विद्यालय का सामाजिक संगठन के रूप में क्या अर्थ है ?

विद्यालय का सामाजिक संगठन के रूप में क्या अर्थ है ?

उत्तर- प्रसिद्ध समाजशास्त्री ए. एट. जोइनी विद्यालय को सामाजिक संगठन के रूप में मानते हैं। उसके अनुसार सामाजिक संगठन की तीन मूलभूत विशेषतायें होती है—
(i) श्रम, शक्ति एवं संचार के उत्तरदायित्वों का सुनियोजित ढंग से विभाजन होना।
(ii) एक या अधिक शक्ति केन्द्र उस संगठन के निरन्तर प्रयत्नों एवं कार्यों को नियन्त्रित करते रहते हैं।
(iii) कार्यकर्ताओं में आवश्यकतानुसार फेर-बदल या कमीबेशी की जा सकती हैं।
एट जाइनी के अनुसार सामाजिक संगठन में हम दो बातें अवश्य ही पाते हैं—
(अ) किसी-न-किसी प्रकार की शक्ति
(ब) अनुपालन करने वाले का व्यवहार
शक्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं—
(i)भय पर आधारित शक्ति
(ii) पारिश्रमिक स्तर आधारित शक्ति
(iii) आदर्श व्यवहार के ढंगों पर आधारित शक्ति
अनुपालन करने वालों का व्यवहार भी तीन प्रकार का हो सकता है—
(अ) अलगाव का व्यवहार
(ब) नपा-तुला व्यवहार
(स) नैतिक व्यवहार
आर. ड्यूबिन ने सामाजिक संगठन के चार आवश्यक पक्ष माने  है—
(1) व्यक्तिगत अन्तर्मन एवं संगठनात्मक बन्धनों से संघर्ष की स्थिति—जब विद्यालय का प्रधानाध्यापक सभी शिक्षकों से यह अपेक्षा करता है कि सभी शिक्षक विद्यालय समय के बाद एक घण्टा ठहरकर गृह कार्य की जाँच करे और अध्यापकों में से कोई का अन्तर्मन इसके लिए असहमत होता है और विद्यालय की घण्टी के लगते ही घर जाने के इच्छुक होते हैं, तब उक्त दो के मध्य संघर्ष की स्थिति आती है। –
( 2 ) परस्पर अन्तःक्रिया के दो प्रकार हो सकते हैं—एक संगठनात्मक जिसमें व्यवस्थापन, सामंजस्य, सहयोग, एकता के दर्शन होते हैं, दूसरे ‘विघटनात्मक’ में स्पर्धा संघर्ष, विरोध, असहयोग के दर्शन होते हैं।
( 3 ) नियमों की संरचना से अर्थ नियमों, आदेशों, परम्परा एवं स्वीकृतियों की उस व्यवस्था से है जिसके अनुसार सम्बन्धित सामाजिक संगठन के कार्यों का सम्पादन होता है। प्रत्येक विद्यालय के नियमों का भी ढाँचा होता है।
( 4 ) व्यवहार के प्रतिमान-संस्थात्मक बंधनों, नियमों और अन्तः क्रियाओं का प्रभाव अन्तः संगठन के सदस्यों के व्यवहार पर पड़ता है। व्यवहार प्रतिमानों का निर्धारण इनसे ही होता है। विद्यालय में पारिवारिक, सामुदायिक पृष्ठभूमि के कारण भी सदस्यों के व्यवहार प्रतिमानों में अन्तर हो जाता है।
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