन्तु पैसे इत्यादि की समस्याओं के कारण लड़कियों की रुचियाँ इत्यादि के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था नहीं मिल पाती है, जिससे वे स्वावलम्बी नहीं बन पाती हैं। अत: लैंगिक भेदभाव को कम करने के लिए लड़कों के समान ही लड़कियों की शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे लड़केलड़की के मध्य भेदभाव में लड़कियों की शैक्षिक स्थिति उन्नति होने से सुधार आयेगा।
(2) उदार दृष्टिकोण का विकास– परिवारों में महिलाओं और लड़कियों के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण बरता जाता है। पारिवारिक कार्यों तथा महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेते समय महिलाओं की राय पूछी तक नहीं जाती है और यही भाव परिवार की भावी पीढ़ियों में भी व्याप्त हो जाता है। महिलाओं को कठोर सामाजिक और पारिवारिक प्रतिबन्धों में रहना पड़ता है। यदि उनसे कोई चूक हो जाये तो कठोर दण्ड दिये जाते हैं। इस प्रकार परिवार के सदस्यों तथा रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं में महिलाओं के प्रति उदार दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए। इस प्रकार महिलाओं को भी समुचित स्थान और सम्मान मिलेगा तथा उनको समानता का अधिकार मिलेगा।
(3) सर्वांगीण विकास का कार्य– सर्वांगीण विकास से तात्पर्य है — शरीर, मन तथा बुद्धि का समन्वयकारी विकास । परिवार को अपने सभी बच्चे, चाहे वे लड़की हों या लड़के, सर्वांगीण विकास के प्रयास का कार्य करना चाहिए, जिससे उनमें किसी भी प्रकार की हीनता का भाव न पनप पाये। जिन बालकों का सर्वांगीण विकास नहीं होता, उनमें हीनता की भावना व्याप्त रहती है और वे विकृत मानसिकता के शिकार होकर लैंगिक भेदभावों को जन्म देते हैं तथा महिलाओं के प्रति संकीर्ण विचार रखते हैं।
(4) बालिकाओं के महत्त्व से अवगत कराना– परिवार को चाहिए कि वह अपने बालकों को बालिकाओं के महत्त्व से परिचित करायें जिससे वे इनका धाक जमाने की बजाय सम्मान करना सीखें। बालिकाएँ ही बहन, माता, पत्नी आदि हैं और इन रूपों की उपेक्षा करके पुरुष का जीवन अपूर्ण रह जायेगा।
(5) साथ-साथ रहने, कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास–  परिवार परस्पर सहयोग की नींव डालता है। अपने सदस्यों में, जिससे स्त्री-पुरुष के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रहता है, क्योंकि कार्य सम्पादन में दोनों ही एक-दूसरे का सहयोग कर रहे हैं। साथ-साथ कार्य करने की प्रवृत्ति के द्वारा महिलाओं की महत्ता स्थापित होती है जिससे लैंगिक भेदभावों में कमी आती है।
(6) समानता का व्यवहार– परिवार में यदि लड़के-लड़कियों के प्रति समानता का व्यवहार किया जाता है तो ऐसे परिवारों में लैंगिक भेदभाव कम होते हैं। समानता के व्यवहार के अन्तर्गत लड़के-लड़कियों को पारिवारिक कार्यों में समान स्थान, समान शिक्षा, रहन-सहन और खान-पान की सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए, जिससे प्रारम्भ से ही बालकों में श्रेष्ठता का बोध स्थापित न हो और वे बालिकाओं और भविष्य में महिलाओं के साथ समान व्यवहार करेंगे। पारिवारिक सदस्यों को चाहिए कि वे लिंगीय टिप्पणियाँ, भेदभाव तथा शाब्दिक निन्दा और दुर्व्यवहार कदापि न करें, क्योंकि बालक जैसा देखता है वह वैसा ही अनुकरण करता है। इस प्रकार परिवार में किया जाने वाला समानता का व्यवहार लैंगिक भेदभावों को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करता है।
(7) व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा– परिवार को चाहिए कि वह अपने सभी सदस्यों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनकी व्यावसायिक कुशलता की उन्नति हेतु प्रयास करे। यह शिक्षा परिवार द्वारा औपचारिक दोनों ही प्रकार से प्राप्त कराने का प्रबन्ध किया जा सकता है। जब परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने कार्यों में संलग्न रहेंगे तो उनके विचारों और सोच में गतिशीलता आयेगी, जिससे लैंगिक भेदभावों में कमी आयेगी।
(8) जिम्मेदारियों का अभेदपूर्ण वितरण– परिवार में स्त्रीपुरुष, लड़के-लड़कियों के मध्य लिंग के आधार पर भेदभाव न करके सभी प्रकार की जिम्मेदारियाँ बिना भेदभाव के प्रदान करनी चाहिए, जिससे लैंगिक भेदभाव की बात तक भी दिमाग में न आये।
(9) आर्थिक संसाधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति का समापन – परिवार को चाहिए कि वह आर्थिक संसाधनों का इस प्रकार प्रबन्धन और वितरण करे कि स्त्री-पुरुष में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव न रहे। पिता की सम्पत्ति में हमारे यहाँ पुत्र का अधिकार तो समझा जाता है, परन्तु पुत्रियों का कोई भी अधिकार नहीं समझा जाता, जिससे वे सदैव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर हो जाती हैं। इस प्रकार आर्थिक संसाधनों पर पुरुष वर्ग के एकाधिकार की समाप्ति का परिवार लैंगिक भेदभावों को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं।
(10) उच्च चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण– परिवारों को चाहिए कि वे अपनी संततियों के उच्च चरित्र तथा सुदृढ़ व्यक्तित्व निर्माण पर बल दें। उच्च चरित्र और व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति अपने अस्तित्व के साथ-साथ सभी के अस्तित्व का आदर करता है। स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी आदि उच्च चरित्र तथा सुदृढ़ व्यक्तित्व वाले नायकों ने स्त्रियों की समानता पर बल दिया। इस प्रकार चारित्रिक और व्यक्तित्व के विकास के द्वारा परिवार लैंगिक भेदभावों में कमी करने का प्रयास कर सकते हैं।
(11) बालिकाओं को आत्म-प्रकाशन के अवसरों की प्रधानता– परिवार में बालिकाओं की रुचियों और प्रवृत्तियों के आत्मप्रकाशन के अवसर बालकों के समान ही प्रदान करने चाहिए, इससे उनमें आत्मविश्वास आयेगा, हीनता नहीं आयेगी और अपनी प्रतिभा को प्रकाशित करने का उन्हें अवसर प्राप्त होगा। आत्म-प्रकाशन के द्वारा उनमें भावना ग्रन्थियाँ नहीं पनपेंगी। अतः परिवार को लैंगिक भेदभावों में कमी लाने हेतु बालिकाओं और स्त्रियों को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के पर्याप्त और समान अवसर प्रदान करने चाहिए।
(12) सशक्त बनाना– कुछ परिवारों में प्रत्येक कार्य में लड़कियों को यह स्मरण कराया जाता है कि वे लड़कियाँ हैं, अतः उन्हें अपनी सीमा में रहना चाहिए, परन्तु इस प्रकार का व्यवहार उनमें कुण्ठा और निराशा के भाव भर देता है, वहीं यदि परिवार के सदस्य सदैव महिलाओं के सशक्त रूप का वर्णन और प्रोत्साहन करते हैं तो ऐसे परिवारों में लड़कियाँ भी लड़कों के समान सभी उत्तरदायित्वों को पूर्ण करती हैं। अतः परिवार को चाहिए कि वे स्त्री को अबला न समझकर उसे शक्ति और सबला समझे जिससे भावी पीढ़ियों की सोच में परिवर्तन आयेगा और लैंगिक भेदभावों में कमी आयेगी।
( 13 ) अन्धविश्वासों तथा जड़ परम्पराओं का बहिष्कार– लड़के ही वंश चलाते हैं, वे ही नरक से पिता को बचाते हैं, पैतृक कर्मों तथा सम्पत्तियों को वही संचालित करते हैं, पुत्र ही अन्त्येष्टि तथा पिण्डदान इत्यादि कार्य करते हैं। इस प्रकार के कई अन्धविश्वास और जड़ परम्पराएँ परिवारों में मानी जाती हैं। अत: इन परम्पराओं और विश्वासों को तार्किकता की कसौटी पर कसना चाहिए। यदि परिवार इन जड़ परम्पराओं, अन्धविश्वासों और कुरीतियों के प्रति जागरूक हो जाये तो स्त्रियों की स्थिति स्वतः उन्नत हो जायेगी।
(14) पारिवारिक कार्यों में समान सहभागिता – परिवार को अपने सभी सदस्यों की रुचि के अनुरूप कार्यों में सहभागिता सुनिश्चित करनी चाहिए, न कि लिंग के आधार पर । अधिकांश परिवारों में लड़कों और लड़कियों के लिए कार्यों का एक दायरा बना दिया जाता है जो अनुचित है। इससे लड़कियाँ कभी भी बाहरी दुनिया और बाह्य कार्यों को कर नहीं पाती हैं और उन्हें इस हेतु अयोग्य समझा जाता है और बाहरी कार्यों को करने में वे स्वयं भी असहज महसूस करने लगती हैं।
(15) हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग निषेध – परिवार में भाषा का प्रयोग कैसा हो रहा है, उसका प्रभाव भी लैंगिक भेदभावों पर पड़ता है। कुछ परिवारों में लड़कियों और महिलाओं के लिए हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग किया जाता है जिससे वे हीन भावना की शिकार हो जाती हैं और बालकों का मनोबल बढ़ता है। वे भी बालिकाओं को सदैव हीन समझकर उनके लिए हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग करते हैं, जिससे लैंगिक भेदभावों को बढ़ावा मिलता है।
(16) सामाजिक वातावरण में बदलाव – परिवार को चाहिए कि वह लड़के-लड़की में किसी भी प्रकार का भेदभाव न करें। ऐसी सामाजिक परम्पराएँ जिसमें लड़कियों के प्रति भेदभाव किया जाता है और उनकी सामाजिक स्थिति में ह्रास आता हो, ऐसी स्थितियों में परिवार को बदलाव लाने की पहल करनी चाहिए। परिवार से ही सामाजिक वातावरण को सुधारा जा सकता है क्योंकि समाज परिवार का समूह होता है। इस प्रकार परिवार को लैंगिक भेदभावों तथा महिलाओं की उन्नत स्थिति हेतु कृतसंकल्प होना चाहिए, जिससे सामाजिक कुरीतियों और भेदभावपूर्ण व्यवहार की समाप्ति की जा सके।
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