स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं बंधुत्व की प्रतिज्ञा की पूर्ति में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए ।
स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं बंधुत्व की प्रतिज्ञा की पूर्ति में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर— स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं बंधुत्व की प्रतिज्ञा की पूर्ति में शिक्षा की भूमिका—
स्वतन्त्रता–व्यक्ति की मूलभूत प्रवृत्ति है कि वह स्वतन्त्र रहना चाहता है किन्तु प्रजातन्त्र में इस स्वतन्त्रता का प्रयोग विवेकसम्मत रूप में किया जाये इसके लिए प्रतिबंध भी है तथा स्वतन्त्रता भी। अमर्यादित व्यवहार किसी भी समाज के लिए हितकारी नहीं हो सकता। अतः स्वतन्त्रता के लिए भी कुछ संवैधानिक प्रावधान किये गये हैं जिससे व्यक्ति का व्यवहार अमर्यादित व उच्छृंखल न हो जाये। चिन्तन, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था एवं पूजा की स्वतन्त्रता प्रत्येक भारतीय नागरिक को प्रदान की गई है। अतः वर्तमान समय में स्वतन्त्रता का मूल्य भारतीय समाज के लिए अभीष्ट है।
‘जनतांत्रिक व्यवस्था का मूल आधार स्वतन्त्रता होती है। जन साधारण अपने जीवन में स्वविवेक से निर्णय ले सकें, कार्य कर सकें बिना किसी अवरोध के अपना विकास कर सकें इसकी व्यवस्था करना सरकार का कार्य होता है। स्वतन्त्रता को परिभाषित करें तो इसके अर्थ को सकारात्मक एवं नकारात्मक रूप से परिभाषित करके समझा जा सकता है।
सकारात्मक परिभाषा–”बिना किसी बाधा के अपने व्यक्तित्व को प्रकट करने के अधिकार का नाम स्वतन्त्रता है । ” —जी. टी. एस. कौल
नकारात्मक परिभाषा— “स्वतन्त्रता सभी प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव नहीं वरन् अनुचित के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था है। ” — मैकेंजी
विस्तृत रूप में परिभाषा–“मानव को यह विश्वास होना चाहिए कि वह सब कार्य अपनी इच्छा से कर रहा है । ” — मौन्टेस्क्यू
वास्तव में स्वतन्त्रता एक सापेक्ष भाव है अर्थात् दूसरों की भावनाओं तथा स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए अपनी स्वतन्त्रता का उपभोग करना तथा राज्य के कानूनों का पालन करना वास्तविक स्वतन्त्रता कहा जायेगा।
स्वतन्त्रता के प्रकार – स्वतन्त्रता के विभिन्न प्रकारों को भी विद्वानों ने वर्गीकृत किया है। स्वतन्त्रता के कुछ प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं—
(1) नागरिक स्वतन्त्रता
(2) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता
(3) राजनीतिक स्वतन्त्रता
(4) सामाजिक स्वतन्त्रता
(5) प्राकृतिक स्वतन्त्रता
(6) आर्थिक स्वतन्त्रता
(7) धार्मिक स्वतन्त्रता
(8) संवैधानिक स्वतन्त्रता
स्वतन्त्रता के इन विभिन्न प्रकारों का संरक्षण किया जायेगा तभी समाज में जनतन्त्रात्मक शासन प्रणाली सफल होगी इस संदर्भ में इन कारकों का उल्लेख करना भी अनिवार्य है जो स्वतन्त्रता का संरक्षण करते है—
(1) स्वतन्त्रता का संरक्षक सर्वप्रथम संविधान को माना जाता है।
(2) स्वतन्त्रता के संरक्षण के लिए समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना अनिवार्य है।
(3) स्वतन्त्रता के संरक्षण के लिए संचार माध्यमों की भूमिका निष्पक्ष होनी चाहिए।
(4) स्वतन्त्र न्यायपालिका भी स्वतन्त्रता के संरक्षण में सशक्त भूमिका निर्वाह करती है।
(5) निर्वाचन की स्वतन्त्रता एवं नियमितता द्वारा भी स्वतन्त्रता का संरक्षण किया जाता है
(6) सशक्त जनमत तैयार कर स्वतन्त्रता को संरक्षित किया जा सकता है।
समानता–संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के वायदे को पूर्ण करने में शिक्षा की भूमिका की चर्चा करें तो निम्नलिखित बिन्दु उभर कर आते
समानता के मूल्य की आवश्यकता भारतीय समाज को एक विशेष कारण से अनुभव हो रही है, वह है एक विशिष्ट वर्ग का वंचित रह जाना। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक कारणों से जो वर्ग सामान्य धारा से पृथक् हो रहा है उसे अन्य के समान लाने का प्रयास इस मूल्य के मूल में निहित है। इसके लिए व्यवसाय में पदों के समान अवसर प्रदान करना, शिक्षा के लिए समान अवसर प्रदान करना इत्यादि प्रयास किये जा रहे हैं । विषमताओं को समाप्त करना इस मूल्य का उद्देश्य है।
समानता का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए अथवा प्रत्येक व्यक्ति को समान वेतन दिया जाए। यदि ईंट ढोने वाले का वेतन एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक या गणितज्ञ के बराबर कर दिया जाये तो इससे समान का उद्देश्य ही नष्ट हो जायेगा । इसलिए समानता का अर्थ यह है कि कोई विशेषाधिकार वाला वर्ग न रहे तथा सबको समान रूप से उन्नति के अवसर उपलब्ध रहें ।
डेविड स्प्ट्जि–“समानता का तकाजा सिर्फ यह है कि सही स्थान पर सही व्यक्ति होना चाहिए।”
बार्कर–“समानता का यह अर्थ है कि अधिकारों के रूप में जो सुविधाएँ मुझे प्राप्त हैं, वैसी ही उसी मात्रा में वे सुविधाएँ दूसरों को भी उपलब्ध हों तथा दूसरों को भी अधिकार प्रदान किये जायें वे मुझे भी अवश्य प्राप्त हों।”
अतः उपर्युक्त परिभाषाओं के परिप्रेक्ष्य में समानता के तथ्य को समझने पर यहं स्पष्ट होता है कि समानता से हमारा अभिप्राय सबको एक लाठी से चलाना नहीं है। जिस दृष्टिकोण को समानता में महत्त्व दिया गया है। वह निम्न प्रकार है—
समानता के आधार—
(1) विकास के समान अवसर ।
(2) राज्य के समस्त नागरिकों से निष्पक्ष व्यवहार ।
(3) मानवीय गरिमा एवं अधिकारों की समानता ।
(4) एक जैसे लोगों से समान व्यवहार ।
(5) जाति लिंग, धर्म, वंश, रंग, सम्पत्ति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं ।
(6) प्रत्येक व्यक्ति को समान महत्त्व ।
न्याय – प्लेटो ने न्याय के विषय में कहा है कि–न्याय सर्वोपरि गुण है।
कान्ट ने न्याय को परिभाषित करते हुए कहा है- ‘न्याय व्यक्ति की बाह्य स्वतंत्रता है जो अन्य व्यक्तियों की स्वतन्त्रता से सीमित है। “
सभ्यताओं के विकास के साथ भारतीय समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था का रूप विकृत होता गया परिणामस्वरूप जाति-पाँति का भेदभाव, अस्पृश्यता आदि ने अन्याय को जन्म दिया, शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई जाने लगी। नकारात्मक मनोवृत्तियों को रोकने के लिए सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की व्यवस्था हमारे संविधान में की गई है।
सामाजिक न्याय– (1) सम्पत्ति, (2) अवसर, (3) स्तर, (4) प्रजाति (5) लिंग ।
आर्थिक न्याय– (1) रोजगार, (2) आवश्यक आवश्यकताएँ, (3) समान कार्य समान वेतन, (4) राजनीतिक न्याय, (5) राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी ।
भ्रातृत्व–भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक के गौरव आत्मसम्मान की रक्षा करता है। भ्रातृत्व की भावना को विकसित करने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक दूसरे नागरिक का सम्मान करे। भारतीय संस्कृति में प्रयुक्त शब्द ‘ आत्म-सम्मान’ एवं ‘ आत्म नियंत्रण’ दोनों ही भ्रातृत्व के संवधौनिक मूल्य को विकसित करने वाले हैं।
व्यक्ति की सीमाओं के बाहर निकलकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना का विकास करना तथा व्यक्ति की गरिमा को बनाये रखना इस मूल्य में प्रच्छन्न है। पारस्परिक सहयोग बनाये रखकर ही राष्ट्र का विकास किया जा सकता है। तनाव, कुण्ठा, हताशा, वैमनस्य जैसे नकारात्मक संवेगों को न्यून करने के लिए भ्रातृत्व का मूल्य एक शस्त्र के समान है। यह सभी अनुभव करते हैं कि इस मूल्य की वर्तमान समय में प्रासंगिकता निर्विवाद है।
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