स्त्री शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्यों की ।

स्त्री शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्यों की ।

उत्तर—स्त्री शिक्षा के उद्देश्य—स्त्री शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य  हैं-

(1) स्त्रीत्व को बनाये रखने की दीक्षा, शिक्षा और वातावरण की व्यवस्था स्त्री का स्त्रीत्व उसकी लज्जा-शीलता और विनम्रता परन्तु निर्भीकता में सन्निहित होता है। यह सब तभी सम्भव है, जब उन्हें स्त्रियोचित कर्त्तव्यों से परिचित कराया जाए। भारतीय संस्कृति में स्त्रियों की स्थिति महत्त्वपूर्ण है। वह माता (जननी) है, पत्नी है, बहिन है, पुत्री है। उनके अपने-अपने स्थान पर क्या कर्त्तव्य हैं, क्या अधिकार हैं, उन्हें समाज में कैसे व्यवहार करना चाहिए। उन्हें इन बातों का ज्ञान कराना जरुरी है।
(2) संस्कृति प्रसार का स्रोत बनाना समाज में विविध सांस्कृतिक परम्पराएँ स्त्रियों द्वारा ही संस्थापिक होती है। ये उनकी रक्षक, पोषक और प्रसारक है। वे परिवार से लेकर समाज के क्षेत्र में अपने व्यवहारों द्वारा संस्कृति का विकास करने में योग देती है। वस्त्रविन्यास, रहन-सहन, धार्मिक प्रथाएँ, रीति-रिवाज, सामाजिक मान्यताएँ, मातृभाषा-विकास, पारिवारिक शिक्षा द्वारा समाजीकरण के आदर्श प्रस्तुत करके वे ही पुरुष वर्ग का मार्ग दर्शन करती है, इसलिए स्त्री-शिक्षा में भारतीय संस्कृति का समन्वय करना चाहिए, जिससे वह उस संस्कृति का प्रसार करने का उत्तरदायित्व निर्वाह कर सके।
( 3 ) स्त्रियोचित एवं सर्वांगीण व्यक्ति का विकास स्वतंत्र भारत में स्त्री जाति को अबला से सबला बनाने के लिए शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक विकास करने के लिए उपयोगी शिक्षा की व्यवस्था की गई । स्त्रियोचित खेल-कूद, व्यायाम, आसनों की व्यवस्था, विविध बौद्धिक और मानसिक शक्तियों का विकास करने के विषयों का शिक्षण दिया जाता है। चूँकि उपर्युक्त शिक्षा का प्रबन्ध एकमात्र महिला विद्यालयों में ही सम्भव है, इसलिए इनका विकास और प्रसार किया जा रहा है।
( 4 ) नेतृत्व और उत्तरदायित्व की क्षमता का विकास–भारतीय स्त्री ने विविध क्षेत्रों में मार्ग-दर्शन और नेतृत्व किया है। लक्ष्मीबाई (झाँसी की रानी), सरोजिनी नायडू, ऐनी बेसेन्ट, कमला नेहरू, कस्तूरबा, इन्दिरा गाँधी जैसी विदुषी महिलाओं ने युद्ध कौशल, सामाजिक सुधार, राजनीतिक सुधार और आर्थिक नियोजन में भारी योगदान दिया है इसलिए आधुनिक स्त्री छात्राओं को पुरुषों के समान विकास की सुविधाएँ और अवसर देकर प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व का शिक्षण देना चाहिए, जिससे वे योग्य चिकित्सक, योग्य अभियन्ता, योग्य अध्यापक और समाज सुधारक बनकर राष्ट्र की सेवा कर सकें।
(5) योग्य माता, गृहणी, पत्नी और कार्यकर्त्ता बनानाभारतीय संस्कृति में माता बालक की सबसे पहली आचार्य (गुरु) होती है। वह बालक के संस्कारों को निर्धारित करती है और समुचित वातावरण, सीख, लालन-पालन और स्नेह देखकर उसका सामाजिक तथा मानवीय विकास करती है। गृहस्थ जीवन में स्त्री माता, गृहिणी तथा पत्नी तीनों के रूप में कर्त्तव्य पालन करती है। उनकी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो कि स्त्रियाँ कुशल माता, गृहिणी, पत्नी और सहयोगी बन सकें ।
( 6 ) प्रजातंत्र की सुरक्षा और गणतंत्र में विश्वास रखने की भावना का प्रसार–बालक के प्रशिक्षण एवं शिक्षण की सबसे पहली सीढ़ी परिवार है। माता-पिता और परिवार के लोग बालक को नागरिकता की शिक्षा भी देते हैं। यदि स्त्री प्रजातन्त्र की प्रणालियों से परिचित है तो वह अपने घर का वातावरण भी प्रजातंत्रात्मक बना सकती है। ऐसे वातावरण में पलने वाले बालक प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले और योगदान देने वाले बन सकेंगे। इसलिए स्त्री-शिक्षा पाठ्यक्रम में नागरिकता की शिक्षा और प्रजातंत्र के सिद्धान्तों की जानकारी का समावेश करना चाहिए।
(7) धार्मिकता, नैतिकता, चरित्र-निर्माण और शान्ति स्थापना का स्रोत बनाना धार्मिक भावनाओं का प्रसार करके स्त्री बालकों का नैतिक आचरण सुधारती है। वह दया की देवी है, क्षमा-शीलता उसका धर्म है, वह सहिष्णु, उदार और सहकारी है। स्त्री बालकों में योग्य नागरिक के इन गुणों की स्थापना करती है। शिक्षा द्वारा स्त्री का धार्मिक, नैतिक और चारित्रिक मार्ग-दर्शन करना आवश्यक है।
(8) व्यावसायिक जीविकोपार्जन एवं कला में दक्षता — यदि किसी परिवार के कर्त्तव्यों के निर्वाह की पूर्ति करने के उपरान्त स्त्री के पास अवकाश का समय बचता है तो वह उसका सदुपयोग व्यावसायिक एवं जीविकोपार्जन के कार्यों द्वारा कर सकती है। इस प्रकार स्त्री परिवार की आर्थिक स्थिति में भारी योगदान दे सकती है। जब किसी परिवार का मुखिया नहीं रहता तो परिवार के लालन-पालन का भार स्त्री पर ही आ जाता है। अस्तु, स्त्री जाति को सशक्त बनाना चाहिए और शिक्षा क्रम में उपयोगी पाठ्यक्रम संजोना चाहिए।
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