निर्योग्य के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का विवेचन कीजिए ।

निर्योग्य के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का विवेचन कीजिए ।

उत्तर— ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य–विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के इतिहास पर दृष्टि डालने पर समावेशी शिक्षा के उद्भव का कारण स्पष्ट हो जाएगा। हमारा प्राचीन इतिहास हमें यह बताता है कि किसी भी प्रकार की असमर्थता चाहे वह शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं शैक्षिक हो उसे किसी भी समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है। प्राचीन रोम में एक ऐसा स्थान था जहाँ मानसिक मन्दितों को लोग मजे के लिए अपने घर में रखते हैं। प्राचीन समय में इस प्रकार के बच्चों का पूर्णतया शोषण होता था। उनके साथ अमानवीय एवं क्रूरतापूर्ण व्यवहार होता था ।
अरस्तू और प्लेटो ने निर्योग्य बालकों का जीवित रहना समाज के लिए अभिशाप माना। इन बालकों को समाज से अलग रखा जाता था । समय के साथ-साथ समाज तथा पूरे देश में इन विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण परिवर्तित होने लगा। लोगों में इनके प्रति दया एवं सहानुभूति की भावनाएँ उत्पन्न हो गई। यह परिवर्तन का वह समय था जब बालकों की निर्योग्यता को एक अभिशाप न मानकर ईश्वर द्वारा मनुष्य के बुरे कृत्यों का परिणाम माना गया साथ ही इन समस्याओं से ग्रसित व्यक्तियों को समाज में अस्तित्वपूर्ण जीवन जीने, स्वस्थ एवं खुशहाल रहने का अवसर दिया जाने लगा।
विशिष्ट बालकों के सम्बन्ध में भारतीय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पश्चिम से ज्यादा भिन्न नहीं है। भारत में इन बालकों को अत्यधिक अपमान एवं कष्ट सहन करने पड़े, इन्हें किसी भी स्थान पर आने-जाने की भी अनुमति नहीं थी ।
प्राचीन सभ्यता पर यदि हम दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि या तो शारीरिक रूप से बाधित बालकों की हत्या कर दी जाती थी या समाज उन्हें कलंक की दृष्टि से देखता था अथवा उन्हें नगण्य समझा जाता था। 19वीं शताब्दी से पहले अपंग बालकों को स्वीकार न करने, दयालुता से देखभाल करने तथा शिक्षा के प्रति पृथक्कीकरण के संकेत मिलते हैं।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की आवश्यकताएँ पूर्ण करने हेतु पुनर्वास के कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए इस बात की अनुभूति हो गई थी कि इनकी स्वयं की आवश्यकताएँ हैं जो सामान्य से भिन्न हैं। इसी प्रकार 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी में पुनर्जागरण की लहर दौड़ गई तथा इन बालकों के लिए विभिन्न स्वास्थ्य एवं शिक्षा सम्बन्धी सेवाएँ प्रारम्भ की गईं।
18वीं शताब्दी के अन्त तक विभिन्न शिक्षाविदों द्वारा भी विशिष्ट शिक्षा को बढ़ावा दिया जाने लगा। इन्हें समाज में अन्य व्यक्तियों की तुलना में समान स्थान दिलाने में पुनर्जागरण ने भूमिका निभाई । प्रतिभाशाली बालक तो सदैव तीव्र बुद्धि के होते हैं लेकिन इन बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सुविधाएँ नहीं दी गई। 19वीं शताब्दी से अमेरिका तथा यूरोप में असमर्थता के इतिहास की जड़ें मूल रूप से पाई जाती हैं ।
प्रथम अवस्था में तो अपंगों के साथ दुर्व्यवहार किया गया तथा उन पर ध्यान नहीं दिया गया। उन्हें ईश्वर का अभिशाप तथा माता-पिता पर बोझ समझा गया। दूसरे चरण में बाधित बालकों को माता-पिता या अन्य का संरक्षण प्राप्त होता है, ये स्वयं कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए उनकी शिक्षा, प्रशिक्षण, आजीविका तथा पुनर्वासन के बारे में प्रयास नहीं किए गए। अगली अवस्था में, उनकी शिक्षा के लिए एक प्रयास किया गया लेकिन बाधित बालकों को अन्य बालकों से पूर्णतः भिन्न समझा गया।
अन्ततः धीरे-धीरे सामान्य लोगों की भाँति विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा का उदय होना प्रारम्भ हो गया था। समाज तथा अभिभावक भी अब इनकी आवश्यकताओं को बोझ न समझकर उनकी प्राप्ति हेतु तत्पर होने लगे।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को आवश्यक रूप से सहायता प्रदान करने की आवश्यकता होती है क्योंकि ये बालक किसी न किसी प्रकार से अयोग्य रहते हैं जिसके कारण विद्यालयी वातावरण में इन्हें शिक्षा देना सम्भव नहीं है। अतः इनके लिए विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है।
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