पाठ्यचर्या के प्रभावी निष्पादन में विद्यालय प्रशासन की भूमिका स्पष्ट कीजिये।
पाठ्यचर्या के प्रभावी निष्पादन में विद्यालय प्रशासन की भूमिका स्पष्ट कीजिये।
उत्तर–पाठ्यचर्या के प्रभावी निष्पादन में विद्यालय प्रशासन की भूमिका—
(1) विद्यालय भवन–जिन विद्यालयों में कक्षा कक्षों की संख्या पर्याप्त होती है, उन विद्यालयों की पाठ्यचर्या प्रत्येक कक्षा के लिये पृथक् रूप से निर्धारित की जाती है तथा शिक्षकों को पृथक् कक्षा शिक्षण का प्रशिक्षण प्रदान किया जायेगा। इसके विपरीत विद्यालय भवन में प्रत्येक कक्षा के लिये पृथक् कक्ष की व्यवस्था नहीं होती तो सम्मिलित पाठ्यचर्या का विकास किया जाता है। इस पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों का चुनाव किया जाता है जो कि प्रत्येक कक्षा के लिये सामान्य रूप से उपयोगी होते हैं; जैसे- गणित में गिनती एवं पहाड़े सभी कक्षाओं के लिये उपयोगी माने जाते हैं। इस प्रकार विद्यालय भवन पाठ्यचर्या को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।
कक्षा कक्ष— कक्षा में छात्र जिस भी स्थान पर बैठते हों, उसका छात्रों की शैक्षिक योग्यता पर प्रभाव पड़ता है। यदि छात्र असुविधापूर्वक बैठे हुए हैं तो वह जल्दी थक जायेंगे और शिक्षा व सीखने पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। छात्रों को सुविधाजनक ढंग से बैठाने का अनुकूल प्रभाव छात्रों के स्वास्थ्य व शारीरिक विकास पर भी पड़ेगा क्योंकि दोषपूर्ण फर्नीचर छात्रों को पाचन तन्त्र, नेत्रदोष, कन्धों का दोष, वक्ष का दोष, रीढ़ की हड्डी का झुकाव आदि के अनेक कारण शिक्षण अधिगम को प्रभावित करेंगे। कक्षा में फर्नीचर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है छात्रों के बैठने की मेज-कुर्सी तथा कक्षा का श्यामपट्ट। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि भारतीय विद्यालयों में छात्रों के उचित रूप से बैठने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता इसलिए समुचित शिक्षण अधिगम के लिये कक्षा में उचित फर्नीचर की व्यवस्था होनी चाहिए।
पुस्तकालय — शिक्षण और अधिगम में पुस्तकालय का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुस्तकें हमारे जीवन की पथ प्रदर्शक हैं। पुस्तकें इस प्रज्वलित मशाल की भाँति है जो ज्ञानान्धकार को समाप्त कर देती हैं । पुस्तकालय विद्यालय का एक केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों ओर विद्यालय का सम्पूर्ण चक्कर लगाता है । पुस्तकालय मनुष्य के ज्ञान भण्डार को बनाये रखता है। वह छात्रों के विभाग की विभिन्न प्रकार की सजावट करता है। वास्तव में पुस्तकालय समृद्धि की वह गहरी सतह है जहाँ पर अत्यन्त सुन्दर मोती पाये जाते हैं जो भी उसमें जितना गहरा गोता लगाता है उसे उतने ही सुन्दर तथा भव्य मोती मिलते हैं प्रभावशाली विचार मिलते हैं जो कि परिवर्तनशील विश्व के लिये शिक्षा देते हैं ।
विद्यालय प्रयोगशाला— आज विज्ञान और तकनीकी का विकास बहुत तेजी से हुआ है फलस्वरूप प्रत्येक विषय में शोध-खोज और प्रयोग और प्रयोगों का दायरा भी उतनी ही तेजी से बढ़ा है। प्रयोगों द्वारा • शोध निष्कर्ष निकालने और छात्रों को जीवन में प्रयोग व शोध हेतु प्रशिक्षण देने के लिए प्रयोगशालाओं की आवश्यकता निरन्तर बढ़ रही है। प्रयोगशालाओं द्वारा स्वयं द्वारा निष्कर्ष निकालने के अवसर प्राप्त होते हैं और छात्र स्वयं करके सीखते हैं ।
आज शिक्षा का स्वरूप बदल रहा है, शिक्षण पद्धतियाँ बदल रही हैं। यह तथ्य स्वीकार किया जा रहा है कि ज्ञान देने के बजाय ज्ञान कैसे अर्जित किया जाय शिक्षक की इस सन्दर्भ में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका है और इस भूमिका में विद्यालय की प्रयोगशालाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान अदा कर सकती हैं। सामाजिक जीवन में अनेक समस्याएँ प्रतिदिन आती रहती हैं, इनका समाधान छात्र प्रयोगशाला विधि से निकाल सकते हैं। इससे उनके आत्मविश्वास में वृद्धि होती है और परस्पर सहयोग के साथ कार्य करने से सामाजिक भावना का विकास होता है। प्रयोगशाला से विषय में रुचि बढ़ती है और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। यह छात्रों में पहल करने, आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास करने, साधन सम्पन्नता, सहयोग और वैयक्तिक कार्य करने की शक्ति आदि गुणों का विकास करती है और विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में व्यावहारिक कार्य व योजनाओं के लिए प्रेरित करती हैं ।
खेल के मैदान — खेल बालक के स्वस्थ शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक विकास के लिए अत्यधिक उपयोगी है। यह विद्यालय क्रियाओं का आवश्यक मंत्र है । खेल के मैदान को खुला विद्यालय भी कहते हैं । विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिये खेलों का स्थान पाठ्य सहगामी क्रियाओं में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। खेल में बालक अन्य बालकों के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। इससे उसमें सामाजिक सामंजस्यता बढ़ती है । खेलते समय बालक स्वतन्त्र रूप से भावना प्रकट करता है। अध्यापक इन व्यवहारों को अध्ययन कर उसके रुझानों, शक्तियों, रुचियों का पता लगा सकता है जिनका ज्ञान उसके उचित शिक्षण के लिये परमावश्यक है। खेल से बालक की निर्णय शक्ति का विकास होता है । इस प्रकार खेल की व्यवस्था बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। खेलों के लिए मैदान होना आवश्यक है। शारीरिक विकास की कल्पना खेलों के अभाव में पूरी नहीं होती ।
खेल का मैदान काफी खुला और बड़ा होना चाहिये, जहाँ बच्चे संगठित रूप से खेल-कूद सकें ।
खेल के मैदान में कहीं बरसाती पानी न भरा रहने देना चाहिए।
खेल के मैदानों की सतह को सावधानी के साथ समतल कराना चाहिए।
खेल द्वारा बौद्धिकं चतुराई, सामाजिकता, दूसरों से उचित नैतिक व्यवहार करना और साथ ही दूसरों को भी नैतिकता सिखाना स्वस्थ स्पर्धा, इन सारे गुणों का विकास होता है । खेल द्वारा खिलाड़ी कृत्ति का भी शिक्षकों के मार्गदर्शन में विकास होता है। सांधिक खेल खेलने से सांधिक वृत्ति का भी विकास होता है।
(2) विद्यालय में भौतिक सुविधाएँ–विद्यालय में उपलब्ध भौतिक सुविधाएँ भी पाठ्यचर्या को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। उदाहरणार्थ-विद्यालय में पीने का स्वच्छ पानी, शौचालय की व्यवस्था एवं पुष्प-पौधों से युक्त वातावरण में विद्यालयी स्वच्छता एवं पर्यावरणीय शिक्षा के पाठ्यक्रम को सरलता से सम्पन्न किया जा सकता है क्योंकि विद्यालय में इस पाठ्यक्रम को पूर्ण करने की एवं समझने की सुविधाएँ हैं। इसके विपरीत जिस विद्यालय में भौतिक संसाधनों के अभाव के कारण विद्यालयी स्वच्छता का अभाव होता है, उस विद्यालय में पर्यावरणीय पाठ्यक्रम एवं विद्यालयी स्वच्छता की पाठ्यचर्या को पूर्ण नहीं किया जा सकता।
(3) विद्यालय का आर्थिक स्तर—विद्यालय की भौतिक स्थिति का सम्बन्ध वर्तमान समय में विद्यालय के आर्थिक स्तर से है। दूसरे शब्दों में जिन विद्यालयों के पास धन के स्रोत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होंगे, उन विद्यालयों की भौतिक स्थिति सुदृढ़ एवं सुविधा सम्पन्न होगी। इसके साथ-साथ उन विद्यालयों की पाठ्यचर्या भी उपयुक्त होगी। इसके विपरीत जिन विद्यालयों में धन के स्रोत निम्न मात्रा में उपलब्ध होंगे उस विद्यालय की आर्थिक स्थिति कमजोर होगी तथा विद्यालय भौतिक सुविधाओं की दृष्टि से साधन विहीन होगा। इस प्रकार के विद्यालयों में पाठ्यचर्या का स्वरूप व्यापक नहीं होगा। इस प्रकार विद्यालय का आर्थिक स्तर पाठ्यचर्या को प्रभावित करता है।
(4) शिक्षण अधिगम सामग्री की उपलब्धता—जिस विद्यालय में शिक्षण अधिगम सामग्री उपलब्ध होती है उस विद्यालय की पाठ्यचर्या भी व्यापक रूप से निर्धारित होती है। उदाहरणार्थ–एक विद्यालय में शिक्षण अधिमम सामग्री के रूप में टेपरिकॉर्डर, दूरदर्शन एवं चार्ट आदि उपलब्ध हों तो पाठ्यचर्या में इसके प्रयोग की पूर्ण सम्भावना होगी। इस प्रकार पाठ्यचर्या का स्वरूप भी व्यापक होगा। इसके विपरीत जिन विद्यालयों में शिक्षण अधिगम सामग्री न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध होती है उन विद्यालयों में उनके प्रयोग की सम्भावना भी न्यून होती है। इसके परिणामस्वरूप उन विद्यालयों की पाठ्यचर्या भी व्यापक नहीं होती। अतः शिक्षण अधिगम की उपलब्धता पाठ्यचर्या को प्रभावित करती है।
(5) विद्यालय में शैक्षिक वातावरण का निर्माण–विद्यालय में शैक्षिक वातावरण का निर्माण भी पाठ्यचर्या को प्रभावित करता है। जिन विद्यालयों में प्रवेश करते ही ऐसा अनुभव होता है कि ये भवन वास्तविक रूप से विद्या मन्दिर है; जैसे—दीवारों पर शिक्षाशास्त्रियों के चित्र, आदर्श वाक्य, वर्णमाला का अंकन, गिनती एवं पहाड़ों का अंकन आदि। इसके अतिरिक्त विद्यालय में शान्त एवं उद्यान युक्त वातावरण का उपलब्ध होना भी शैक्षिक वातावरण का निर्माण करता है। इस प्रकार के विद्यालय की पाठ्यचर्या व्यापक रूप में होती है। इसके विपरीत जिन विद्यालयों में शैक्षिक वातावरण का सृजन सम्भव नहीं होता, उन विद्यालयों के लिये निर्धारित पाठ्यचर्या व्यापक रूप में नहीं होती।
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