स्त्रियों की समस्याओं के समाधान हेतु किये जा रहे प्रयासों को समझाइए ।

स्त्रियों की समस्याओं के समाधान हेतु किये जा रहे प्रयासों को समझाइए ।

उत्तर – स्त्रियों की समस्याओं के समाधान हेतु प्रयास— स्त्रियों की समस्याओं के समाधान हेतु किए जा रहे / किए गए विभिन्न प्रयास निम्नलिखित हैं—

( 1 ) सुधार आन्दोलन – 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही कुछ चिन्तनशील व्यक्तियों जैसे— राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती, केशवचन्द्र सेन, ऐनीबेसेन्ट, महर्षि कार्वे आदि ने भारतीय समाज में स्त्रियों की दयनीय पर विचार करना प्रारम्भ कर दिया था। कई महापुरुषों ने समाज-सुधार के आन्दोलनों का संचालन कर स्त्रियों की स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया। राजा राममोहन राय ने 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की और आपके प्रयत्नों से ही 1829 में सती प्रथा निरोधक अधिनियम बना। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने तथा बाल-विवाह और पर्दा प्रथा को समाप्त करने के लिए प्रयास किए। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बहुपत्नी विवाह एवं विधवा पुनर्विवाह निषेध का विरोध किया और आपके प्रयत्नों से 1856 में विधवा- पुनर्विवाह अधिनियम बना। वचन्द्र सेन के प्रयासों से 1872 में विशेष विवाह अधिनियम बना जिस अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता प्रदान की। रमाबाई रानाडे, मैडम कामा, तोरूदत्त मारग्रेट नोबल तथा ऐनीबेसेन्ट आदि महिलाओं तथा अखिल भारतीय महिला सम्मेलन, भारतीय स्त्री शिक्षा संस्था, कस्तूरबा गाँधी स्मारक ट्रस्ट आदि स्त्री संगठनों ने भी स्त्रियों की विभिन्न समस्याओं को कम करने एवं उनकी स्थिति को सुधारने के प्रयत्न किए।
(2) वैधानिक व्यवस्थाएँ-स्त्रियों की प्रस्थिति को सुधारने के लिए सरकार ने स्वतंत्रता से पूर्व एवं बाद में अनेक कानून बनाए उनमें से प्रमुख इस प्रकार से है
(i) सती प्रथा निषेध अधिनियम, 1829, इसके द्वारा सती होने एवं विधवा स्त्री को इसके लिए उकसाने को दण्डनीय करार दिया गया। 1986 में इसमें संशोधन कर इसे और कठोर बना दिया गया व सती को महिमा मण्डित करने को भी दण्डनीय अपराध बना दिया।
(ii) हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति पर अधिकार अधिनियम, 1937 द्वारा हिन्दू विधवा स्त्री को मृत पति की सम्पत्ति में अधिकार प्रदान किया गया।
(iii) अलग रहने तथा भरण-पोषण हेतु स्त्रियों का अधिकार अधिनियम, 1946 के द्वारा कुछ परिस्थितियों जैसे पति के भयंकर रोग से रोगी होने, निर्दयतापूर्ण व्यवहार करने, धर्म परिवर्तन कर लेने, अन्य स्त्री से सम्बन्ध होने, दूसरा विवाह कर लेने या पत्नी को छोड़ देने की स्थिति में पत्नी को पति से अलग रहने पर भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त होता है।
(iv) हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 के द्वारा विधवा स्त्री को पुनर्विवाह की अनुमति प्रदान की गयी।
(v) बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 के द्वारा बालविवाह पर रोक लगायी गयी । विवाह के समय लड़के की आयु 18 वर्ष तथा लड़की आयु 15 वर्ष की गई । हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में इस आयु में वृद्धि कर लड़के के लिए 21 वर्ष तथा लड़की के लिए 18 वर्ष कर दी गयी ।
(vi) हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के द्वारा स्त्री को भी पुरुष की तरह गोद लेने एवं लड़की को भी गोद लेने की छूट दी गयी । अविवाहित, विधवा या तलाक प्राप्त स्त्री भी इस अधिनियम के अन्तर्गत लड़के या लड़की को गोद ले सकती है। पुरुष का दायित्व है कि वह अपनी पत्नी व बच्चों व माता-पिता का भरणपोषण करें।
(vii) स्त्रियों व कन्याओं का अनैतिक व्यापार अधिनियम, 1956 के द्वारा वेश्यावृत्ति एवं अनैतिक व्यवहार पर रोक लगा दी गयी ।
(viii) दहेज निरोधक अधिनियम, 1961 के द्वारा दहेज लेने व देने को दण्डनीय अपराध करार दिया गया। 1986 में इसे संशोधित किया गया और अधिक कठोर बना दिया गया।
(ix) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में स्त्रियों को पुरुषों के समान ही पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार प्रदान किए गए। 2005 में इस कानून में संशोधन किया गया।
(x) हिन्दू नाबालिग तथा संरक्षता अधिनियम, 1956 में नाबालिग बच्चों के पिता की मृत्यु होने पर माँ को भी उनके संरक्षक होने का अधिकार प्रदान किया गया।
(xi) विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के द्वारा किसी भी धर्म या जाति को मानने वाले स्त्री-पुरुष को परस्पर विवाह करने की छूट दी गयी।
(xii) हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में विवाह से सम्बन्धित कई नये प्रावधान भी किए गए। इसमें विवाह-विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण के प्रावधान भी किए गए। विवाह के लिए लड़के की आयु 21 वर्ष एवं लड़की की आयु 18 वर्ष तय की गयी व बाल-विवाह समाप्त कर दिए गए।
( 3 ) रोजगार तथा आय उत्पन्न करने वाली उत्पादन इकाइयाँ  – यह योजना 1982-83 में नार्वे की अन्तर्राष्ट्रीय विकास संस्था के सहयोग से प्रारम्भ की गई । इस कार्यक्रम से गरीब ग्रामीण नारियों, कमजोर वर्गों की नारियाँ, युद्ध में मारे गये सैनिकों की विधवाओं को लाभ मिल रहा है। नारियों को कृषि, दुग्ध उत्पादन, पशुपालन, रेशम विकास, खादी हस्तशिल्प आदि में प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें ।
( 4 ) नारियों के लिए सामाजिक – आर्थिक कार्यक्रम केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड द्वारा 1958 ई. में प्रारम्भ इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जरूरतमन्द व शारीरिक रूप से अक्षम नारियों को काम और मजदूरी के अवसर उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय सहायता दी जाती है। निम्न आय वाली कार्यरत नारियों के लिए शहरों तथा महानगरों में सस्ते एवं सुरक्षित आवास उपलब्ध कराना ।
( 5 ) प्रौढ़नारियों के लिए शिक्षा के सघनं पाठ्यक्रम–  केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड द्वारा 1958 ई. में शिक्षा के सघन पाठ्यक्रम प्रारम्भ किए गए जिनका उद्देश्य जरूरतमन्द नारियों को रोजगार के नये अवसर उपलब्ध करानां तथा प्राथमिक पाठशालाओं में शिक्षकों, बाल सेविकाओं, नर्सों, दाइयों और ग्रामीण इलाकों में परिवार नियोजन कार्यकर्त्ताओं का प्रशिक्षित वर्ग तैयार करना था ।
( 6 ) नारी शिक्षा – सामाजिक आर्थिक गति को तेज करने के लिए लड़कियों की शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार करते हुए सरकार ने समय-समय पर इस दिशा में अनेक कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में व्यवस्था है कि शिक्षा को नारियों के स्तर में बुनियादी परिवर्तन लाने के साधन के रूप में प्रयोग में लाया जाएगा।
( 7 ) नारियों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए शैक्षिक कार्य – नारियों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए शैक्षिक कार्य की एक योजना शत-प्रतिशत आर्थिक सहायता देकर स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से लागू की जा रही है। इस योजना के अन्तर्गत सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं सरकारी अधिकारियों सहित दूसरे लोगों के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन, कानूनी शिक्षा प्रशिक्षण शिविर, लोक अदालतें, कानूनी शिक्षा की पुस्तकें, नारियों पर हो रहे अत्याचारों के बारे में लोगों को जानकारी देने आदि के कार्यक्रम चलाए जाते हैं।
( 8 ) स्वास्थ्य एवं बाल कल्याण सेवाएँ– केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2002 को मंजूरी देकर पूरे देश में एक समान चिकित्सा सेवाएँ उपलब्ध करने का अपना संकल्प दोहराया। सरकार द्वारा सन् 2010 तक सकल घरेलू उत्पाद का छ: प्रतिशत स्वास्थ्य क्षेत्र पर व्यय किया जाएगा और राज्य सरकार को भी निर्देश दिया गया कि महिला व बाल कल्याण सेवाओं के संचालन में कोई ढील नहीं बरतें। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए समुचित कोष उपलब्ध हो ।
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