भारत में विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की शिक्षा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में विकास के पड़ावों पर प्रकाश डालते हुए विस्तारपूर्वक लिखिए।

भारत में विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की शिक्षा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में विकास के पड़ावों पर प्रकाश डालते हुए विस्तारपूर्वक लिखिए।

उत्तर – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में विकास के पड़ाव –
( 1 ) प्राचीन वैदिक काल में अष्टाचक्र दीर्घकालिक एवं गम्भीर अस्थि विकलांगता से ग्रसित थे, लोगों की योग्यता एवं निःशक्तता के भेदभाव के बिना सभी के लिए शैक्षिक सुविधाओं की उपलब्धता के कारण विद्वान हुए। महान् ऋषि एवं गुरु कर्म सिद्धान्त में कठोर आस्था रखने के लिए जाने जाते थे तथा इस प्रकार वे मानते थे कि निःशक्त लोगों को आत्मबोध तथा अच्छा करने की कला को सीखने हेतु विशाल अवसर दिए जाने चाहिए ताकि वे अगले जन्म में उत्तम जीवन प्राप्त
करेंगे।
परिणामतः निःशक्त बच्चों का उपचार, देखभाल तथा शिक्षा भी बहिष्करण निर्मूलन, उपहास तथा मनोरंजक सहानुभूति तथा आश्रम के चरणों से गुजारा है। प्राचीन इतिहास के उत्तर काल में, निःशक्त लोगों को मानना या व्यवहार करने का अभ्यास बुरी आत्मा, पूर्व जन्म के बुरे कर्म तथा परिवार के लिए बुरे लक्षण के प्रतीक के रूप में बहुत प्रचलित था। ग्रामीण क्षेत्रों में जादू टोना भी बहुत सामान्य था। निःशक्त एवं निसहाय लोगों हेतु अस्पताल एवं आश्रमों की स्थापना द्वारा इनका अनुसरण किया गया।
( 2 ) स्वतंत्रता पूर्व – मध्यकालीन भारत में निःशक्त लोगों की देखभाल एवं संरक्षण हेतु राजकीय कोष तथा दान कार्य निरन्तर रहा। मुगल तथा मराठा शासक निःशक्त व्यक्तियों तथा निर्धनों हेतु अपने दान कार्य हेतु जाने जाते थे। निःशक्त व्यक्तियों हेतु सहानुभूति, संरक्षण तथा देखभाल की प्रवृत्ति प्रबल थी। बधिरों के लिए सन् 1883 में, नेत्रहीनों के लिए सन् 1887 में तथा मानसिक विकलांगता (वर्तमान में बौद्धिक निःशक्तता) के लिए सन् 1949 में विशेष विद्यालय की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण विकास था। वर्तमान में दिखने वाला विशेष विद्यालय शिक्षा का प्रतिरूप क्रिश्चिन मिशनरियों एवं देश के दानार्थ संगठनों द्वारा किए गए कार्य को अपनी उत्पत्ति का ऋणी है।
( 3 ) स्वतन्त्रता पश्चात्— भारत ने स्वतन्त्रता पश्चात् के काल में निःशक्त बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देने का प्रयास किया। चौदह वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों हेतु निःशुल्क एवं अनिवार्य सार्वभौमिक, प्राथमिक शिक्षा का उल्लेख करते हुए संविधान के अनुच्छेद 45 में विशेष प्रावधान किया गया। विभिन्न पंचवर्षीय योजना में निःशक्त लोगों की शिक्षा पर कोठारी आयोग (1964-66) में बल दिया गया। निःशक्त बच्चों हेतु समेकित शिक्षा (IEDC) योजना 1974 में आरम्भ · की गई जो सन् 1985 के जिला प्राथमिक शिक्षा परियोजना के साथ सन् 1997 में सम्मिलित हो गई जिसने बल दिया कि प्रारम्भिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण केवल तभी सम्भव है यदि निःशक्त बच्चे शैक्षिक पहलुओं की परिधि में आते हैं। निःशक्त बच्चों हेतु विशेष विद्यालय तथा समेकित व्यवस्था साथ-साथ कार्यरत थे। सन् 1980 के दशक तक बधिर, नेत्रहीन तथा मानसिक विकलांग बच्चों हेतु विद्यालयों की संख्या 150 से अधिक हो गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की कार्य योजना, 1992 के पश्चात् नियमित विद्यालयों में निःशक्त बच्चों को समेकन गति से प्राप्त किया।
निःशक्त बच्चों की शिक्षा के इतिहास में महत्त्वपूर्ण मोड़ तब आया
जब सन् 1997 में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम में महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में समावेशी शिक्षा को मिलाया गया। तब से राष्ट्रीय विधि, न्यास (ट्रस्ट) की स्थापना तथा अन्य सांविधिक निकायों की स्थापना तथा समावेशी व्यवस्था में निःशक्त बच्चों से शिक्षा हेतु भारत द्वारा महत्त्वपूर्ण वैश्विक पहलों के हस्ताक्षरी होने के साथ समावेशी शिक्षा की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं
शिक्षा का अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन के पश्चात् सर्व. शिक्षा अभियान तथा राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की भूमिका निःशक्त बच्चों की समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हो गई है।
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