लिंग निर्धारण में संस्कृति एवं संस्था की क्या भूमिका है ?
लिंग निर्धारण में संस्कृति एवं संस्था की क्या भूमिका है ?
उत्तर- लिंग निर्धारण में संस्कृति एवं संस्था की भूमिकालिंग निर्धारण में संस्कृति एवं संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लैंगिक निर्धारण सर्वप्रथम परिवार नामक संस्था से प्रारम्भ होता है। परिवार में ही रहकर बालक एवं बालिकाओं की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। परिवार ही संस्कृति का पोषण करता है जिससे विविध प्रकार के रीति-रिवाज, रहन-सहन, सदाचार एवं नैतिकता जैसे अनेक . सांस्कृतिक गुणों का विकास होता है। परिवार का कर्त्तव्य संस्कृति को परिवर्द्धित करना भी है। वर्तमान समय में लिंग निर्धारण की भूमिका सामाजिक एवं सांस्कृतिक तर्क पर बनाई गई है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय समाज में लैंगिक विभेद भी बहुत अधिक प्रचलित है। सामाजिक रीति-रिवाजों एवं संस्कृति के आधार पर विवाह नामक संस्था की व्यवस्था की गई। सरकार ने बालक-बालिकाओं के विवाह सम्बन्ध की आयु निर्धारित कर रखी है। अठारह वर्ष से पूर्व बालिकाओं का विवाह तथा इक्कीस वर्ष से पूर्व बालकों का विवाह वैध नहीं माना जाता है लेकिन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों व कई स्थानों पर दस वर्ष से कम बालिकाओं का विवाह धड़ल्ले से किया जा रहा है । इस प्रकार उनकी शिक्षा-दीक्षा स्वतः ही समाप्त हो जाती है।
अतः सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से सभी संस्थाओं को लिंग सन्तुलन को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए जिससे समाज में फैली हुई कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर किया जा सके। परिवार, समाज एवं समुदाय आदि संस्थाओं द्वारा स्त्री एवं पुरुषों को समान अवसर तथा समान अधिकार प्रदान करना चाहिए। प्राचीन रूढ़िवादी संस्कृति को मान्यता न देकर संस्कृति क्या है ? इसका क्या महत्त्व है ? इसे किस प्रकार व्यवहार में लाया जाए। किसी भी राष्ट्र का अस्तित्त्व उसकी संस्कृति पर ही अवलम्बित रहता है। संस्कृति के उदय से ही राष्ट्र का उदय होता है। जिस देश की संस्कृति उन्नत नहीं होती है वह देश समुन्नत नहीं हो सकता। इस प्रकार किसी देश, जाति, संस्था या समिति की आत्मा संस्कृति होती है। इससे मानव के उन सब संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने सामूहिक, सामाजिक व पारिवारिक जीवन के आदर्शों का निर्माण करता है। इस प्रकार लिंग निर्धारण में भी समाज समिति व अन्य संस्थाओं को अपनी संस्कृति का क्षेत्र व्यापक रखना चाहिए। लिंग निर्धारण में स्त्रियों की स्थिति को देखते हुए मालती सुब्रह्मण्यम ने कहा है कि– “लिंग पर आधारित विभेद तथा परिवार एवं समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति को तर्कसंगत ठहराने वाली आम धारणाओं को सामाजिक अनुकूल एवं जड़ीभूत सांस्कृतिक मूल्यों की उपज के तौर पर समझने का प्रयत्न करना चाहिए।” समानता तथा सांस्कृतिक न्याय की धारणाओं के सन्दर्भ में विवाह नामक संस्था के मूल्यांकन का प्रयास करना चाहिए। ये सभी विचार महिलाओं की समानता कानूनी सुधारों की माँग समान अवसरों तक पहुँच, सार्वजनिक कार्यों में ” शामिल होने के प्रति महिलाओं के अधिकार तथा मानवीय तौर पर अपने अन्दर निहित सम्भावनाओं को पूरा करने का अवसर आदि विभिन्न मुद्दों पर आधारित अभियान को आधार बनाना चाहिए।
अन्ततः कहा जा सकता है कि लिंग निर्धारण में संस्कृति एवं संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है परन्तु इसका निर्धारण समानता के आधार पर होना चाहिए। सभी संस्थाओं द्वारा महिला एवं पुरुष को समान अधिकार प्रदान करना चाहिए।
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