लिंग के प्रकार बताइये। उनमें पक्षपात के कारणों और रूढ़िवादिता की भूमिका का वर्णन कीजिए एवं सशक्तिकरण हेतु सुझाव दीजिए |
लिंग के प्रकार बताइये। उनमें पक्षपात के कारणों और रूढ़िवादिता की भूमिका का वर्णन कीजिए एवं सशक्तिकरण हेतु सुझाव दीजिए |
अथवा
लिंग भेद के कारण क्या है ?
उत्तर- लिंग के प्रकार-लिंग के निम्नलिखित प्रकार होते हैं-
( 1 ) पुरुष लिंग-पुरुष जाति का बोध उनकी शारीरिक बनावट, रहन-सहन, विचार तथा भावों से प्रकट होता है। पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा कठोर तथा आध्यात्मिक विचार के होते हैं। पुरुषों के रहन-सहन एवं कार्य भी अलग होते हैं। समय के साथ-साथ पुरुषों में दाढ़ी, मूँछ आदि आने लगती हैं तथा अनेक शारीरिक परिवर्तनों के कारण पुरुष जाति का बोध होता है।
( 2 ) स्त्री लिंग – लिंग का दूसरा प्रकार स्त्रीलिंग होता है। स्त्रियों का स्वभाव, विचार पुरुषों की अपेक्षा कोमल होता है। किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते इनमें अनेक शारीरिक परिवर्तन परिलक्षित होने लगते हैं जिससे स्त्री जाति का बोध होता है। स्त्रियों की आवाज मधुर तथा सुरीली होती है। इनका रहन-सहन तथा वेशभूषा भी अलग होता है। स्त्रियाँ स्वभाव से ही लज्जाशील तथा दयालु होती हैं। स्त्रियाँ भौतिकवादी विचारों को अधिक मान्यता देती हैं।
( 3 ) उभय लिंग– लिंग का तीसरा प्रकार उभय लिंग है । इसके अन्तर्गत ऐसे लोग आते हैं जो शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होते हैं लेकिन उनके विचार, व्यवहार, भाव, रहन-सहन तथा प्रतिक्रियाएँ विपरीत होती हैं। जैसे—शारीरिक रूप से कोई बालक है लेकिन उनके विचार, व्यवहार, आदत प्रतिक्रियाएँ रहन-सहन एवं रुचि विपरीत लिंग की तरह होते हैं वे उभयलिंगी कहे जाते हैं। अधिकांशतः ऐसे लोगों का विचार अन्तर्लिंगी होता है । जर्मनी भाषा में इन्हें यूरेनियन (Uranian) कहा जाता है अर्थात् “एक पुरुष के शरीर में एक महिला मानस।”
( 4 ) नपुसंक लिंग–इसके अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति आते हैं जो न तो पूर्ण रूप से पुरुष होते हैं और न पूर्ण रूप स्त्री होते हैं। इनका एक अपना अलग समाज होता है। इनमें सन्तानोत्पत्ति की क्षमता नहीं होती हैं। इन्हें द्विआधारी लिंग भी कहते हैं। इनके व्यवहार, प्रतिक्रियाएँ तथा सामाजिक कार्य अपने समाज के अनुसार होते हैं। वर्तमान समय में इन्हें भी सामान्य लोगों की तरह सभी अधिकार प्रदान किए जा रहे हैं।
पक्षपात (लैंगिक पूर्वाग्रह) के कारण–पक्षपात (लैंगिक पूर्वाग्रह) के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं—
(1) प्राचीन मान्यताएँ—अथर्ववेद में यह कहा गया है कि स्त्री को बाल्यावस्था में पिता के, युवावस्था में पति के तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए। मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों को हमेशा पति व पुत्र के अधीन ही रखा गया है। यहाँ तक किसी रक्त सम्बन्ध वाले पुरुषों के बिना उन्हें अपनी धार्मिक यात्रा हज करने का अधिकार भी नहीं है। इस तरह की प्राचीन मान्यताओं के कारण स्त्री को पुरुष से कमतर समझा जाता है। स्त्री को पुरुष के सहारे की आवश्यकता भी इन्हीं मान्यताओं के कारण पड़ती है। भारत में माता-पिता का अन्तिम संस्कार करने के लिए भी पुत्र की आवश्यकता पड़ती है। इन सब मान्यताओं के कारण मातापुत्र की चाह करते हैं।
( 2 ) पुरुष प्रधान समाज— भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। जहाँ पर पुत्रों को पिता का उत्तराधिकारी माना जाता है। बच्चों के नाम के आगे पिता का नाम ही लगाया जाता है। वंश परम्परा बढ़ाने के लिए मातापिता, दादा-दादी आदि को पुत्र की आवश्यकता होती है। लड़की को शादी के बाद पति के घर पर ही जा कर रहना पड़ता है। उसके नाम के आगे उसके पति का ही नाम लगता है। यहाँ तक कि अन्तिम संस्कार, पिंड, मोक्ष आदि के लिए भी पुत्र की आवश्यकता होती है। पिता की सम्पत्ति भी पुत्रों को मिलती है। वैसे तो संविधान के अनुसार पुत्रियों को भी सम्पत्ति का अधिकार मिल गया है फिर भी देखा गया है परिवारजन पुत्री को सम्पत्ति देना नहीं चाहते हैं और कई जगह पर पुत्रियाँ अपने भाइयों से सम्बन्ध बिगड़ने की वजह से खुद सम्पत्ति नहीं लेना चाहती हैं। वैसे तो कई समुदायों में मातृ सत्तात्मक व्यवस्था भी है पर वह समुदाय मुख्य धारा में नहीं जुड़े हुए हैं। इन सब कारणों से बालिकाओं का महत्त्व बालकों से कम आँका जाता है और लिंगीय भेदभाव में वृद्धि होती है।
(3) संकीर्ण विचारधारा—लोगों की संकीर्ण विचारधारा लड़के तथा लड़की में भेद का एक कारण है। लोगों का मानना है कि लड़के माँ-बाप की वृद्धावस्था का सहारा बनेंगे, वंश को आगे बढ़ाएँगे, उन्हें पढ़ाने-लिखाने से घर की उन्नति होगी जबकि लड़की को पढ़ाने-लिखाने में धन एवं समय की बर्बादी होगी। यद्यपि वर्तमान में बालिकाएँ लोगों की संकीर्ण सोच को तोड़ने का कार्य कर रही है। इसके बावजूद बालिकाओं का कार्य क्षेत्र चौका-बर्तन तक ही सीमित माना जाता हैं। अतः बालिकाओं की भागीदारी को स्वीकार न किए जाने के कारण बालकों की अपेक्षा बालिकाओं के महत्त्व को कम माना जाता है जिससे लैंगिक विभेद में वृद्धि होती है।
( 4 ) सांस्कृतिक कुप्रथाएँ–प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति पुरुष-प्रधान रही है। भारतीय संस्कृति में धार्मिक एवं यज्ञीय कार्यों में भी पुरुष की उपस्थिति अपरिहार्य है एवं कुछ कार्य तो स्त्रियों के लिए पूर्णतया निषेध हैं। अतः ऐसी स्थिति में पुरुष प्रधान हो जाता है तथा स्त्री का स्थान गौण हो जाता है। यह स्थिति किसी एक वर्ग अथवा समुदाय की महिलाओं एवं पुरुषों की न होकर सभी स्त्रियों की बनकर लैंगिक विभेद की समस्या का रूप धारण कर लेती है।
(5) मनोवैज्ञानिक कारक – मनोवैज्ञानिक कारकों की भी लैंगिक विभेद में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्रारम्भ से ही स्त्रियों के मन मस्तिष्क में यह बात बैठ जाती है कि पुरुष, महिलाओं से अधिक श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें पुरुषों की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए। पुरुष के बिना स्त्रियों का कोई अस्तित्व नहीं है तथा उनसे ही उनकी पहचान तथा सुरक्षा है। इस प्रकार महिलाओं में यह मनोवैज्ञानिक धारणा बैठ जाती है कि पुरुष उनसे श्रेष्ठ है तथा वे स्वयं महिला होकर भी बालिकाओं के जन्म एवं उनके सर्वांगीण विकास का विरोध करती हैं।
( 6 ) दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली— भारतीय शिक्षा प्रणाली अत्यन्त दोषपूर्ण है जिसके कारण व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन से शिक्षा का सम्बन्ध नहीं हो पाता। विशेष रूप से बालिकाओं के सम्बन्ध में शिक्षा अव्यावहारिक होने से शिक्षा पर किए गए व्यय एवं समय की भरपाई नहीं हो पाती। अत: बालिकाओं की शिक्षा ही नहीं, अपितु इस लिंग के प्रति भी लोगों में बुरी भावना व्याप्त हो जाती है। वर्तमान शिक्षा के अन्तर्गत विद्यालयों में प्रचलित पाठ्यचर्या नितान्त सैद्धान्तिक एवं दीवपूर्ण है साथ ही इसमें (पाठ्यचर्या मैं) बालिकाओं की अभिरुचियों का भी ध्यान नहीं रखा जाता है जिससे उनमें शिक्षा (पढ़ाई) के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है।
( 7 ) सरकारी उदासीनता सरकार लिंग में भेदभाव करने वाले लोगों के साथ सख्त कार्यवाही नहीं करती है जिसके कारण चिकित्सालयों एवं निजी अस्पतालों में भ्रूण की जाँच एवं कन्या भ्रूण हत्या का कार्य अबाध गति से चल रहा है। सामान्यतया सार्वजनिक स्थलों एवं सरकारी दफ्तरों में भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में हीन दृष्टि से देखा जाता है एवं उनमें व्याप्त असुरक्षा के भाव को समाप्त करने की अपेक्षा उसमें वृद्धि करने का कार्य किया जाता है जिससे लैंगिक भेदभाव में वृद्धि होती है। इस प्रकार लैंगिक विभेद की वृद्धि में उदासीनता भी एक कारक है।
( 8 ) जागरूकता का अभाव-शिक्षा की कमी के कारण अभी भी ग्रामीण इलाकों में जागरूकता का अभाव है और ऐसा माना जाता है कि स्त्रियों का क्षेत्र घर व बच्चों की देखभाल तक ही है इसीलिए उन्हें ज्यादा शिक्षा दिलाने की आवश्यकता नहीं हैं। लड़कियों को घर पर ही रहना है, अतः उन्हें अतिरिक्त पोषण की आवश्यकता भी नहीं है इसलिए बालक व बालिकाओं में शिक्षण तथा पोषण आदि स्तरों पर भी भेदभाव किया जाता है। अशिक्षित व्यक्ति, परिवारों एवं समाजों में चले आ रहे अन्धविश्वासों एवं मिथकों पर ही लोग कायम रहते हैं एवं बगैर विचार किए उसका पालन करते रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप ये बालक का महत्त्व बालिका की अपेक्षा सर्वोपरि मानते हैं तथा सभी सुविधाओं एवं वस्तुओं पर प्रथम अधिकार बालकों को ही देते हैं। अतः लैंगिक विभेद में अशिक्षा की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
(9) सामाजिक कुप्रथाएँ–सूचना एवं तकनीकी के इस युग में भी भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की कुप्रथाएँ एवं अन्धविश्वास व्याप्त हैं जो इस प्रकार हैं-
(i) बाल विवाह-बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं के चलते बालिकाओं को कम उम्र में शादी करके विदा कर दिया जाता था और उनसे पढ़ने व आगे बढ़ने के अधिकार छीन लिए जाते थे। बाल विवाह तो अब संविधान द्वारा समाप्त हो गए हैं फिर भी अधिकतर माता-पिता का जोर लड़की का जल्दी से जल्दी विवाह करने पर होता है। उसके लिए पढ़ने-लिखने, आगे बढ़ने के अवसर सीमित हो जाते हैं। फिर उसके जीवन का ध्येय घर तथा बच्चों की देखभाल तक सीमित होकर रह जाता है।
(ii) दहेज प्रथा— प्राचीन समय में माता-पिता जब बेटी का विवाह करते थे तो यह सोच कर कि वह नए घर में संकोच करेगी, उसकी जरूरत का सामान उसके साथ भेजते थे। यह माता-पिता का सन्तान के प्रति वात्सल्य का प्रदर्शन था। धीरे-धीरे दिखावे ने जोर पकड़ा और यह प्रथा अपनी सम्पदा का प्रदर्शन करने के लिए काम आने लगी। लड़के वाले लालच में आकर दहेज की माँगें रखने लगे। हद तो तब हुई जब लालच पूरा न होने पर वधू के साथ मारपीट, यहाँ तक उसकी हत्या भी होने लगी। संविधान ने इस पर रोक लगाई तो यह कृत्य चोरी छिपे होने लगे हैं। इस प्रथा के कारण लड़की के माता-पिता लड़की के पैदा होने के साथ ही उसके लिए दहेज जोड़ने लगे। इसीलिए वह लड़की को लिखाने-पढ़ाने पर खर्च करने के लिए तैयार नहीं होते क्योंकि उन्हें लगता है इस पैसे को लड़की के विवाह के लिए बचा कर रखना चाहिए। लड़कियों को खर्चे वाले व्यावसायिक पाठ्यक्रम की जगह कम खर्चे वाले कोर्स पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसी तरह मेधावी छात्राओं के लिए मौकों की कमी हो जाती है और वह समान प्रतिभा वाले छात्रों से पीछे रह जाती हैं। यहाँ तक कि लड़की को कोचिंग आदि के लिए भेजना भी मातापिता को पैसे की बर्बादी लगता है। अगर माता-पिता के सर पर दहेज की तलवार न हो तो वह लड़की को अच्छे से पढ़ा सकते हैं। इस कुप्रथा के चलते लड़कियाँ माता-पिता को बोझ लगने लगती हैं। लिंग भेद का यह बहुत बड़ा कारण है।
( 10 ) सुरक्षा के कारण–प्रकृति ने स्त्री को मानसिक तौर पर बहुत मजबूत बनाया है फिर भी शारीरिक तौर पर वह पुरुषों से कमजोर हैं इसीलिए यह समझा जाता है कि स्त्री को हमेशा पुरुष के सहारे की आवश्यकता होती है। वह अपनी सुरक्षा अपने आप नहीं कर सकती। पन्द्रह साल की बहन के साथ दस साल का भाई उसकी सुरक्षा के लिए भेजकर माता-पिता निश्चिन्त हो जाते हैं। प्राय: लड़कियों को पढ़ने या नौकरी के लिए अलग शहर में भेजने में माता-पिता घबराते हैं। दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड जैसी घटनाओं से यह डर दिन ब दिन बढ़ता चला जा रहा है। इसके चलते
महिलाओं को ऐसे कोर्स या नौकरी जिसमें उन्हें दूर जाना पड़े या रात को जाना पड़े नहीं भेजा जाता। इससे उनकी प्रगति में बाधा पड़ती है।
( 11 ) गरीबी— गरीबी भारत का बहुत बड़ा अभिशाप है और बालकों को बालिकाओं से अधिक प्राथमिकता इसलिए दी जाती हैं क्योंकि वह बड़े होकर आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बाँटने का कार्य करेंगे दूसरी तरफ लड़की के बड़े होने पर दहेज के रूप में बड़ा खर्च करना पड़ेगा, आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता को इन परिस्थितियों में लड़की बोझ व लड़का बुढ़ापे का सहारा लगता है। यह समस्या एक क्षेत्र की नहीं है बल्कि भारत में सभी जगह व्याप्त है क्योंकि एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है। अतः गरीबी कम होने पर कुप्रथाओं पर रोक लगाई जा सकती है।
जेण्डर की भूमिका तथा रूढ़ियुक्तियाँ–जेण्डर भूमिका रूढ़ियुक्तियों के अनेक तत्त्व होते हैं। बच्चे इन सभी तत्त्वों को एक साथ नहीं सीख पाते। यद्यपि बच्चों में वैयक्तिक भेद पाए जाते हैं, यद्यपि उनमें सामान्य प्रतिमान लगभग एक समान रहता है। यह प्रतिमान बच्चों के संज्ञानात्मक विकास, अवसरों व सामाजिक दबावों पर निर्भर करता है। जेण्डर रूढ़ियुक्तियाँ व धारणाएँ हैं जो हम पुरुषों एवं महिलाओं के बारे में अपने मन में रखते हैं। प्रत्येक समाज, पुरुषों/महिलाओं की भूमिकाओं को परिभाषित करता है और इन भूमिकाओं में उन्हें समाजीकृत करता है, ताकि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष इन मानदण्डों को ‘सामान्य’ ‘व ‘प्राकृतिक’ मानकर इन्हें स्वीकार कर ले; जैसे— लड़कियों को सहनशील, गृहिणी को नम्र, आज्ञाकारी एवं सौम्य होना चाहिए, जबकि लड़कों को मजबूत, परिवार का संरक्षक, चुस्त तथा आक्रामक होना चाहिए।
लड़कियों तथा महिलाओं से अपेक्षित है कि—
(1) वे सहनशील, सौम्य, आदर करने वाली, दूसरों की देखभाल करने वाली और आज्ञाकारी हो ।
(2) वे पुरुषों को खुश करने वाली तथा उनकी आज्ञाकारी हों।
(3) वे घरेलू कामकाज तथा बच्चों की जिम्मेदारी उठाने वाली हों।
(4) उनका रवैया संतुलित हो ।
(5) उनका पहनावा एवं बोलचाल का ढंग मर्यादापूर्वक हो ।
लड़कों और पुरुषों से अपेक्षित है कि—
(1) वे परिवार में महत्त्वपूर्ण फैसले लें।
(2) वे मजबूत हों और अपनी संवेदनाओं को प्रकट न करें।
(3) वे परिवार के संरक्षक हों।
(4) वे सामान्य कार्यों तथा सम्बन्धों में पहल करें।
जेण्डर भूमिका रूढ़ियुक्तियों का लड़के तथा लड़कियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है जिनका वर्णन इस प्रकार है–
(1) बहुत से समाज महिलाओं या लड़कियों की तुलना में पुरुषों एवं लड़कों को ज्यादा महत्त्व देते हैं।
(2) हमारे देश में लड़कियों की छोटी आयु में शादी हो जाने से वे जल्दी माँ बन जाती हैं।
(3) लड़कियों के स्वास्थ्य का लड़कों की तुलना में कम ध्यान दिया जाता है।
(4) लड़कियों के लिए पढ़ाई करना अनिवार्य नहीं माना जाता है, जबकि लड़कों को शिक्षा की प्राथमिकता दी जाती है।
(5) लड़कियों से भविष्य में पत्नी या माता की भूमिका निभाने के लिए पहले से ही घरेलू काम-काज में हाथ बँटाने की उम्मीद की जाती है।
(6) लड़कियों या महिलाओं को जमीन-जायदाद विरासत में नहीं मिलतीं या वे ऐसी जायदाद पर स्वाभाविक हक नहीं जमा सकती और न ही अपनी मर्जी से तलाक ले सकती है या कुछ संस्कृतियों में तलाक के बाद बच्चों की सुरक्षा का अधिकार उन्हें अपनी मर्जी से नहीं मिलता है।
(7) निर्णायक मण्डलों में महिलाओं को कम महत्त्व दिया जाता है।
(8) पुरुषों एवं लड़कों के साथ भी कई तरह का भेदभाव किया जाता है।
सशक्तीकरण हेतु सुझाव–सशक्तीकरण हेतु महत्त्वपूर्ण सुझाव निम्नलिखित हैं—
(1) स्व: पहचान तथा आत्म छवि को उच्च स्तर तक बढ़ाना।
(2) उपलब्ध विकल्पों को समझने की योग्यता को विकसित करना ।
(3) लैंगिक संरचना को गंभीरता से समझना।
(4) आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करना, लैंगिक पदानुक्रम के केन्द्र लड़के व लड़की दोनों के संबंधों को समझने की शक्ति को विकसित करना।
(5) संसाधनों तक पहुँच विकसित करना, प्रमुखतया ज्ञान एवं सूचनाओं की रूपरेखा को विस्तारित करना।
(6) महिलाओं द्वारा किये गये शोधकार्यों को पाठ्यपुस्तकों, प्रशिक्षण एवं पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना ।
(7) प्रशिक्षित विशेषज्ञों द्वारा किशोरावस्था कामुकता पर किये गये कार्यों को सम्मिलित करना ।
(8) घरेलू सामानों को पुनः निर्मित करने की सामाजिक अवधारणा को विकसित करना।
(9) पाठ्यक्रम एवं सजगता के संबंध में भाषा को देखा जा सकता है।
(10) उस माध्यम को समझना जो भाषा को सहज बनाता है।
(11) लैंगिकता की भाषाधारित निश्चित परिभाषा देना।
(12) विज्ञान शिक्षा में लैंगिक आयामों को उजागर करना।
(13) लड़का एवं लड़की के होने पर यह कहा जा सकता है कि भ्रूण निर्धारित पति के द्वारा होना चाहिये।
(14) समस्याएँ एवं क्रियाकलाप साथ ही साथ विषय की स्त्रियों के जीवन एवं उनके अनुभवों को प्रतिबिम्बित करती है। साथ ही साथ महिला वैज्ञानिकों के योगदान की भूमिका को भी इंगित करते हैं।
(15) ऐसे उपायों को खोजना, ऐसी तकनीकी को खोजना जो महिला जीवन को और बेहतर बना सके।
(16) प्रयोगशाला कार्य को भी वैज्ञानिक आयामों के अन्तर्गत इंगित करना जैसे रसोईघर में रसायन विज्ञान का प्रयोग।
(17) तर्क सम्बन्धी ज्ञान की भावना का विकास करना।
(18) गणित विषय के अध्ययन पर ध्यान केन्द्रित करना ।
(19) लैंगिक संवेदनशील सामग्री हेतु बैंकों को खोलने का विचार |
(20) शोध को बढ़ावा देना जिससे कि लिंग एवं शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में सम्बन्ध स्थापित हो सके।
(21) शिक्षक प्रशिक्षण कार्य एवं चिंतनशील तथा शोध पर आधारित होना चाहिए।
( 22 ) लिंग के सम्बन्ध में विषय का मूल्यांकन होना चाहिये।
(23) यह मौलिक समानता के परिणाम को लक्ष्य मानती है ना कि औपचारिक समानता की ।
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