पितृवंशीय (वंशानुक्रम) से आप क्या समझते हैं ? पुरुषोचित एवं स्त्रियोचित में क्या अन्तर है ? विस्तारपूर्वक लिखिए।
पितृवंशीय (वंशानुक्रम) से आप क्या समझते हैं ? पुरुषोचित एवं स्त्रियोचित में क्या अन्तर है ? विस्तारपूर्वक लिखिए।
अथवा
पितृसत्तात्मक परिवार पर टिप्पणी लिखिए।
अथवा
पितृसत्तात्मक किसे कहते हैं ?
उत्तर— पितृसत्ता का अर्थ एवं परिभाषाएँ पितृसत्ता का अर्थ-पितृसत्ता एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें परिवार का सबसे बड़ा पुरुष मुखिया के रूप में होता है तथा परिवार की स्त्रियों एवं बालकों पर अपना वर्चस्व (अधिकार) रखता है। पितृसत्ता सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में पुरुष के वर्चस्व को प्रकट करता है। सामान्य शब्दों में पिता के द्वारा सत्ता को चलाना पितृसत्ता है। आमतौर पर पितृसत्ता को किसी भी रूप में अथवा किसी भी भाषा में पुरुष पूर्वाग्रह (महिलाओं के विरुद्ध) ‘पुरुष वर्चस्व’ या ‘पुरुष शक्ति’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामाजिक संरचना के रूप में स्त्रियों के ऊपर पुरुष के शारीरिक, सामाजिक एवं आर्थिक शक्ति (वर्चस्व) के रूप में समझा जा सकता है। अर्थात् पितृसत्ता से अभिप्राय परिवार के सबसे बड़े पुरुष सदस्य के शासन से भी लगाया जा सकता है। इसमें पिता बड़ा भाई या परिवार का कोई भी पुरुष सदस्य रूप में हो सकता है।
जिल्लाह एड्रजेस्टीन के अनुसार, “पितृसत्ता एक राजनीतिक संरचना है, जो पुरुष के पक्ष में है।”
गुर्डा लर्नर के अनुसार, “परिवार में स्त्रियों एवं बालिकाओं पर पुरुषों के वर्चस्व की अभिव्यक्ति एवं संस्थागतकरण तथा सामान्य रूप से यह स्त्रियों पर पुरुषों के सामाजिक अधिकार का विस्तार है।” इसका अभिप्राय है कि पुरुषों का समाज के सभी महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों पर नियन्त्रण रहता है तथा स्त्रियाँ ऐसी सत्ता तक पहुँचने से वंचित रहती है। वह आगे लिखती है कि इसका यह अर्थ नहीं कि स्त्रियाँ पूरी तरह शक्तिहीन है या पूरी तरह अधिकारों, प्रभावों व संसाधनों से वंचित है।
मेगी फम्म के अनुसार, “पितृसत्ता एक पुरुष आधारित तन्त्र है जो स्त्री को सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक संस्थाओं के अधीनस्थ (दबा) करके रखते हैं। “
उमा चक्रवर्ती के अनुसार, “पितृसत्तात्मक व्यवस्था से स्त्रियों के जीवन के जिन पहलुओं पर पुरुषों का नियंत्रण रहता है उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उनकी प्रजनन क्षमता होती है । “
सिल्विया वाल्वी के अनुसार, “पितृसत्ता सामाजिक संरचना एवं प्रथाओं की एक व्यवस्था है जिसमें पुरुषों का स्त्रियों पर वर्चस्व रहता है, वे उनका शोषण एवं उत्पीड़न करते हैं । “
पितृसत्ता का उदय– पितृसत्ता के ऐतिहासिक उदय को लेकर नारीवादियों में अनेक मत प्रचलित हैं।
एन्डरू विन्सेन्ट ने पितृसत्ता के उदय के निम्नलिखित कारण बताए हैं—
(1) पहला कारण इतिहास लेखन में ‘पुरुषों’ का वर्चस्व रहा है एवं इस कारणवश इतिहास लेखन में स्त्रियों की पहचान की अवहेलना स्वाभाविक ही थी । इतिहास में महिलाओं को एवं भारत के सन्दर्भ में अधिकतर धार्मिक संस्थाओं के द्वारा इन्हें दबा कर रखा गया है।
(2) दूसरा कारण, इतिहास लेखन में इतिहास स्वयं भी पितृसत्ता ढाँचे का एक हिस्सा मात्र ही है एवं इसलिए सम्भवतः पितृसत्ता के उदय एवं विकास पर नारीवादियों द्वारा प्रश्न चिन्ह लगाना सही प्रतीत होता है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की विशेषताएँ—पितृसत्तात्मक व्यवस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
(1) पितृसत्ता एक सामाजिक प्रणाली है।
(2) यह एक पारिवारिक प्रणाली है जिसमें पुरुष की भूमिकाएँ स्त्रियों की भूमिकाओं से ऊपर होती है।
(3) पितृसत्तात्मक व्यवस्था में समाज, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था धर्म इत्यादि में पुरुष का ही वर्चस्व होता है।
(4) पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरुष समस्त गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु होता है अर्थात् परिवार की समस्त क्रियाएँ उसी के चारों ओर घूमती हैं।
(5) पितृसत्तात्मक व्यवस्था में समस्त महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय पुरुषों के द्वारा ही लिए जाते हैं।
(6) इस प्रकार की व्यवस्था में आर्थिक मुद्दों पर पुरुषों का एकाधिकार होता है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दोष — पितृसत्तात्मक व्यवस्था के निम्नलिखित दोष हैं..—
(1) पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों की पूर्णत: उपेक्षा होती है जिससे उनके विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।
(2) ऐसी व्यवस्था में पुरुष अपनी शक्ति का दुरुपयोग भी करता है।
(3) ऐसी व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष स्थान नहीं प्रदान किया जाता है।
(4) यह व्यवस्था स्त्रियों की भूमिका की पूर्ण अवहेलना करती है।
(5) इस प्रकार की व्यवस्था में स्त्रियाँ शोषण एवं उत्पीड़न का शिकार बनती है।
उपर्युक्त तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर ये कहा जा सकता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था आधुनिक समय में प्रासंगिक नहीं है क्योंकि आज स्त्रियाँ प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के साथ कार्य कर रही हैं तथा देश एवं समाज के विकास में अपना अहम् योगदान दे रही हैं। हमारा संविधान भी प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार प्रदान करता है ऐसे में किसी एक को दबा कर रखने का कोई औचित्य नहीं बनता है।
पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व — लैंगिक पहचान का तात्पर्य है अपने आप को किसी विशेष लिंग के लक्षणों के आधार पर पहचानना। जिन अर्थों एवं सन्दर्भों के कारण कोई व्यक्ति अपने आप एक विशेष लिंग का व्यवहार अपनाता है, वही लैंगिक पहचान है। जैसे—कोई पुरुषत्व को अपनी पहचान मानता है। वह अपने आप को ज्यादा स्वायत्त, प्रतिस्पर्धी एवं हावी होने की प्रकृति वाला मानने लगता है।
जन्म के समय से ही अपने लिंग को स्व-अर्थ (Self-meaning) प्रदान करना सामाजिक परिस्थितियों (जिसके अन्तर्गत अपने मातापिता, भाई-बहनों द्वारा किया जाने वाला व्यवहार एवं प्रतीकों का प्रदर्शन) पर निर्भर करता है। एक स्त्री जो अपने आप को स्त्री-वर्ग से सम्बन्धित कर सकती है पर वह अपने आप को पुरुष वाले लक्षणों से भी युक्त मान सकती है एवं उसी के अनुसार व्यवहार कर सकती है। अर्थात् वह अपने आप को लैंगिक रूढ़िवादिता से अलग करके पुरुषत्व के लक्षणों को अपना सकती है, जैसे—ज्यादा बेबाक होना, स्वतन्त्र मानना, बालों को लड़कों के जैसे रखना, चलने का ढंग, दूसरों पर हावी होना, निडरता का परिचय देना, ज्यादा तर्क करना, शृंगार न करना आदि। कुछ व्यक्तियों में स्त्रीत्व के लक्षण ज्यादा मात्रा में हो सकते हैं और कुछ व्यक्तियों में पुरुषत्व के लक्षण ज्यादा मात्रा में हो सकते हैं और कुछ लोगों में स्त्रीत्व और पुरुषत्व दोनों का मिश्रण पाया जा सकता है। पुरुषों में जिन लक्षणों को सामान्यत: लैंगिक लक्षण के रूप में जाना जाता है, उसका योग पुरुषत्व कहलाता है।
शक्ति, बुद्धि, सत्ता, धन बाहारूप व्यत्व, कामुकता, इंद्रियानुभाविक वर्णित लक्षण पुरुष का व्यक्ति बताने के लिए प्रयोग किया जाता है।
कुछ सामान्य बाते—
(1) पुरुषत्व और स्त्रीत्व, सामाजिक प्रत्यम है न कि जैविक प्रत्यय ।
(2) पुरुषत्व और स्त्रीत्व का निर्धारण समाज के सदस्यों द्वारा किया जाता है।
(3) पुरुषत्व और स्त्रीत्व, लिंग पहचान से सम्बन्धित प्रत्यय है।
(4) लैंगिक पहचान लैंगिक भूमिका से भिन्न है।
(5) लैंगिक पहचान, लैंगिक रूढ़िवादिता से भी भिन्न है।
(6) लैंगिक पहचान, लैंगिक अभिवृत्ति से भी भिन्न है।
(7) लैंगिक पहचान को प्रभावित करने में लैंगिक भूमिका, लैंगिक रूढ़िवादिता और लैंगिक अभिवृत्ति की मुख्य भूमिका हो सकती है फिर भी लैंगिक पहचान इन तीनों प्रत्ययों से भिन्न प्रत्यय है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्त्रीत्व और पुरुषत्व एक व्यक्तिगत अर्थीकरण है जो एक व्यक्ति अपने आप को प्रदान करता है।
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