स्व-पहचान के विभिन्न कारकों का वर्णन करते हुए स्व-पहचान के निर्माण में एरिक्सन के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए ।
स्व-पहचान के विभिन्न कारकों का वर्णन करते हुए स्व-पहचान के निर्माण में एरिक्सन के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— स्व-पहचान के कारक – स्व-पहचान दो प्रकार की होती हैं—
(1) सामाजिक स्व-पहचान–इसके अन्तर्गत बालक की पहचान समूह के एक सदस्य के रूप में होती है, जैसे— भारतीय, ब्रिटिश, अमेरिकन आदि ।
(2) व्यक्तिगत स्व-पहचान—इसके अन्तर्गत बालक अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाता है तथा इसके निम्न कारक हैं—
(i) लिंग – इसके अन्तर्गत बालक की स्व-पहचान लिंग के आधार पर होती है कि वह पुरुष है या स्त्री, बालक है या बालिका आदि।
(ii) पारिवारिक स्तर — इसके अन्तर्गत बालक की स्व-पहचान उसके परिवार की सामाजिक व आर्थिक स्तर के आधार पर होती है कि वह गरीब परिवार से है, मध्यमवर्गीय परिवार से है या धनाढ्य परिवार से है।
(iii) जाति—इसके अन्तर्गत बालक की व्यक्तिगत पहचान उसकी जाति के आधार पर होती है तथा जाति के विषय में पूर्वाग्रहों के आधार पर उसकी स्व-पहचान बनती है कि वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र किस जाति का है। यदि वह क्षत्रिय है तो उसकी पहचान एक वीर, धनी के रूप में होती है। यदि वह ब्राह्मण है तो उसकी पहचान धार्मिक, कर्मकाण्डी व्यक्ति के रूप में होती है, यदि वह वैश्य है तो की पहचान एक व्यापारी के रूप में होती है।
(iv) नाम- इसके अन्तर्गत बालक की पहचान उसके नाम के आधार पर होती है, यथा— राम, श्याम, मोहन आदि । 12
(v) व्यवसाय—इसके अन्तर्गत बालक की पहचान उसके व्यवसाय से होती है, जैसे—डॉक्टर, इंजीनियर, हलवाई, दुकानदार आदि ।
(vi) भूमिका—इसके अन्तर्गत बालक की पहचान, समाज में उसके द्वारा निभायी जाने वाली भूमिका से होती है, जैसे—माता-पिता, भाई, बहन आदि ।
व्यक्तिगत पहचान बचपन से ही बननी शुरू हो जाती है तथा सम्पूर्ण जिन्दगी यह प्रक्रिया चलती रहती है।
स्व-पहचान के निर्माण में एरिक्सन के विभिन्न स्तर—
एरिक एरिक्सन एक अमेरिकी विकास मनोवैज्ञानिक एवं
मनोविश्लेषक थे जिनका जन्म जर्मनी में हुआ था। वे अपने मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त के लिए जाने जाते हैं। एरिक्सन के सिद्धान्त के अनुसार पूरा जीवन विकास के आठ चरणों से होकर जाता है। प्रत्येक चरण में एक विशिष्ट विकासात्मक मानक होता है, जिसे पूरा करने में आने वाली कठिनाइयों का समाधान करना आवश्यक है। एरिक्सन के अनुसार समस्या कोई संकट नहीं होती है, बल्कि संवेदनशीलता व सामर्थ्य को बढ़ाने वाला महत्त्वपूर्ण बिन्दु होती है। समस्या का व्यक्ति जितनी सफलता के साथ समाधान करता है उसका उतना ही अधिक विकास होता है।
(1) विश्वास बनाम अविश्वास– यह एरिक्सन का पहला मनोसामाजिक चरण है जिसका जीवन के पहले वर्ष में अनुभव किया जाता है। विश्वास के अनुभव के लिए शारीरिक आराम, कम से कम डर, भविष्य के प्रति कम से कम चिन्ता आदि स्थितियों की आवश्यकता होती है। यदि बालक को ऐसी परिस्थितियाँ मिल जायें तो उसकी पहचान ऐसे बालक के रूप में होती है जिसे इस संसार पर विश्वास है। यदि ऐसी परिस्थितियाँ नहीं मिलतीं तो उसकी पहचान ऐसे बालक के रूप में होती है जिसे किसी पर भी विश्वास नहीं है।
(2) स्वायत्तता बनाम शर्म – यह एरिक्सन के द्वितीय विकासात्मक चरण की स्थिति है जो शैशवावस्था के उत्तरार्द्ध व बाल्यावस्था (1 से 3 वर्ष) के बीच होती है। यदि बालक को स्वतंत्रता दी जाये तो उसकी पहचान स्वतंत्र व स्वायत्त बालक के रूप में होती है। यदि बालक पर अधिक बन्धन लगाये जायें, कठोर दण्ड दिया जाये तो उसमें शर्म व सन्देह की भावना विकसित होती है तथा उसकी पहचान शर्मीले व संदेही बालक के रूप में होती है।
(3) पहल बनाम अपराधबोध– एरिक्सन के विकास का तीसरा चरण विद्यालय जाने के प्रारम्भिक वर्ष के बीच का होता है। एक प्रारम्भिक शैशवावस्था की तुलना में उसे अधिक चुनौतियाँ झेलनी पड़ती हैं। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए एक सक्रिय एवं प्रयोजन पूर्ण व्यवहार की आवश्यकता होती है। इस उम्र के बच्चों को उनके शरीर, उनके व्यवहार, उनके खिलौने और पालक पशुओं के बारे में ध्यान देने को कहा जाता है। अगर बालक गैर-जिम्मेदार है और उसे बार-बार व्यग्र किया जाये तो उनके अन्दर असहज अपराध बोध की भावना उत्पन्न हो सकती है तथा बालक की पहचान असहज, असन्तुलित बालक के रूप में होने लगती है।
(4) परिणाम/उद्यम बनाम हीन भावना– यह एरिक्सन का चौथा विकासात्मक चरण है जो कि बाल्यावस्था के मध्य (प्रारम्भिक वर्षों) परिलक्षित होता है। बालक द्वारा की गई पहल से वह नये अनुभवों के सम्पर्क में आता है और जैसे-जैसे वह बचपन के मध्य व अन्त तक पहुँचता है, तब तक वह अपनी ऊर्जा को बौद्धिक कौशल और ज्ञान को हासिल करने की दिशा में मोड़ देता है। बाल्यावस्था का अंतिम चरण कल्पनाशीलता से भरा होता है इस समय बालक में सीखने के प्रति जिज्ञासा का सबसे अच्छा समय होता है। यदि बालक अपने सम्पूर्ण परिश्रम से कार्य करता है तो उसकी पहचान परिश्रमी, बुद्धिमान व जिज्ञासु के रूप में होती है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो वह अपने स्व की पहचान अयोग्य, असमर्थ बालक के रूप में करने लगता है तथा हीन भावना से ग्रसित हो जाता है।
(5) पहचान बनाम पहचान भ्रांति – यह एरिक्सन का पाँचवाँ विकासात्मक चरण है, जिसका अनुभव किशोरावस्था के वर्षों के रूप में होता है। इस समय व्यक्ति को इन प्रश्नों का सामना करना पड़ता है कि वह कौन है ? किससे सम्बन्धित है ? और उसका जीवन कहाँ जा रहा है ? किशोरों को बहुत सारी भूमिकाओं व वयस्क स्थितियों का सामना करना पड़ता है। यदि वह अपनी पहचान नहीं बना पाता तो पहचान भ्रांति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(6) आत्मीयता बनाम अलगाव – यह एरिक्सन का छठा चरण है जिसका अनुभव युवावस्था के प्रारम्भिक वर्षों में होता है। यह व्यक्ति के पास दूसरों से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करने का विकासात्मक मानक है। एरिक्सन ने आत्मीयता को परिभाषित करते हुए कहा है कि आत्मीयता का अर्थ है स्वयं को खोजना, स्वयं को किसी और व्यक्ति में खोजना। व्यक्ति की किसी के साथ स्वस्थ मित्रता विकसित हो जाती है और आत्मीय सम्बन्ध बन जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो उसमें अलगाव की भावना विकसित हो जाती है तथा उसकी पहचान भी अलगाववादी व्यक्ति के रूप में होने लगती है।
(7) उत्पादकता बनाम स्थिरता – यह एरिक्सन का सातवाँ चरण है जो मध्य वयस्क अवस्था में अनुभव होता है। इस चरण का उद्देश्य नई पीढ़ी को विकास में सहायता देने से सम्बन्धित होता है। एरिक्सन का उत्पादकता से यही अर्थ है कि नई पीढ़ी के लिए कुछ नहीं कर पाने की भावना से स्थिरता की भावना उत्पन्न हो जाती है।
(8) सम्पूर्णता बनाम निराशा – यह एरिक्सन का आठवाँ और अंतिम चरण है जो कि वृद्धावस्था में अनुभव होता है। इस चरण में व्यक्ति अपने अतीत को टुकड़ों के साथ याद करता है और सकारात्मक निष्कर्ष निकालता है तथा स्व की पहचान एक सम्पूर्ण व्यक्ति के रूप में करता है या फिर बीते हुए जीवन के बारे में असन्तुष्टि भरी सोच बना लेता है तथा निराशा व उदासी की भावना से ग्रसित हो जाता है तथा स्व की पहचान निराश व्यक्ति के रूप में करने लगता है।
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