पाठ्यक्रम निर्माण के सोपानों व्याख्या कीजिए ।
पाठ्यक्रम निर्माण के सोपानों व्याख्या कीजिए ।
अथवा
पाठ्यक्रम निर्माण की व्याख्या कीजिये ।
उत्तर–पाठ्यक्रम निर्माण के सोपान निम्न हैं—
(1) शैक्षिक आवश्यकताओं का निर्धारण
(2) शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण
(3) विषय-वस्तु का गठन
(4) अधिगम अनुभवों का चयन
(5) संसाधनों की पहचान
(6) शिक्षण विधियाँ निर्धारित करना
(7) पाठ्यचर्या का मूल्यांकन
(8) पाठ्यचर्या का पूर्व परीक्षण
(1) शैक्षिक आवश्यकताओं का निर्धारण– किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या का निर्धारण करते समय छात्रों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि सभी छात्रों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। अतः एक कालावधि के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम कैसा होना चाहिए यह सुनिश्चित करने से पूर्व एवं महत्त्वपूर्ण चरण है’ आवश्यकताओं का निर्धारण’। इसके लिए निर्माणकर्त्ता को लक्षित छात्रों को पहचानना और उनका प्रोफाइल तैयार करना चाहिए।
इसके आधार पर निर्माणकर्त्ता छात्रों की आवश्यकताओं का निर्धारण कर सकता है तथा दो निम्नांकित उपायों द्वारा भी निर्माणकर्त्ता आवश्यकताओं का निर्धारण कर सकता है
(1) सर्वेक्षण— सर्वेक्षण द्वारा शैक्षिक आवश्यकताओं का पता लगाया जा सकता है। निर्माणकर्त्ता लक्षित समूह के उन पक्षों का अध्ययन करता है जिनमें शैक्षिक निवेश की आवश्यकता है। शैक्षिक आवश्यकताओं के साथ-साथ हमें लक्षित वर्ग की पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी एकत्रित करनी चाहिए। क्षेत्रीय अध्ययन के द्वारा निर्धारित की गई आवश्यकताएँ अनुभूत आवश्यकताएँ कहलाती हैं।
(2) आँकड़ों का विश्लेषण–विभिन्न उपलब्ध आँकड़ों जैसे आयोग की रिपोर्ट, सरकारी नीतियों के आधार पर छात्रों की आवश्यकता का निर्धारण किया जा सकता है। पाठ्यचर्या निर्माण में नीति दस्तावेज उपयोगी निर्देशन कर सकते हैं। इन गौण स्रोतों के माध्यम से प्राथमिकताओं वाले क्षेत्रों को पहचाना जा सकता है। इन गौण स्रोतों से निर्धारित आवश्यकताएँ ‘अवलोकित आवश्यकताएँ’ कहलाती हैं। निर्माणकर्त्ता को ‘यथार्थ आवश्यकता’ निर्धारित करने के लिए शिक्षा व्यवस्था की सीमा एवं व्यवस्था के आधार पर प्राथमिक क्षेत्रों की सूची तैयार कर लेनी चाहिए। इन सूची को तैयार करने के लिए अनुभूत आवश्यकताओं और ‘अवलोकित आवश्यकताओं’ का विश्लेषण करना आवश्यक है।
( 2 ) शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण उन्हें निर्धारित करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए—
(1) मिलान उद्देश्यों का निर्धारण करते समय निर्माणकर्ता को इस बात का मिलान कर लेना चाहिए कि जिन उद्देश्यों को वह निर्धारित कर रहा है वे अपने विस्तृत लक्ष्यों के स्रोत से सम्बन्धित हैं अथवा नहीं। उदाहरण के लिए शिक्षक द्वारा प्रकरण के अंत में छात्रों से प्रकरण सम्बन्धित प्रश्न पूछने का उद्देश्य यह ज्ञात करना है कि उसने जो लक्ष्य निर्धारित किए थे उनकी पूर्ति हो रही है या नहीं। शिक्षक द्वारा सिखाए ज्ञान को छात्रों ने कहाँ तक सीखा है तथा उनका प्रयोग किस स्तर तक कर सकते हैं। इसी प्रकार निर्माणकर्त्ता को उद्देश्य निर्धारित करते समय यह मिलान करते रहना चाहिए कि उनके उद्देश्य छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं या नहीं।
(2) तार्किक वर्गीकरण—उद्देश्यों का वर्गीकरण तार्किक रूप में किया जाना चाहिए अर्थात् वर्गीकरण किसी सामान्य विचार के आधार पर या संज्ञानात्मक, भावात्मक एवं मनोक्रियात्मक आदि के आधार पर किया जाना चाहिए। उद्देश्यों का उपयुक्त वर्गीकरण विषयवस्तु और मूल्यांकन की दृष्टि से एक सार्थक एवं योजनाबद्ध पाठ्यचर्या विकसित करने में सहायक होता है।
(3) कथन–उद्देश्य के कथन स्पष्ट एवं तार्किक होने चाहिए जिससे छात्र निर्दिष्ट निष्पत्तियों को आसानी से समझ सकें। उद्देश्य कथन में अस्पष्टता होने से छात्र एवं शिक्षक दोनों भ्रमित हो सकते हैं इसलिए कथन स्पष्ट होने चाहिए।
(4) उपयुक्तता—पाठ्यचर्या निर्माणकर्ता को ऐसे उद्देश्यों का निर्माण करना चाहिए जो छात्रों की आवश्यकताओं एवं रुचियों को पूर्ण करते हों। अनावश्यक एवं अनुपयुक्त उद्देश्यों को पाठ्यचर्या में सम्मिलित नहीं करना चाहिए। अन्यथा शिक्षण प्रक्रिया के दिशाहीन होने की सम्भावना रहती है।
(5) पुनरीक्षण —समय के साथ-साथ छात्रों की आवश्यकताओं ज्ञान के क्षेत्र एवं अनुदेशनात्मक नीतियों में परिवर्तन होता रहता है इसलिए उद्देश्यों का पुनरीक्षण करते रहना चाहिए। पुनरीक्षण उद्देश्यों के संशोधन में आवती प्रभाव डालता है और पाठ्यचर्या को एक सतत् प्रक्रिया बनाने में सहायता करता है। इसी कारण पाठ्यचर्या को लचीला बनाना चाहिए जिससे उसमें सामाजिक बदलावों को आसानी से समायोजित किया जा सके।
( 6 ) उत्कर्ष पाठ्यचर्या छात्र के वर्तमान एवं भावी जीवन के निर्माण में बहुत महत्त्व रखती है इसलिए समय-समय पर पाठ्यचर्या को एवं उनके उद्देश्यों को अद्यतन करते रहना चाहिए तथा उनमें सुधार करते रहना चाहिए ताकि मानव जीवन तथा शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारा जा सके। उद्देश्य छात्रों की आवश्यकतानुसार अर्थपूर्ण प्रासंगिक एवं उपयोगी होने चाहिए।
( 3 ) विषय-वस्तु का गठन–विषय-वस्तु के चयन के पश्चात् उसका व्यवस्थित रूप से गठन करना आवश्यक है क्योंकि पाठ्यचर्या मूलत: अधिगम की योजना है। पाठ्यचर्या की विषय-वस्तु का संगठन व्यवस्थित रूप से किया जाना चाहिए जिसमें शैक्षिक उद्देश्यों को सरलता से प्राप्त किया जा सके। यदि विषय-वस्तु सुव्यवस्थित रूप से नहीं होगी तो पाठ्यचर्या के निर्धारित उद्देश्यों एवं निर्देशन में समस्या उत्पन्न होने लगती है।
पाठ्यचर्या का निर्माण करना एक जटिल कार्य है। इसके लिए निर्माणकर्ता हो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की पूरी जानकारी होनी चाहिए। पाठ्यचर्या निर्माण में विषय-वस्तु गठन में निम्नांकित बातों को अवश्य सम्मिलित किया जाना चाहिए—
( 1 ) एकीकरण-अधिगम प्रभावशाली तभी होता है जब सीखे गए तथ्यों एवं सिद्धान्तों का प्रयोग छात्र दूसरे स्थानों पर भी कर सकें। पाठ्यचर्या निर्माणकर्ता को पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय सभी विषयों में सह-सम्बन्ध स्थापित करते हुए पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहिए। यदि ध्यान से देखा जाए तो लगभग सभी विषयों में कुछ न कुछ सम्बन्ध होता है इसलिए विषय वस्तु के गठन के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
( 2 ) निरन्तरता–पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जिसमें निरन्तरता हो तथा जो उत्तरोत्तर कठिन निष्पादन की ओर ले जाए जिसमें पहले की अध्ययन सामग्री बाद की तुलना में सरल होनी चाहिए। विषय-वस्तु ऐसी हो जो छात्रों को अपने विचारों को व्यापक रूप से प्रयोग करने के अवसर प्रदान करे। विषय-वस्तु को निरन्तरता एवं अधिगम प्रदान करने के लिए भूलवश होने वाली त्रुटियों को कम करना चाहिए। छात्रों को प्रत्येक स्तर पर विषय-वस्तु के माध्यम से कुछ न कुछ अनुभव प्राप्त होते रहना चाहिए।
(3) क्रमबद्धता क्रमबद्धता से तात्पर्य विषय-वस्तु एवं सामग्री को एक निश्चित अनुक्रम में लिखना है। विषयवस्तु को क्रमबद्ध करते समय सिद्धान्तों एवं शिक्षण सूत्रों जैसेज्ञात से अज्ञात की ओर, सरल से जटिल की ओर आदि को ध्यान में रखना चाहिए। विषय-वस्तु को काल जैसेप्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल आदि के आधार पर व्यवस्थित करना चाहिए। इन सिद्धान्तों एवं प्रतिमानों के अतिरिक्त विषय-वस्तु का संगठन नियोजन की कुशलता पर भी निर्भर करता है।
विषय-वस्तु के गठन के समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए—
(1) विषय-वस्तु का गठन करते समय छात्रों की आवश्यकताओं एवं रुचियों को ध्यान में रखकर ही पाठ्य-वस्तु का चयन करना चाहिए।
(2) विषय-वस्तु छात्रों के पूर्व ज्ञान व उपलब्धियों पर आधारित होनी चाहिए।
(3) विषय-वस्तु ऐसी होनी चाहिए जिसके माध्यम से पूर्व में निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।
(4) पाठ्यचर्या में ऐसी ही विषय-वस्तु को सम्मिलित किया जाना चाहिए जो छात्रों में कौशलों, मूल्यों एवं रुचियों आदि का विकास करने में सहायक हो।
(5) विषय-वस्तु ऐसी होनी चाहिए जिसका छात्र सरलता से अधिगम कर सकें।
(6) विषय-वस्तु स्पष्ट एवं शुद्ध होनी चाहिए।
(7) विषय-वस्तु छात्रों की योग्यता, क्षमता एवं व्यक्तित्व भिन्नता के आधार पर व्यवस्थित होनी चाहिए।
(8) विषय-वस्तु का चयन करना चाहिए जो छात्रों, समाज एवं राष्ट्र के लिए उपयोगी हो ।
( 4 ) अधिगम अनुभवों का चयन-अधिगम अनुभवों से तात्पर्य अधिगम प्रक्रिया के दौरान छात्र के अनुभव अर्जन से है। यह अनुदेश के पारम्परिक तरीकों के साथ ही साथ प्रामाणिक अधिगम को भी सम्मिलित करता है। यह छात्रों को विषय-वस्तु में व्यस्त रखने एवं उन्हें नए कौशल के लिए मार्गदर्शन एवं सहायता प्रदान करता है। जब अधिगम अनुभव की योजना बनाई जाए तो शिक्षकों को छात्रों को उनके उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की ओर स्थानान्तरित करते रहना चाहिए । अधिगम अनुभव’ शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए आयोजित क्रियाओं, शिक्षणविधियों एवं शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को पूर्ण रूप में निर्देशित करते हैं।
अधिगम अनुभव के अन्तर्गत निम्नांकित शिक्षण विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं—
(1) व्याख्यान
(2) परिचर्चा
(3) निर्देशन
(4) परियोजना आदि।
अधिगम अनुभव के चयन में निम्नांकित अधिगम क्रियाओं क प्रयोग किया जाता है—
(1) क्षेत्र पर्यटन
(2) प्रयोग करना
(3) फिल्म देखना
(4) नियत कार्य देखना
(5) परिचर्चाओं में भाग लेना आदि ।
शिक्षण विधियाँ एवं अधिगम क्रियाएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। ठीक इसी प्रकार अभिगन अनुभव एवं विषय वस्तु दोनों भी आपस में परस्पर सम्बन्धित होते हैं।
( 5 ) संसाधनों की पहचान पात्यचर्या के निर्माण में संसाधनों की आवश्यकता होती है। इन संसाधनों के अभाव में पाठ्यचर्या निर्माण का कार्य अत्यन्त जटिल हो जाता है। निर्माणकर्ता को पाठ्यचर्या में प्रयुक्त संसाधनों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए तभी वह संसाधनों का उचित प्रयोग कर सकता है।
(6) शिक्षण विधियाँ निर्धारित करना — बिना शिक्षण विधियों के लक्षित छात्रों की आवश्यकताओं एवं रुचियों की प्राप्ति नहीं की जा wa सकती है। पाठ्यचर्या सदैव परिवर्तित एवं विकसित होती रहती है इसलिए शिक्षण विधियों के चयन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए। शिक्षण विधियों का चयन पाठ्यचर्या की संरचना एवं विषय-वस्तु के अनुसार किया जाना चाहिए। शिक्षण विधियाँ ही वह माध्यम है जिसके माध्यम से शिक्षक व छात्रों के मध्य सम्बन्ध स्थापित होता है। शिक्षक छात्रों की क्षमताओं, योग्यताओं आदि के बारे में अवगत होता है। पाठ्यचर्या निर्माण में शिक्षण विधियों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। शिक्षण विधियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही पाठ्यचर्या में सुधार किया जाता है। पाठ्यचर्या की तरह शिक्षण विधियों को भी समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित होते रहना चाहिए। शिक्षण विधियों का चयन करते निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए
( 1 ) शिक्षण विधियाँ विषय से सम्बन्धित होनी चाहिए।
(2) पाठ्यचर्या के उद्देश्यों के अनुरूप ही शिक्षण विधियों का चयन करना चाहिए।
(3) शिक्षण विधियाँ छात्रों के अधिगम स्तर एवं शिक्षक की योग्यता के अनुरूप होनी चाहिए।
शिक्षण विधियाँ नए अधिगम अनुभव एवं पूर्व अधिगम अवसरों पर आधारित होनी चाहिए(4)
। ( 7 ) पाठ्यचर्या का मूल्यांकन मूल्यांकन का शाब्दिक अर्थ है— मूल्यों का अंकन । पाठ्यचर्या का मूल्यांकन करने का उद्देश्य यह ज्ञात करना है कि प्रारम्भ में पाठ्यचर्या के निधारित उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है। किसी भी शैक्षणिक कार्यक्रम की प्रभावशीलता इस बात से आंकी जाती है कि उसके उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति की सम्भावना कितनी है। किसी भी सार्थक गतिविधि के मूल्यांकन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
(1) निरन्तरता
(2) वैधता
(3) व्यापकता एवं
(4) पर्याप्त निदानात्मक मूल्य ।
पाठ्यचर्या मूल्यांकन का उद्देश्य पाठ्यचर्या में व्यापक दोषों का पता लगाना है जिसमें पाठ्यचर्या में सुधार करके उसे और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सके।
पाठ्यचर्या मूल्यांकन का अर्थ पाठ्यचर्या के विभिन्न घटकों, उद्देश्य, त्रिधियों, विषयवस्तु मूल्यांकन करने से है। इन सभी घटकों आदि का मूल्यांकन एक साथ ही किया जाता है क्योंकि ये आपस में परस्पर सम्बन्धित होते हैं ।
( 8 ) पाठ्यचर्या का पूर्व परीक्षण–पाठ्यचर्या को पूर्ण रूप से लागू करने से पूर्व उसका एक बार किसी लक्षित छात्रों के समूह पर परीक्षण करते हैं इसे ही पूर्व परीक्षण कहते हैं। इसका उद्देश्य पाठ्यचर्या के विकास एवं नियोजन को और अधिक प्रभावशाली बनाना है। पूर्व परीक्षण से मूल्यांकन के समय जो त्रुटियाँ सुधार करने से छूट जाती हैं उनका पता चल जाता है जिनमें सुधार करके पाठ्यचर्या का विकास किया जा सके और आवश्यकता पड़ने पर पाठ्यचर्या से कुछ तथ्यों को हटाया भी जा सकता है। पूर्व परीक्षण के माध्यम से सम्पूर्ण पाठ्यचर्या के कठिनाई स्तर, उपयोगिता आदि का परीक्षण किया जाता है कि जिस पाठ्यचर्या को लागू किया जा रहा है, वह अमुक वर्ग के बालकों के लिए उपयुक्त है अथवा नहीं।
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